CM के 9 दावेदार, किसे मिलेगी मोदी की गारंटी: वसुंधरा-मेघवाल मजबूत, लेकिन 3 रुकावटें; सवालों में जानिए, कौन कितना मजबूत और कमजोर?

By | December 7, 2023

CM के 9 दावेदार, किसे मिलेगी मोदी की गारंटी: वसुंधरा-मेघवाल मजबूत, लेकिन 3 रुकावटें; सवालों में जानिए, कौन कितना मजबूत और कमजोर?

राजस्थान में विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद सबसे ज्यादा एक ही बात की चर्चा है कि आखिर मुख्यमंत्री कौन होगा?
इसका ठीक से जवाब तो किसी के पास नहीं है, क्योंकि सीएम का फैसला दिल्ली से ही होना है, लेकिन वसुंधरा राजे रिजल्ट के अगले ही दिन एक्टिव हो गई। मंगलवार को प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी भी सक्रिय हो गए। दिल्ली में भी हलचल तेज है। बाबा बालकनाथ, किरोड़ी मीणा भी काफी एक्टिव हैं। इसके बाद कई सवाल उठ रहे हैं।
क्या वसुंधरा राजे तीसरी बार मुख्यमंत्री बनेंगी? क्या अर्जुन मेघवाल या किरोड़ी मीणा को बनाकर दलित या आदिवासी कार्ड खेला जाएगा?

1. वसुंधरा राजे के मुख्यमंत्री बनने की कितनी संभावना है?
अभी सबसे प्रबल दावेदारों में इनका नाम शामिल हैं। दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। उन्हें प्रशासनिक अनुभव भी हैं, लेकिन सबसे बड़ा संकट है कि वो अपने दो कार्यकाल में सरकार को रिपीट नहीं करवा पाई। दूसरा, पिछले पांच साल में केंद्र से उन्हें ज्यादा महत्व नहीं मिल पाया।
ऐसे में ये कहा जा सकता है कि इनकी 50-50 संभावना है।
2. वसुंधरा राजे कितनी ताकतवर है और इसके मायने क्या है?

पहला : 60% विधायकों के समर्थन का दावा
राजस्थान में भाजपा ने 115 सीटों पर जीत हासिल की है। समर्थकों का दावा है कि राजे को 60 प्रतिशत विधायकों का समर्थन है। इनके यहां डिनर पॉलिटिक्स में करीब 40 से ज्यादा विधायक शामिल हुए थे, हालांकि समर्थकों का 47 से अधिक का दावा है। तीन विधायकों ने राजे को ही सीएम बनाने की पैरवी भी की। मंगलवार को भी कई विधायकों ने मुलाकात की। ऐसे में संख्या बल के हिसाब से राजे मजबूत दिख रही हैं। निर्दलीय 6 विधायकों में से 4 उनके खेमे के ही हैं।
दूसरा : 50 सभाएं, 36 जगह जीत
वसुंधरा राजे ने करीब 50 सभाएं कीं, इनमें 36 जगहों पर भाजपा जीती। कुछ विधायकों ने ये तक कह दिया है कि राजे आईं इसलिए उनकी जीत हुई। कयास ये भी लगाए जा रहे हैं कि लोकसभा चुनाव को देखते हुए राजे को शुरुआती एक डेढ़ साल के लिए मुख्यमंत्री बनाया भी जा सकता है।

तीसरा : टिकटों में भी दिखा था प्रभाव
राजस्थान में भाजपा की 41 प्रत्याशियों की पहली सूची आई, लेकिन इसमें ज्यादातर वसुंधरा समर्थकों के नाम काट दिए गए। इसके बाद जिस तरह का विरोध सामने आया, केंद्रीय नेतृत्व बैकफुट पर आ गया। बाकी की सूचियों में राजे का प्रभाव नजर आया। चंद लोगों को छोड़ दे तो वसुंधरा अपने ज्यादातर लोगों को टिकट दिलाने में कामयाब रहीं।

3. …फिर राजे के मुख्यमंत्री बनने में क्या अड़चन है?
पहली : पिछले कार्यकाल में मोदी और शाह से तल्खियां
पिछले कार्यकाल में जिस तरह वसुंधरा राजे और मोदी-शाह के बीच तल्खियां रहीं, वो कहीं न कहीं उनके रास्ते में अड़चन हैं। शायद ये ही कारण रहा कि पांच साल में उनको राष्ट्रीय कार्यकारिणी में उपाध्यक्ष के अलावा राजस्थान में कोई महत्वपूर्ण पद नहीं दिया गया। भाजपा ने चुनाव से पहले सीएम फेस भी घोषित नहीं किया, जबकि इससे पहले 2003 से 2018 तक के विधानसभा चुनावों में राजे लगातार भाजपा का सीएम फेस रहीं।
दूसरा : 2014 में सांसदों काे लामबंद करने की कोशिश
बतौर मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के दूसरे कार्यकाल में जब 2014 में राजस्थान की सभी 25 सीटें भाजपा को मिलीं और मोदी पहली बार प्रधानमंत्री बने थे, तब उन्होंने सांसदों को दिल्ली में लामबंद करने का प्रयास किया था। राजे का कहना था कि राजस्थान को मोदी मंत्रिमंडल में उचित संख्या में प्रतिनिधित्व नहीं मिला था। उस समय की घटना ने काफी सुर्खियां भी बटोरी थीं।

तीसरा : ‘गहलोत-राजे एक दूसरे के सहयोगी’ का परसेप्शन
पिछले दो चुनाव के बाद ये धारणा बनी कि निवर्तमान मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे का राजनीतिक रूप से एक दूसरे के सहयोगी हैं। गहलोत एक-दो बार इसका जिक्र कर चुके हैं। हालांकि उन्होंने इसका खंडन भी किया था, लेकिन वसुंधरा से नाराज धड़ा हर बार इस बात को हवा देता है।

4. … और कौन नाम हो सकते हैं?
अभी जो नाम सामने आ रहे हैं, इनमें सबसे प्रमुख तौर पर केंद्रीय मंत्री अर्जुन मेघवाल, सांसद बाबा बालकनाथ, किरोड़ी मीणा, दीया कुमारी, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत, अश्विवनी वैष्णव के नाम प्रमुख हैं। इसके अलावा प्रदेशाध्यक्ष सीपी जोशी और छत्तीसगढ़ के चुनाव प्रभारी ओम माथुर का नाम भी दावेदार में शामिल माना जा रहे है।
भाजपा की अन्य राज्यों की जीत को देखें, तो हरियाणा, उत्तराखंड, गुजरात जैसे प्रदेशों में वे नाम सीएम के रूप में सामने आए, जो मीडिया में तो क्या किसी के मन में भी नहीं चल रहे थे। ऐसे में राजस्थान में भी कोई चौंकाने वाला नाम सामने आ जाए, तो आश्चर्य नहीं कहा जा सकता।
5. इनमें सबसे प्रबल दावेदार कौन है और क्यों…
केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल : दलित फैक्टर भुना सकती है भाजपा

जो परिस्थितियां दिख रही हैं, इसमें अर्जुनराम मेघवाल का नाम सबसे ऊपर हैं, क्योंकि वे दलित समुदाय से आते हैं। राजस्थान में करीब 18 प्रतिशत और देश में 20 फीसदी दलित हैं। भाजपा का कोर वोट बैंक दलितों से अछूता है। भाजपा का किसी प्रदेश में दलित सीएम नहीं है, तो भाजपा उनके नाम पर दांव खेलकर देशभर में लोकसभा चुनाव में इसे भुना सकती है। विधानसभा चुनाव में भी प्रधानमंत्री ने दलित समाज से मुख्य चुनाव आयुक्त(हीरालाल समारिया) होने की बात कहकर वाहवाही लूटी थी। दूसरा मेघवाल मोदी और शाह के करीबी हैं। तीसरा ब्यूरोक्रेट रह चुके हैं तो प्रशासनिक समझ भी है। राजस्थान के विधायकों को इनके नाम पर आपत्ति होने की आशंका भी कम है।

नहीं बनाने का कारण क्या : राजस्थान में विधायकों पर पकड़ के हिसाब से वे कमजोर पड़ सकते हैं, क्योंकि राज्य राजनीति में वे जुड़े नहीं रहे। 2014 में चुनाव लड़ने से पहले उन्होंने आईएएस पद से इस्तीफा दिया था। तब से वे लगातार सांसद हैं और मोदी टीम में मंत्री भी। उन्होंने अपना अधिकतर समय केंद्र की राजनीति में दिया है और इस बार भाजपा आलाकमान ने उन्हें राज्य में सक्रिय रखा है। लो प्रोफाइल भी रहते हैं। ऐसे में उनका संबंध भले ही लगभग सभी से अच्छा दिखाई देता है, लेकिन जब नेतृत्व की बात आएगी, उस समय के समीकरण उनका कितना साथ देंगे, ये देखने वाली बात रहेगी।

ओम माथुर : संघ से आते हैं, मोदी के करीबी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब गुजरात में मुख्यमंत्री थे, तब से मोदी के काफी करीबी हैं। वे संघ से आते हैं। राजस्थान के प्रदेशाध्यक्ष रह चुके हैं। दूसरा, अभी छत्तीसगढ़ चुनाव में प्रभारी रह चुके हैं। यहां भाजपा के जीतने की संभावना नहीं के बराबर थी, ऐसे में उनकी रणनीति को इस जीत में काफी अहम माना जा रहा है। दूसरा, माथुर को बनाने से भाजपा को मारवाड़, मेवाड़ के राजनीतिक समीकरण भी साधने में काफी मदद मिलेगी। तीसरा वे कायस्थ समाज से आते हैं। राजस्थान में कायस्थ समाज की सभी जगह स्वीकार्यता है

नहीं बनाने का कारण क्या : माथुर को लेकर कहा जाता है कि ये जीतने मोदी के करीब हैं, उतने शाह के नहीं। ऐसे में ये अड़चन है। दूसरा जब माथुर प्रदेश में रहे थे, तब भी राजे और उनके मनमुटाव की खबरें आती रहती थीं। उस दौरान वे राजे के अलावा दूसरा पावर सेंटर माने जाते थे। इसके बाद उन्होंने अलग-अलग राज्यों में ही जाकर काम किया है। राजस्थान की राजनीति में अधिक सक्रियता दिखाई नहीं दी है।

गजेंद्र सिंह शेखावत और अश्विनी वैष्णव: केंद्रीय मंत्री और मोदी के करीबी

दोनों केंद्रीय मंत्री हैं। मोदी और शाह के करीबी हैं। शेखावत की राजनीतिक पकड़ भी है। वे प्रदेशाध्यक्ष के दावेदार भी रहे हैं। टैक्नोक्रेट वैष्णव का प्रबंधन अच्छा माना जाता है। शेखावत के बनाने से राजपूत और वैष्णव को बनाने से ब्राह्मणों को साधा जा सकता है। वैष्णव के साथ कोई विवाद भी नहीं जुड़ा है।

नहीं बनने का कारण : भाजपा पिछले लंबे समय से कोशिश कर रही है कि वह सवर्ण राजपूत, ब्राह्मण की छवि से बाहर निकलकर अन्य समुदायों पर फोकस करें। भाजपा ने पिछले चुनावों की तुलना में राजपूतों और ब्राह्मणों के टिकट घटाए हैं। ऐसे में संभवत: इनके नाम की लॉटरी मुश्किल से खुले। गहलोत सरकार में शेखावत को लेकर विवाद साथ चले हैं।

किरोड़ी लाल मीणा : पेपर लीक जैसे मुद्दों पर गहलोत को घेरा

फायर ब्रांड नेता हैं। पिछले चार साल से कमजोर पड़ी भाजपा को पेपर लीक और अन्य मुद्दे लाकर उन्होंने सक्रिय किया है। कई मुद्दे उठाए, जिससे गहलोत फंसे रहे। जातिगत आधार पर देखें तो एससी और एसटी दोनों समुदायों में इनकी बाबा की छवि है। जमीनी पकड़ के कारण प्रदर्शन और आंदोलन में आसानी से समर्थक जुटा लेते हैं।

नहीं बनाने का कारण : पूर्वी राजस्थान के नेता है। सभी जगह प्रभाव नहीं है। एक संकट ये भी है कि वे दिमाग से कम दिल से ज्यादा सोचते हैं और करते हैं। इसे प्रशासनिक पकड़ के तौर पर कमजोरी मानी जाती है।

सीपी जोशी : साफ छवि, किसी विवाद से नहीं जुड़े

सांसद सीपी जोशी को इस विधानसभा चुनाव से ठीक पहले प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भाजपा ने चौंकाया था। जोशी संघ से जुड़े हुए हैं। जोशी पहले भाजपा युवा मोर्चा के प्रदेशाध्यक्ष भी रह चुके हैं। इस बार चंद्रभान सिंह आक्या ने टिकट वितरण को लेकर जरूर उन पर उंगली उठाई थी, लेकिन कोई विवाद उनसे जुड़ा हुआ नहीं है।

नहीं बनाने का कारण : राजस्थान की राजनीति में एक जमीनी कार्यकर्ता के रूप में जुड़े रहे हैं। फिलहाल सभी क्षेत्रों या जातियों के हिसाब से देखें, तो उनका प्रभाव पूरे राजस्थान में नजर नहीं आ रहा है। प्रदेश स्तरीय नेता की छवि नहीं होने से भी दिक्कत आ सकती है। इनके गृह जिले में चंद्रभान सिंह आक्या ने टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय लड़कर जीत दर्ज की है।

बालकनाथ और दीया कुमारी
बाबा बालकनाथ की तुलना उत्तरप्रदेश के सीएम से तुलना की जा रही है। रोहतक में मठ है, हरियाणा, राजस्थान और आसपास के इलाकों में अच्छा प्रभाव माना जाता है। हिंदुत्व कार्ड में फिट बैठते हैं, भाजपा के लिए ध्रुवीकरण आसान हो जाएगा। साधु-संत को सीएम बनाने से जनता में पॉजिटिव मैसेज जाता है कि भ्रष्टाचार नहीं होगा।
दीया कुमारी के साथ सबसे प्लस प्वाइंट ये कि वह केंद्रीय नेतृत्व की करीबी हैं। दूसरा वसुंधरा की जगह ऑप्शन बताया जा सकता है। तीसरा भाजपा महिला कार्ड खेलती है तो उसे फायदा मिलेगा। केंद्र सरकार महिला आरक्षण बिल लाई और भाजपा आलाकमान की ओर से महिला वर्ग को तवज्जो देने का मैसेज देने के लिए दीया कुमारी को भी सीएम बनाने की दिशा में सोचा जा सकता है।

नहीं बनाने के समीकरण : वसुंधरा के प्रति बालकनाथ का सॉफ्ट कॉर्नर माना जाता है। जनसभा में कह भी चुके हैं कि वसुंधरा सीएम बनेंगी। राजस्थान की पॉलिटिकल तासीर के हिसाब से पूरी तरह फिट नहीं बैठते। योगी आदित्यनाथ के सीएम बनने से पहले के उत्तर प्रदेश को देखें, तो राजस्थान में ऐसे हालात भी नहीं रहे हैं। उधर, दीया कुमारी की छवि सॉफ्ट है। अभी राजनीतिक रूप से पार्टी ने उन्हें ज्यादा जगह परखा भी नहीं है।

6. भाजपा राजस्थान में क्या कोई प्रयोग कर सकती है?

बाबा बालकनाथ जैसे नेता को अगर पार्टी सीएम नहीं बनाती तो संभव है कि यूपी की तरह यहां भी उप मुख्यमंत्री का प्रयोग करे। संभावना ये भी जताई जा रही है कि राजस्थान में दो या तीन उप मुख्यमंत्री होंगे। इसमें जीते हुए सांसद संभवत: शामिल हो सकते हैं।

7. क्या भाजपा ने संभावित सीएम प्रत्याशियों को दिल्ली बुलाया?

नहीं। लोकसभा चल रही है। 3 दिसंबर को मतगणना होने के एक दिन बाद ही लोकसभा का शीत कालीन सत्र शुरू हो गया। इसमें सांसद के रूप में गजेंद्र सिंह शेखावत, बाबा बालकनाथ, दीया कुमारी और अन्य लोग शामिल हुए। सीपी जोशी और अरुण सिंह चुनाव जीतने के बाद पार्टी प्रोटोकॉल के अनुसार राष्ट्रीय अध्यक्ष और अन्य नेताओं से मिले। वसुंधरा राजे जयपुर ही हैं।

8. मुख्यमंत्री बनाने की क्या प्रक्रिया है?

पार्टी मुख्यमंत्री बनाने के लिए पहले संभवतः पर्यवेक्षकों की नियुक्ति करेगी। वे प्रदेश में विधायकों से बातचीत करते हैं और विधायक दल की बैठक भी लेते हैं। सभी की राय जानी जाती है। इस बीच संसदीय दल की बैठक होती हैं। इसके बाद एक प्रस्ताव बनाकर फैसला केंद्रीय नेतृत्व पर छोड़ दिया जाता है। इसके बाद आलाकमान का तय किया गया नाम घोषित कर दिया जाता है।

9. तो कब तक नाम आने की संभावना है?

प्रक्रिया जटिल है, लेकिन शुरू हो चुकी हैं। सभी की नजरें भाजपा की ओर से बुलाई जाने वाली संसदीय दल की बैठक पर लगी हुई हैं। राजस्थान में अन्य राज्यों की तुलना में स्थितियां थोड़ी अलग हैं, लेकिन राजस्थान को जल्द ही सीएम मिल जाएगा।

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