रामायण कथा Ramayan katha

By | September 16, 2024
  1. वाल्मीकि रामायण

और

रामकीर्ति (रामकियन)

एक तुलनात्मक अध्ययन

डा. करुणा शर्मा

1. अयोध्या का प्रथम राजा

2. राम और उनके भाईयों का जन्म

3. लंका तथा रावण द्वारा उसकी प्राप्ति

4. गौतम मुनि और अहल्या प्रसंग

5. बाली और सुग्रीव का जन्म

6. हनुमान का जन्म

7. सीता का जन्म

8. ताटका वध

9. राम और सीता का विवाह

10. राम-परशुराम प्रसंग

11. राम वनवास

12. राम की चरणपादुकाओं का अधिष्ठापन

13. राम का दंडकारण्य के लिए प्रस्थान

14. शूपर्णेखा का आगमन और खर-दूषण वध

15. सीता का अपहरण

16. सीता की खोज

17. शबरी प्रसंग

18. हनुमान की राम से भेंट

19. राम की सुग्रीव से भेंट

20. वाली वध

21. युद्ध की तैयारी

22. संपाति प्रसंग

23. हनुमान की लंका यात्रा और उनके साहसिक कार्य

24. हनुमान की सीता से भेंट और लंका दहन

25. विभीषण का निष्कासन

26. लंका की किलाबंदी

27. रावण वध

28. सीता की अग्नि परीक्षा

29. राम की अयोध्या वापसी

30. सीता का निर्वासन

31. लव और कुश का जन्म

32. राम का अश्वमेध यज्ञ और सीता का रसातल में प्रवेश

1. अयोध्या का प्रथम राजा

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

महर्षिं वशिष्ठ ने राजा जनक और उनके लघु भ्राता कुशध्वज के

सम्मुख राजा दशर्थ की कुल परंपरा का परिचय देते हुए कहा कि

ब्रह्माजी की उत्पत्ति का कारण अव्यक्त है- ये स्वयंभू हैं, नित्य, शाश्वत

और अविनाशी हैं। उनसे मरीचि की उत्पत्ति हुई। मरीचि से कश्यप

कश्यप से विवस्वान, विवस्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।

 

मनु पहले प्रजापति थे जिनसे इक्ष्वाकु नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। इन इक्ष्वाकु को ही

अयोध्या के प्रथम राजा के रूप में समझा गया।

इक्वाकू के बाद कृमशः

कुकि, विकुकि,

वाण, अनरण्य, पृथु,

त्रिशंकु, धुधुमार, युवनाश्व, मांधाता, सुसंधि, धुवसंधि, भरत, असित, असित

की विधवा कालिंदी से सगर, असमंज, अंशुमान, दिलीप, भगीरथ, कुकुत्स्थ,

रघु, प्रवृद्ध( ये शाप से राक्षस हो गए थे, बाद में ये ही कल्माषपाद के नाम

से प्रसिद्ध हुए थे ), शंखण, सुदर्शन अग्निवर्ण, शीघ्रग, मरु, प्रशुश्रक,

अंबरीष, नहुष, ययाति, नाभाग तथा अज हुए। अज से ही दशरथ का जन्म

हुआ। राम और लक्ष्मण इन्हीं दशरथ के पुत्र हैं।

मकीर्ति के अनुसार

जब एक बार नारायण क्षीरसागर में स्थित अपने घर में वैदिक

मंत्रों का जाप कर रहे थे, तभी समुद्र की सतह पर एक पूर्ण विकसित

सुंदर फूल के साथ कमल का एक पौधा उग आया और इसकी कोमल

और सुगंधित पंखुड़ियों के बीच एक शिशु विद्यमान था जो रमणीयता में

देवताओं से भी उत्कृष्ट था। नारायण ने इसे अपनी बाहों में ले लिया और

उसे ईस्वर को समर्पित करने के लिए कैलास पर्वत की ओर चल पड़े।

ईस्वर की दैवीय इच्छा से शिशु की नियति में संसार का पहला

राजा होना तय था और दानवों के अत्याचारी

शासन से संसार को मुक्त

कराने के एकमात्र उद्देश्य के लिए नारायण के वैभवशाली वंश” की

स्थापना करना था।

यह चमत्कारिक बालक कल्याणकारी राज्य की शुरुआत कर

सके, इसके लिए जम्बूद्टीप नामक देश चुना गया और उसकी राजधानी

का निर्माण करने का दायित्व इंद्र को सौंपा गया।

इसलिए ईस्वर के आदेश का पालन करने के लिए इंद्र नीचे

जम्बुद्वीप आ गया जहाँ वह अचनागवी, युगाग्र, दाह और याग नामक चार

ऋषियों से मिला। उन्होंने देवताओं के राजा इंद्र को अपने निवास स्थान

द्वरावती के जंगल में राजधानी बनाने का परामर्श दिया। तदनुसार

नारायण के वंशज राजाओं की राजधानी वहाँ स्थापित की गई, जहाँ कभी

द्वरावती का जंगल हुआ करता था और उन चार ऋषियों के नामों के चार

प्रारंभिक वर्णों के आधार पर उसका नाम अयुध्या रखा गया। तब उस

बालक का अनोमतान नाम से अयुध्या के राजा के रूप में राज्याभिषेक

17

यह उल्लेखनीय है कि यहाँ राम का वंश सूर्यवंश नहीं है जैसाकि मूल रामायण में है

बल्कि उसे नारायण के वंश के नाम से जाना जाता है। रामकीर्ति पृ. 4

18

स्पष्ट रूप से यह नाम महाभारत से लिया गया है। शायद, महाभारत के अप्रत्यक्ष

प्रभाव के कारण अथवा किसी भ्रमवश यह नाम रामायण की कहानी में जोड़ दिया गया

है। रामकीति पृ. 5

19

अनोमतान स्पष्ट रूप से रघु हैं। लेकिन यह नाम बहुत विचित्र है। तमिल मूल के

किसी संदर्भ के बिना यह तमिल भाषा को प्रतिध्वनित करता है। यद्यपि किसी भी

निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना बहुत कठिन है तथापि कुछ संकेत देखे जा सकते हैं। सबसे

पहले लेखक ‘अनोमा’ नाम से परिचित कराता है। यदि ऐसा है, तब यह पालि शब्द

अनोमा हो सकता है। (सं. अनावामा) जिसका अर्थ है ‘महा यशस्वी’ । अथवा यदि यह

शब्द ‘अनोमतान’ है तब यह शब्द ‘अनो’ और ‘मैत्री’ शब्दों से उत्पन्न हुआ माना जा

सकता है, जिसका अर्थ होता है-जिसकी माँ नहीं है। चूंकि बालक बिना माता के पैदा

हुआ था, इसे ‘अनोमता’ कहा गया हो, या ‘अनोमतान जो इसका विकृ

त रूप है।

रामकीर्ति पृ. 5

कर दिया गया तथा उसे दानवों के दमन और संसार की रक्षा के लिए

नारायण के अवतार के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। उसे अलौकिक

शक्तियाँ प्रदान की गई और उसे चार शस्त्र -तीर, त्रिशूल, गदा और चक्र

दिए गए ताकि वह संपूर्ण और निश्चित रूप से अपने दैवीय कर्तव्यों का

पालन कर सके। कहीं अनोमतान की मृत्यू के साथ नवस्थापित वंश

समाप्त न हो जाए, इंद्र ने इस बात को ध्यान में रखकर उन्हें मणिकेसर

नाम की एक रानी भेंट की। उनसे अजपाल नामक पुत्र का जन्म हुआ।

जब अजपाल परिपक्व हो गया, अनोमतान ने उसे अयुध्या की गद्दी पर

प्रतिष्ठापित कर दिया और स्वयं स्वर्ग सिधार गया।

अपने पिता की तरह राजा अजपाल ने भी देवताओं और प्रजा

की इच्छापर्ति करने के साथ ही दानवों से संसार की रक्षा की। दीर्घ काल

तक गौरवपूर्ण शासन करने के बाद अपने पुत्र दसरथ को वंश परंपरा का

दायित्व सौंपकर वह मृत्यु को प्राप्त हो गया।

उल्लेखनीय बिंद

वा. में राम की वंश परंपरा ब्रह्ाजी से उत्पन्न मानी गई है जो

स्वयंभू हैं, वैसे ही रा. में भी जिस बालक से राम के वंश की परंपरा चली,

वह भी स्वयंभू है। वा. में इक्ष्वाकु को अयोध्या का पहला राजा माना गया

जबकि रा. में अनोमतान को। वा. में राम के वंश की लंबी परंपरा का

उल्लेख है जबकि रा. में अनोमतान, उनके पुत्र अज और अंत में अज के

पुत्र दसरथ का ही उल्लेख है। वा. में अयोध्या का निम्माण कैसे हुआ,

इसका कोई वर्णन नहीं है, जबकि रा. में अयुध्या की स्थापना का पूरा

वर्णन है। वा. के अज ही रा. में अजपाल हैं, दोनों ही ग्रंथों में इनके पुत्र

दशरथ हैं, उच्चारणगत विशिष्टता के कारण ये रा. में दसरथ हो जाते हैं।

दशरथ के पुत्र राम हैं। वा. में राम सूर्यवंशी हैं जबकि रा.

में ये

नारायणवंशी हैं।

राम और उनके भाईयों का जन्म

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

दूरदर्शी, सत्यपरायण, महात्मा दशर्थ अत्यंत प्रभावशाली होते हुए

भी पुत्रहीन होने की बात से सदैव चिन्तित रहते थे। उनके कौशल्या,

कैकेयी और सुमित्रा नाम की तीन रानियाँ थी। किंतु वंश को आगे चलाने

के लिए किसी से भी उनके कोई पुत्र नहीं था।

बहुत अधिक चिंतन करते-करते एक दिन उनके मन में

विचार आया कि पुत्र-प्राप्ति के लिए अश्वमेध यज्ञ का अनुष्ठान किया

जाए। उस पर मंत्रणा करने के लिए उन्होंने वेदविद्या में पारंगत मुनियों

सुयज्ञ, वामदेव, जाबालि, काश्यप तथा कुलपुरोहित वशिष्ठ जी तथा अन्य

श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलवाया। सभी ब्राह्मणों ने उनके अश्वमेध करने के

विचार की प्रशंसा की और ऐसा करने के लिए उन्हें आश्वस्त किया, साथ

ही अश्वमेध की तैयारी करने के लिए कहा। फिर वे राजा को बधाई देते

हुए उनकी आज्ञा लेकर चले गए।

मुनियों के जाने के बाद मंत्री सुमंत्र ने राजा दशरथ से एकांत में

अश्वमेध यज्ञ के लिए मुनिकुमार त्ऋष्यश्रंग को बुलवाने का निवेदन किया

और उनसे प्रार्थना की कि वे ऋषि को स्वयं बुलाकर लाएं। उनकी प्रार्थना

का सम्मान करते हुए राजा स्वयं ऋषि ऋष्यश्रंग को उनकी पत्नी शांता

सहित अंगदेश से अयोध्या में बुलाकर लाए।

ऋष्यश्रृंग के नेतृत्व में वशिष्ठ ऋषि आदि सभी श्रेष्ठ ब्राह्मणों ने

सरयू नदी के तट पर तैयार की गई यज्ञ भूमि में शास्त्रोक्त विधि के

अनुसार पुत्रेष्टि यज्ञ आरंभ किया।





अवध नरेश ने अपनी पत्नियों के साथ

यज्ञ की दीक्षा ली। देवता, सिद्ध, गंधर्व और महर्षिगण अपना-अपना भाग

लेने के लिए उस यज्ञस्थल पर एकत्रित थे। उसी समय देवताओं ने

ब्रह्माजी से रावण के अत्याचारों से संसार को मुक्त करने के लिए कोई

युक्ति सुझाने का निवेदन किया। ब्रह्माजी ने देवताओं को बताया कि

रावण ने उनसे देवता, गंधर्व, यक्ष, तथा राक्षसों

से न मारे जाने का वरदान

मांगा था, मनुष्य को तुच्छ समझने के कारण उससे अवध्य होने का नहीं।

इसलिए अब मनुष्य के द्वारा ही उसका वध होगा। तभी भगवान विष्णु जी

भी वहाँ आ गए। देवताओं ने उनसे प्रार्थना की, ‘आप धर्मज्ञ, उदार और

तेजस्वी राजा दशरथ की तीनों रानियों के गर्भ से अपने चार स्वरूप

बनाकर पुत्र रूप में अवतार ग्रहण कीजिए। इसप्रकार मनुष्यरूप में प्रकट

होकर आप संसार के लिए कंटकरूप रावण का समरभूमि में वध कर

दीजिए। इस प्रार्थना को स्वीकार कर विष्णु जी ने अपने को चार रूपों में

प्रकट करके राजा दशरथ को पिता बनाने का निश्वय किया।

जब राजा दशरथ यज्ञ कर रहे थे, तभी यज्ञ कुंड में से एक

विशालकाय पुरुष प्रकट हुआ। वह प्रज्ज्वलित अग्नि की लपटों के समान

दैदीप्यमान था। उसके हाथ में जाम्बुनद नामक स्वर्ण की बनी हुई एक

बड़ी परात थी जो चांदी के ढक्कन से ढकी हुई थी। उसमें दिव्य खीर

भरी हुई थी। उसने स्वयं को प्रजापतिलोक का पुरुष बताया और राजा से

स्वयं देवताओं द्वारा बनाई गई दिव्य खीर को स्वीकारने और उसे अपनी

पत्नियों को खिलाने के लिए कहा ताकि इससे उन्हें अनेक पुत्रों की प्राप्ति

हो सके। इसके बाद वह कांतिमान पुरुष अंतर्धान हो गया।

राजा ने उस पुरुष की बात को मानते हुए उस खीर का आधा

भाग कौशल्या को दे दिया। फिर बचे हुए आधे का आधा भाग सुमित्रा को

दे दिया। उन दोनों को देने के बाद जितनी खीर बची थी, उसका अआधा

भाग कैकेयी को अर्पित किया और अवशिष्ट खीर को कुछ सोचकर पुनः

सुमित्रा को दे दिया।

यज्ञ समाप्ति के बाद छः ऋतुओं के बीत जाने पर चैत्र के

शुक्लपक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र एवं कर्क लग्न में कौशल्या ने

दिव्य लक्षणों से युक्त, सर्वलोक वंदित जगदीश्वर श्री राम को जन्म दिया

जिनके नेत्रों में कुछ-कुछ लालिमा थी, ओठ लाल -लाल थे,

बड़ी-बड़ी थीं और स्वर दुंदुभि के समान गंभीर था। कैकेयी ने सत्यवादी,

पराकमी भरत को और सुमित्रा ने लक्ष्मण व शत्रघ्न को जन्म दिया।

भु

जाएं

रामकीर्ति के अनुसार

अजपाल की मृत्यु के बाद राजा दसरथ अयुध्या के सिंहासन पर

विराजमान हुए उनके कौसूरिया, समुद्रजा और कैयाकेशी नामक तीन

रानियाँ थीं । यद्यपि वे राजसी वैभव व दांपत्य प्रेम से तो सुखी थे, किंतु

पुत्र न होने के कारण वे काफी दुखी रहते थे। इस दुख के निवारण के

और भारद्वाज ऋषियों को

लिए उन्होंने वसिट्ठ, स्वामित्र , वज्जावग्ग”

राजा के निवेदन पर उन ऋषियों ने बताया कि उनके पास जो

दैवीय शक्त है, वह नारायण के वंश के लिए ऐसा योग्य पुत्र प्रदान करने

में सक्षम नहीं है जो संसार को दानवों के पंजों से मुक्त कराने के लिए

अतः उन्होंने राजा को सलाह दी कि वे शिशु हेतु यज्ञ संपन्न

करवाने के लिए ऋषि सिंगमुनि के पुत्र महान शक्तिसंपन्न कोलायकोटि

22 ऋषि से सहायता मांगें। उन ऋषि की विशिष्टता के बारे में बताते हुए

उन्होंने कहा कि उनका जन्म हिरण से हुआ था जिसके कारण मुख तो

उनका हिरण का था जबकि शरीर मनुष्य का था। अपनी युवावस्था में

कोलायकोटि ऋषि ने रोमाबत्तन 23 देश में ऐसी घोर तपस्या की जिसके

कारण वहा सूखा पड़ गया था। सूखे की समस्या को हल करने के लिए

राजा ने अपनी पुत्री को उन्हें लुभाने हेतु भेजा। उसके प्रति आकृष्ट होने

नियत है।

20

सं कौशल्या, सुमित्रा और कैकेयी रामकीर्ति पू 7

21

सं वशिष्ठ, विश्वामित्र

22

रामकीर्ति पू7

कोलायकोटे स्पष्ट रूप ये ‘ऋष्यश्रंग’ हैं। किंतु यहाँ पर सिंगमुनि (ऋष्यश्रंग का

विकृत रूप) पिता दिखाई पड़ते है। स्पष्ट रूप से यह पिता विभंडक और पुत्र ‘ऋष्यश्रंग

के बीच किसी भ्रांति के कारणवश ही है।

रामकीर्ति पू 7

23

वाल्मीकि के अनुसार, देश का नाम अंगरा था जबकि शासक राजा का नाम रोमापद

था। निस्संदेह राजा का नाम गलती से देश के नाम के रूप में प्रयूक्त

किया गया है।

रामकीति पृ 8

पर उन्होंने अपनी तपस्या त्याग दी। परिणामस्वरूप वहाँ बहुत अधिक

बारिश हुई और ऋषि राजा के दामाद बनकर रहने लगे।

दसरथ के आमंत्रण पर उन्होंने अयुध्या में आकर

दायित्व सँभाल लिया। किंतु यज्ञ आरंभ करने से पहले उन्होंने ईस्वर से

कैलास पर्वत पर जाकर परामर्श करना उचित समझा क्योंकि वे जान चुके

थे कि तीनों देवताओं द्वारा दिए गए वरदानों के कारण दानव अपराजेय

हो चुके हैं और इसीलिए वे सारे संसार को अमानवीय रूप से उत्पीड़ित

कर रहे है। अतः उन्होंने ईस्वर से कहा कि वे नारायण से प्रार्थना करें कि

दसरथ के पुत्र के रूप में वे अवतार धारण कर संसार पर मंडराती हुई

आपदाओं से उसे छुटकारा दिलवाएं। नारायण ने ईस्वर की बात मान ली

किंतु एक शर्त रखी किे उनके साथ ही लक्ष्मी, अनंत नाग, गदा, चक्र और

शंख भी अवतार धारण करेंगे 24 जिसे ईस्वर ने तत्काल स्वीकार कर

लिया।

ईस्वर ने ऋषियों को लौटने और यज्ञ करने की सलाह दी और

बताया कि यज्ञ की अग्नि में से एक अर्द्धदेव निकलेगा जिसके सिर पर

एक ट्रे होगी जिसमें दिव्य खाद्य-पदार्थ के चार केक होंगे। तभी एक

कौआ उस ट्रे पर झपटेगा और एक केक के मात्र आधे ट्कड़े को लेकर

दक्षिण दिशा की ओर उड़ जाएगा। बाकी बचे हुए केक दसरथ की रानियों

में बाँट देना ताकि वे उनके चार पुत्रों को जन्म दे सकें ।

ईस्वर द्वारा

बताई

प्रत्येक

घटना

घटती गई। नारायण

कौसुरिया के पुत्र राम के रूप में अवतरित हुए जो हरे रंग के थे; चक्

कैयाकेशी के पुत्र बरत के रूप में, जो लाल रंग के थे; नाग और शंख

दोनों एक साथ समुद्रजा के पुत्र लक्षण के रूप में, जो पीले रंग के थे;

जबकि गदा समुद्रजा के ही पुत्र सत्रुद के रूप में, जो बैंगनी रंग के थे।

इन चारों में राम सबसे बड़े थे फिर कमशः बरत, लक्षण और सत्रूद थे।

24

यहाँ अवतार के वैभिन्न्य को स्पष्ट किया गया है कि यह भारतीय दृष्टि से कैसे

अलग है। भारतीय रामायण के अनुसार स्वयं नारायण ने दसरथ के चार पुत्रों के

रूप में

अवतार धारण किया था।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों रचनाओं में कथा लगभग एक जैसी-सी ही है। राजा

दशरथ ने पुत्र न होने के कारण यज्ञ का आयोजन किया। उनके तीन

रानियाँ थीं। किंतु उनके नामों में अंतर है। वा. में कौशल्या, सुमित्रा और

कैकेयी हैं, जबकि रा. में कौसुरिया, समुद्रजा और कैयाकेशी है। राजा

दशरथ ने जिन मुनियों से परामर्श किया उनके नामों में भी अंतर है।

वसिट्ठ और स्वामित्र वा. के वसिष्ठ और विश्वामित्र हैं । इस संबंध में यह

माना जा सकता है कि यह अंतर थाई लोगों की उच्चारण व्यवस्था में

अंतर

ऋष्यश्रृंग है जबकि रा. में कोलायकोटि है जो सिंगमुनि के पुत्र हैं। दोनों

ग्रंथों में देश और राजा के नामों के बीच उत्पन्न हुए संदेह का निवारण

इसी पुस्तक में किया है।

होने के कारण

वा. में तपस्या करने वाले ऋषि का

नाम

वा. में ऋषि ऋष्यश्रंग की विशिष्टता तथा उनकी पत्नी शांता के

विषय में पूरी बात सुमंत्र बताते हैं जबकि रा. में आमंत्रित ऋषि उनके

वैशिष्ट्रय का वर्णन करते हैं। इसमें उनकी पत्नी के नाम का उल्लेख नहीं

है। साथ ही रा. में कोलायकोटि का जन्म हिरण से हुआ बताया गया है।

जबकि वा. में ऐसा कुछ नहीं मिलता।

वा. में नारायण ही चार पुत्रों के रूप में अवतार धारण करते हैं।

किंतु रा. में नारायण तो राम के रूप में जन्म लेते हैं, जबकि चक् बरत,

नाग और शंख एक साथ लक्षण तथा गदा सत्रृद के रूप में जन्म लेते हैं।

रा. राम, लक्षण, बरत और सत्रुद के वर्णों का वर्णन मिलता है, किंतु इस

प्रकार का कोई उल्लेख वा. में नहीं मिलता।

लंका तथा रावण द्वारा उसकी प्राप्ति

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

जब विश्रवा के पुत्र वैश्रवण का जन्म हुआ, तो पितामह पुलस्त्य

को बहुत प्रसन्नता हुई क्योंकि वे दिव्य दृष्टि से देख चुके थे कि यह

बालक संसार के लिए कल्याणकारी

होगा और आगे चलकर धनाध्यक्ष

होगा। बड़े होने पर वैश्रवण ने घोर तपस्या की जिससे संतुष्ट होकर ब्रह्मा

जी ने उसे यम, इंद्र और वरुण के बाद चौथा लोकपाल बनने और अक्षय

निधियों का स्वामी कुबेर बनने का वरदान दिया तथा एक तेजस्वी पुष्पक

विमान स्वारी के लिए प्रदान किया (अब वैश्रवण कुबेर के नाम से भी

जाना जाने लगा)। ब्रह्माजी के जाने के बाद जब कुबेर ने अपने निवास

स्थान के बारे में पूछा तो उनके पिता विश्रवा ने उनसे दक्षिण समुद्र के

तट पर स्थित त्रिकूट पर्वत के शिखर पर बसी विशाल लंकापुरी में बसने

के लिए कहा। उन्होंने कुबेर को बताया कि उस पुरी की चहारदीवारी

सोने की बनी हुई है। उसके चारों ओर चौड़ी खाइयाँ खुदी हुई हैं और

वह अनेकानेक यंत्रों और शस्त्रों से सुरक्षित है। इसमें पहले भी राक्षस

रहते थे जिन्होंने भगवान विष्णु के भय से इसे त्याग दिया था। वे सभी

रसातल में चले गए, इसलिए लंकापुरी सूनी हो गई। पिता की आज्ञा

से उन्होंने उस सूनी लंका को बसाया।

जब रावण का जन्म हुआ और बड़े होने पर उसने घोर तपस्या

की, तब उसे देवताओं से अनेक वरदान प्राप्त हुए जिन्हें पाने के बाद वह

मदमस्त हो गया। उसने कुबेर से लंका वापस करने को कहा, तब उन्होंने

अपने पिता की राय लेकर लंका रावण को लौटा दी।

रामकीर्ति के अनुसार

जब अर्द्धदेवता यज्ञ की अग्नि में से बाहर आए, तभी ईस्वर की

वाणी के अनुरूप एक कौआ वहाँ पहुँच गया। वह एक केक के आधे टुरकड़े

को लेकर दक्षिण दिशा की ओर उड़ गया। उस समय दक्षिण दिशा में

लंका द्वीप स्थित था जिस पर दानवों का राज था। इस द्वीप के निलाकल

पर्वत की चोटी पर कौओं का एक बड़ा घोंसला होने के कारण सबसे

ने अपने भक्त

पहले लंका का नाम रंगका पड़ा। साहपति

25

ठेठ थाई भाषा से व्युत्पन्न नाम है। दोनों शब्द ही थाई हैं। ‘रंग का अर्थ घोंसला

और ‘का’ का अर्थ कौआ है।

26

शायद यह शब्द साहमपति ब्रह्म बुद्धवादी अ

वधारणा से उद्धत किया गया हो ।

सहमालिवान के लिए इस द्वीप का सृजन किया, अतएव वह लंका का

पहला राजा बना। लेकिन नारायण से भयभीत होने के कारण उसने अपने

द्वीप-राज्य को छोड़ दिया और पाताल लोक की ओर भाग गया।

अपनी सृष्टि को अशासित और असुरक्षित

पाकर

ब्रह्मा ने

विश्वकर्मा को निलाकल पर्वत पर एक सुंदर नगर-निर्माण का आदेश

दिया। इसके पूरे होने के पश्चात् उन्होंने इसका नाम विजय लंका रखा

और अपने भक्तों में से एक

बनाकर सिंहासन पर बैठा दिया और साथ ही रानी मलिका को उसकी

पत्नी बना दिया।

दूसरे

भक्त चतुरवक्त्र को इसका राजा

चतुरवक्त्र की मृत्यु के बाद उसका पुत्र लैस्टियन सिंहासन पर

आरूढ़ हुआ। वह एक भयानक दुर्जेय राक्षस था। उसकी पाँच रानियाँ थीं

जिनके नाम थे- श्रीसुनंदा, कुपेरन की माता; चित्रमाली, देवनासुर की माता;

सुवर्णमलाई, अश्धाता की माता, वर प्रभा, मारन की माता; और रजता जो

छह पुत्रों और एक पुत्री की माता थी, जिनके नाम दसकंठ, कुंभकर्ण,

बिभेक, दूषन, खर, त्रिशिरा और सम्मानखा थे।

उस समय कालनाग पाताल का राजा था। जैसाकि बताया जा

चुका है कि लंका का भूतपूर्व राजा सहमालिवान पाताल में शरण ले चुका

था। पाताल में उसका ठहरना कालनाग को स्वीकार्य नहीं था क्योंकि उसे

निरंतर यह भय लगा रहता था कि किसी दिन यह भूतपूर्व राजा उसके

शासन के खिलाफ विद्रोह कर उसका राज्य छीन सकता है। इसलिए

उचित अवसर पाकर उसने सहमालिवान के विरुद्ध आकामक हमला कर

दिया। उस समय सहमालिवान के लंका के तत्कालीन राजवंश के साथ

27

विजय शब्द का एक विशेष प्रकार का अन्तर्वेश, परंपरा के प्रमाणीकरण के

साथ यह स्वीकार किया जा सकता है कि बंगाल के एक राजकुमार विजय सिंह

ने लंका को सबसे पहले जीता था और उसके नाम पर ही

लंका का नाम

‘सिंहल पड़ा।

अच्छे संबंध थे, इसलिए उसने लैर्टियन से सहायता मांगी जिसे उसने

सहर्ष स्वीकार कर लिया और शीघ्र ही उसने कालनाग को पराजित कर

दिया। लैस्टियन के शस्त्रों के प्राणांतक प्रहार से बचने के लिए और कोई

रास्ता न पाकर उसने अपनी पुत्री काल-अग्गी को उसे भेंट कर दिया

और अपनी जान बचाकर भाग गया। लैरस्टियन ने यूवा राजकुमारी को

स्वीकार कर उसका विवाह अपने पुत्र दसकंठ के साथ कर दिया।

जब लैस्टियन वृद्ध हो गया, उसने अपने राज्य को अपने दस

विभाजित

पुत्रों

लड़ाई-झगड़ा न करें । उसके इस विभाजन के अनुसार दसकंठ लंका के

राजा के रूप में उसका उत्तराधिकारी बना, जबकि कुपेरन कालचक् का

राजा बना दिया गया और उसने पुष्पक विमान को प्राप्त किया। देवनासुर

चकृवाल का शासक बना, अश्धाता बदकान का; मारन सोलाश का, खर

रोमागल का; दूषन जनपद में चरिक का और त्रिशिरा

शासक बना; जबकि सम्मानखा का विवाह राजा जिवृहा से कर दिया

गया।

कर दिया ताकि

उसकी

उपरांत

वे

मज्जावरी का

उल्लेखनीय बिंद

वा. में लंका पहले से ही राक्षसों के लिए बनी हुई थी। इसमें

लंका के स्प्रथम अस्तित्व में आने का कोई वर्णन नहीं है, जबकि रा. में

साहपति ब्रह्मा ने अपने भक्त सहमालिवान के लिए लंका का सृजन किया

था। वा. में रावण से पहले लंका में वैश्रवण अर्थात् कुबेर रहते थे। अपने

पिता के कहने पर वे लंका रावण को सौंप कर कैलास चले गए थे,

जबकि रा. में लैस्टियन ने अपने राज्य को दस पुत्रों में विभाजित किया था

जिसके अनुसार दसकंठ लंका के राजा के रूप में उसका उत्तराधिकारी

बना था।

गौतम मुनि और अहल्या प्रसं

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

विश्वामित्र के साथ जाते समय जब राम ने एक सुनसान आश्रम

देखा तो उन्होंने ऋषि से उसके सूनेपन का कारण जानना चाहा। इस

बारे में बताते हुए ऋषि ने कहा कि यह महात्मा गौतम का आश्रम था

जिसमें वे अपनी पत्नी के साथ रहते हुए तपस्या करते थे

ने गौतम ऋषि का वेश धारण कर उनकी पत्नी के साथ समागम करने

की इच्छा व्यक्त की। इंद्र को पहचान लेने पर भी उस दु्बुद्धि नारी ने

एक दिन इंद्र

सुखद आश्चर्य से सोचा, ‘अहो! देवराज इंद्र मुझे चाहते हैं। इस

कौतुहलवश उसने इंद्र के समागम के प्रस्ताव को स्वीकार

रति के पश्चात् उसने इंद्र से कहा कि अब आप यहाँ से चले जाइए।

महर्षि गौतम के कोप से अपनी और उसकी रक्षा कीजिए। गौतम के आ

जाने की आशंका से इंद्र बड़ी उतावली से वेगपूर्वक भागने का यत्न करने

लगा। तभी तपोबलसंपन्न महामुनि गौतम ने आश्रम में प्रवेश किया और

कपटवेशधारी इंद्र को देखा। उन्होंने कोध में भरकर कहा, ‘दुर्मते! तूने मेरा

रूप धारण करके यह न करने योग्य पापकर्म किया है, इसलिए तू विफल

(अण्डकोषों से रहित) हो जाएगा। इंद्र को शाप देने के बाद उन्होंने

अपनी पत्नी को भी शापित किया, ‘दुराचारिणी! तू भी यहाँ कई हजार वर्षों

तक केवल हवा पीकर या उपवास करके कष्ट उठाती हुई राख में पड़ी

रहेगी। समस्त प्राणियों से अदृश्य रहकर इस आश्रम में निवास करेगी।

जब दशरथ कुमार राम इस घोर वन में पदा्पण करेंगे, उस समय तू

पवित्र होगी। उनका आतिथ्य- सत्कार करने से तेरे लोभ-मोह आदि दोष

दूर हो जायेंगे और तू प्रसन्नतापूर्वक मेरे पास पहुँचकर अपना पूर्व शरीर

धारण कर लेगी। अहल्या के बारे में इस संपूर्ण वृतांत को सुनकर श्रीराम

ने आश्रम में प्रवेश कर उनका उद्धार किया और अब वे सबको दिखाई

पड़ने लगं। इसप्रकार गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या अपनी तपस्या की

कर लिया।

शक्ति से विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त हुई। अपने पति के कहे गए वचनों के

अनुरूप उन्होंने दोनों भाइयों का आतिथ्य – सत्कार किया तथा फिर वे

अपने पति के पास चली गईं । महर्षिं गौतम भी उन्हें पाकर सुखी हो

गए।

रामकीर्ति के अनुसार

यह कथा बिल्कुल अलग रूप लिए है। साकेत के राजा गोतम

निस्संतान थे। इसलिए वे अपना विशाल राज्य और राज्य सिंहासन त्याग,

सन्यास का आश्रय ले कर दो हजार वर्ष के लंबे समय तक ध्यान में लीन

रहे। दाढ़ी के बहुत लंबी हो जाने पर उसमें दो बुनकर पक्षियों ने अपना

घोंसला बना लिया और एक दिन मादा पक्षी ने कुछ अंडे दिए। नरपक्षी

अपनी पत्नी से अंडे सेने के लिए कहकर स्वयं हिमवान पर स्थित कमल

से भरी झील पर खाने की तलाश में चला गया। पयप्त मात्रा में भोजन

पाकर और नए स्थान के अनूठेपन को देखकर उसे शाम होने का पता न

चला। सूर्यास्त होने पर वह कमल की पंखुड़ियों के बंद हो जाने पर सारी

रात उसके बीजकोष में बंदी बना रहा। उससे उसके शरीर में कमल की

खुशबु समा गई।

अगली सुबह जब वह घर पहुँचा, उसके शरीर में से अब भी

कमल की खुशबु आ रही थी। मादा पत्नी ने उस खुशबु का अनुभव

किया। उसने स्त्री विचार से इसे किसी दूसरी मादा बुनकर पक्षी की

खुशबु मान लिया जिसके साथ संभवतः उसके पति ने पिछली रात बिताई

थी। इसलिए उसने अपने पति को विश्वासघात करने के लिए भला-बुरा

कहा। नर पक्षी ने उसके दोषारोपण का खंडन किया और दृढ़तापूर्वक

कहा कि यदि वह विश्वासघात का अपराधी हो तो तपस्वी के सारे पाप

उसे लग जाएं।

इस बात से गोतम को बड़ा झटका लगा क्योंकि वह अपने को

सदा निष्पापी समझता था। इसलिए उसने बुनकर पक्षी से उसके आरोप

का कारण पूछा और उसे मालूम हुआ कि निस्संतान होने में ही उसका

पाप निहित है। अतः:

उसने यज्ञ किया और उस यज्ञ की अग्नि से

28

‘गोतम’ स्पष्ट रूप से अहल्या के पति ‘गौतम’ हैं। यहाँ पर उनको राजा के रूप में

प्रस्तुत किया गया है। यहाँ पर ‘साकेत के प्रयोग में विचारों में भ्रांति दिखाई देती है।

वास्तव में ‘साकेत अयोध्या का दूसरा नाम है, कोई दूसरा देश नहीं

। रामरकीर्ति, पृ 20

28

नामक एक सुंदर युवती निकली। गोतम ने उसे अपनी

कालअचना

पत्नी बना लिया। समय आने पर उसने एक कन्या को जन्म दिया। पिता

ने उसका नाम स्वाहा रखा।

जब नारायण ने दसरथ के पुत्र के रूप में जन्म लेना स्वीकार

कर लिया, तब इंद्र और दूसरे देवताओं ने दसकंठ के विरुद्ध लड़ाई में

राम की सहायता के लिए सैनिकों की उत्पत्ति के बारे में विचार किया।

अंत में उन्होंने काल-अचना के बारे में सोचा। इसलिए इंद्र नीचे आए और

उनकी अलौकिक शक्ति से काल-अचना ने गर्भ धारण किया। समय आने

पर उसने एक पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम काकशबिरि रख दिया।

कुछ समय बाद आदित्य नीचे आए और उनके द्वारा काल-अचना ने गर्भ

धारण कर सुग्रीव नामक दूसरे पुत्र को जन्म दि्या। उनके जन्मदाताओं से

अनभिज्ञ गोतम ने उन्हें अपना ही पुत्र समझा। किंतु स्वाहा अपनी माता के

निष्ठाहीन व्यवहार की प्रत्यक्ष साक्षी थी।

जब एक दिन गोतम सुग्रीव को अपनी गोद में उठाए, काकश

को अपने कंधे पर बिठाए और स्वाहा का हाथ पकड़ कर नहाने जा रहे

थे, तब पिता का यह व्यवहार उसे बहुत बुरा लगा और उसने अपने पिता

से कह दिया कि वह अपनी संतान को तो पैदल ले जा रहे हैं और दूसरों

की संतान के प्रति अधिक दयालु हो रहे हैं। यह सुन गोतम स्तब्ध रह

गए। उन्होंने अपनी पुत्री से इस आक्षेप का कारण पूछा जिसे उसने तुरंत

बता दिया।

परंतु गोतम को अपनी पुत्री की बात पर विश्वास नहीं हुआ। इस

बात की वास्तविकता जानने के लिए वे सभी बच्चों को नदी किनारे ले

गए और इस प्रार्थना के साथ उनको पानी में फेंक दिया कि उनका अपना

बच्चा तो तैरकर उनके पास आ जाए और दूसरों के बच्चे बंदर के रूप में

बदल जाएं और जंगल में चले जाएं। उनकी प्रार्थना सत्य सिद्ध हुई और

29

कल-अचना स्पष्ट रूप से अह

ल्या ही है। रामकीति प 22

तदनुसार काकश और सुग्रीव ने बंदर बनकर पास के ही वन में आश्रय ले

लिया।

तब गोतम ने घर आकर अपनी निष्ठाहीन पत्नी काल-अचना को

शाप दिया कि वह एक पत्थर के रूप में बदल जाए ताकि जब नारायण

दानवों के विनाश के लिए अवतार धारण करें तो पत्थर के रूप में उसका

प्रयोग पुल बनाने के लिए हो और इसप्रकार वह सदा के लिए समुद्र में

डूबी रहे।

उल्लेखनीय बिंदु

वा. में गौतम एक ऋषि के रूप में वर्णित हैं, जबकि रा. में उन्हें

साकेत के एक राजा के रूप में प्रस्तुत किया है। वा. की अहल्या ही रा.

की काल-अचना है । वा. में अहल्या ने इंद्र को पहचानने के बाद भी

उसके साथ दुष्कर्म करने के लिए अपनी सहमति दी थी और रति के

पश्चात् भाग जाने के लिए कहा इसमें अहल्या गर्भवती नहीं हुई, जबकि

रा. में इंद्र की अलौकिक शक्ति से काल-अचना ने गर्भ धारण किया था।

दोनों ही ग्रथों के अनुसार गौतम ने अहल्या को शाप दिया था। वा. में

गौतम ऋषि ने अपनी तपस्या के बल से इंद्र द्वारा किए गए दुष्कर्म को

पहचान लिया था, जबकि रा. में उनकी पुत्री स्वाहा ने अपने पिता को

काल-अचना के दुष्कर्म के बारे में बताया था। वा. में अहल्या को मुक्ति के

बारे में भी बताया गया जबकि रा. में इसप्रकार का कोई उल्लेख नहीं है।

वाली और सुग्रीव का जन्म

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

जब भगवान विष्णु ने राजा दशरथ के यहाँ पुत्र भाव से जन्म ले

लिया, तब ब्रह्मा जी ने सभी देवताओं से कहा, ‘भगवान विष्णु सत्यप्रतिज्ञ,

वीर और हम लोगों के हितैषी हैं । तुम लोग उनके सहायक के रूप में ऐसे

पुत्रों की सृष्टि करो, जो बलवान, इच्छानुसार रूप धारण करने में समर्थ,

माया जानने वाले, शूरवीर, वायु के समान वेग

शाली, नीतिज्ञ, बुद्धिमान,

विष्णुतुल्य पराकृमी, किसी से परास्त न होने वाले, तरह-तरह के उपायों

के जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओं के समान सब

प्रकार की अस्त्रविद्या के गुर्णों से संपन्न हों। प्रधान-प्रधान अप्सराओं,

गंधर्वों की स्त्रियों, वि्याधारियों, किन्नरियों तथा वानरियों के गर्भ से

वानररूप में अपने ही तुल्य पराकृमी पुत्र उत्पन्न करो। तभी ब्रह्मा जी ने

यह भी बताया कि ऋहक्षराज जाम्बबान की सृष्टि तो उन्होंने पहले से ही

कर ली है। ब्रह्मा जी के ऐसा कहने पर देवताओं ने उनकी आज्ञा स्वीकार

कर वानर रूप में अनेक पुत्रों की उत्पत्ति की।

इसी कम में देवराज इंद्र ने वीरराज वाली को पुत्र रूप में

उत्पन्न किया जो महेन्द्र पर्वत के समान विशालकाय और बलिष्ठ था और

भगवान सूर्य ने सुग्रीव को जन्म दिया। इंद्र कुमार वाली और सूर्यकुमार

सुग्रीव दोनों भाई थे। समस्त वानर्यूथपति उन दोनों भाईयों की सेवा में

रहते थे। वाली महान बल से संपन्न और विशेष पराकमी थे। उन्होंने

अपने बाहुबल से रीछों, लंगूरों और वानरों की रक्षा की थी।

रामकीर्ति के अनुसार

पिछले अध्याय ‘गौतम मुनि और अहल्या प्रसंग’ में वर्णित है कि

काल-अचना से पैदा हुए इंद्र और आदित्य के पुत्र काकशबिरि और सुग्रीव

वानर बनकर जंगल में चले गए।

इंद्र और आदित्य ने जब अपने बच्चों की दर्दशा देखी, उन्होंने

उनके लिए एक नगर का निर्माण किया और उसका नाम खिडकिन रखा।

तब उन्होंने मंत्रों की शक्ति से संसार के सभी वानरों को आने और सबसे

बड़े वानर काकश के राज्याधिकार में उस नगर में बसने के लिए कहा।

इसप्रकार काकश सभी वानरों का राजा बन गया।

काकशबिरे बाली कैसे बना, इस बारे में रा. में एक घटना का

वर्णन किया गया है। एक बार की बात है, स्वर्ग में वसंत ऋतु थी। सभी

देवता उस मनोहर ऋ्तु को बड़े ही हर्षाल्लास से मना रहे थे। समुद्र की

देवी, मणिमेखला भी उस समारोह में भाग

लेने के लिए जा रही थी। उस

समय उस देवी के पास एक रहस्यमय मणि थी जिसकी ख्याति दूर-दूर

तक फैली हुई थी। अतुलनीय शक्त वाला राक्षस रामासुर भी स्वर्ग को

जाने वाले रास्ते में ही था जब उसने मणिमेखला को उस मणि से खेलते

हुए देखा। उसको अपने अधिकार में करने की इच्छा से वह देवी का

पीछा करने लगा। चूंकि रामासूर अपनी अपराजेय वीरता के लिए विख्यात

था, इसलिए उसके द्वारा मणिमेखला का

देवी-देवताओं का हृदय भय से भर गया और वे बिना देरी किए अपने

घरों को भाग गए। लेकिन इतने विशालकाय राक्षस के द्वारा अपना पीछा

किए जाने से मणिमेखला को एक अनूठा आनंद मिल रहा था। इसलिए

वह मणि दिखाकर उसे तरसाने लगी। रामासुर चाहे जितनी भी तेजी से

दौड़ लेता, वह उसको नहीं पकड़ सकता था। लगातार तरसाने वाली, पर

अपने आप को कभी भी उसके अधिक पास न होने देने वाली मणिमेखला

अब तक उसकी पहुँच से बाहर थी। अंत में वह बहुत कुद्ध हो गया और

अपनी कुल्हाड़ी फेंककर उसे मारने का प्रयास किया। लेकिन कुल्हाड़ी से

देवी को कोई नुकसान नहीं पहुँचवा। इसने केवल उसके कोध को अधिक

बढ़ाने में सहायता की जो अब अपनी सीमा लॉघ चुका था।

30

पीछा किए जाने पर सभी

ठीक उसी समय अत्यधिक शक्ति वाला अर्जुन नाम का कोई

देवता रामासुर के रास्ते में आ गया। उसने अभागे देवता को पकड़ लिया

और उसे सुमेरु पर्वत पर दे मारा। इतने प्रचंड आवेग को सहने में

असमर्थ पर्वत एक ओर झुक गया। इससे खुश होकर कि उसका कोध

संतुष्ट हो चुका है, रामासुर अपने निवास को वापस लौट गया।

30

रामासुर स्पष्ट रूप से परशुराम हैं । लेकिन यहाँ उन्हें राक्षस कहा गया है, जो कि

भारतीय आअवधारणा से बिल्कुल अलग व्याख्या है क्योंकि इसमें उन्हें नारायण के एक

अवतार के रूप में माना गया है। यह रामासुर उस रामासुर से बिल्कुल ही अलग है।

जिसने राम का सामना किया था। इस पर ध्यान दिना आवश्यक होगा कि परशुराम की

विभिन्न गतिविधियों के आधार पर एक जैसा ‘रामासुर’ नाम रखकर अलग-अलग

व्यक्तित्व की संरचना की है।

31

अर्जुन निस्संदेह कर्तवीज्जार्जून है जो कोई

भगवान नहीं था बल्कि एक राजा था।

जब ईस्वर ने सुमेरु पर्वत को झुकी हुई स्थिति में देखा, उन्होंने

तीनों लोकों के सभी प्राणियों को उसे उठाने के लिए बुलाया। उन्होंने

पर्वत को सर्प से लपेटा और उसे ऊपर उठाने लगे। किंतु उन सभी के

प्रयास निष्फल रहे। सुमेरु पर्वत वैसे ही झुका रहा, जैसे पहले था। अंत में

सुग्रीव ने स्वेच्छा से अपनी सेवाएं अर्पित कीं। उसने सर्ष के मध्य भाग को

दबाया। स्पर्श के प्रति अति संवेदनशील होने के कारण उसने अपने शरीर

से पर्वत को चारों ओर से जकड़ लिया। उसी समय काकश ने अपना

कंधा सुमेरु पर्वत के साथ लगाया और उसे सीधा खड़ा कर दिया।

बुद्धि और शक्ति के अदभुत प्रदर्शन से प्रसन्न होकर ईस्वर ने

दोनों भाईयों को प्रस्कृत किया काकश को त्रिशूल मिला जिसकी

सहायता से वह किसी के विसुद्ध लड़ सकता था और उसे ‘बाली’,

बलवान की उपाधि मिली। जबकि उस समय अनुपस्थित सुग्रीव के लिए

उन्होंने तारा नाम की एक किशोरी को उसके भाई की देखरेख में भेज

दिया। उसे एक पात्र में रख दिया गया। नारायण ने ईस्वर के इस निर्णय

पर यह कहते हुए अप्रसन्नता जताई कि एक युवक के साथ एक किशोरी

को भेजना वैसा ही है जैसा मधुमक्खी के सामने फूल रखना। किंतु बाली

ने उन्हें आश्वस्त किया कि यदि वह अपने वादे से मुकरेगा तो राम के

वाणों से मृत्यु का आलिंगन करेगा। बाली घर पर आया और तारा के

सौंदर्य को निहारा। उसने उसे इतना अधिक वशीभूत कर लिया कि वह

अपने वादे को भूल गया और उसे अपनी पत्नी बना लिया।

उल्लेखनीय बिंदु

वा. में वाली और सुग्रीव का जन्म वानरों के रूप में ही हुआ है

जबकि रा. में ये दोनों पहले मानव रूप में थे। गोतम ऋषि के द्वारा तथ्य

की जॉँच के लिए किए गए निर्णय के आधार पर ये वानर रूप को प्राप्त

हुए। वा. में इनकी माता के बारे में कोई वर्णन नहीं है और न ही

मणिमेखला, रामासुर और अर्जुन वाला प्रसंग है। बाली और सुग्रीव द्वारा

सुमेरु पर्वत को उठाने की घटना भी वा. में नहीं है। वा. में वाली का नाम

वाली ही है जबकि रा. में उसका पहला नाम काकशबिरे बताया गया है

और सुमेरु पर्वत को सही स्थिति में लाने

के परिणामस्वरूप ‘ईस्वर ने

उसे ‘बाली’ अर्थात् बलवान की उपाधि से अलंकृत किया। रा. में बाली को

राम के द्वारा मारे जाने का संकेत भी स्पष्ट है। इसके साथ ही रामासुर

और अर्जुन के बारे में स्वामी जी का मानना है कि रामासुर स्पष्ट रूप से

परशुराम हैं। लेकिन यहाँ उन्हें राक्षस कहा गया है, यह भारतीय अवधारणा

से बिल्कूल अलग व्याख्या है।

हनुमान का जन्म

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

सुमेरु

नाम

का

एक

प्रसिद्ध

पर्वत

था

जो सूर्यदेव के

वरदानस्वरूप सुवर्णमय हो गया था। उस पर हनुमान के पिता केसरी

राज्य किया करते थे। उनकी अंजना नाम से विख्यात एक पत्नी थीं। जब

भगवान विष्णु ने राजा दशरथ के यहाँ पुत्रभाव से जन्म ले लिया, तब

ब्रह्माजी ने सभी देवताओं से कहा कि वे लोग उनके सहायक के रूप में

ऐसे पुत्रों की सृष्टि करें, जो बलवान, इच्छानुसार रूप धारण करने में

समर्थ,

माया जानने वाले, शूरवीर, वायु के समान वेगशाली, नीतिज्ञ,

बुद्धिमान, विष्णुतुल्य पराकमी, किसी से परास्त न होने वाले, तरह- तरह के

उपायों के जानकार, दिव्य शरीरधारी तथा अमृतभोजी देवताओं के समान

सब प्रकार की अस्त्रविद्या के गुणों से संपन्न हों। ब्रह्माजी की आज्ञानुसार

वायुदेवता ने अंजना के गर्भ से हनुमान नाम के ऐश्वर्यशाली वानर को

जन्म दिया। हनुमान वायुदेव के औरस पुत्र थे। उनका शरीर वज्ञ के

समान सुदृढ़ था। उनकी गति गरुड़ के समान थी। वे सभी वानरों में

सर्वाधिक बुद्धिमान और बलवान थे।

एक दिन माता अंजना फल लाने के लिए आश्रम से निकलीं

और गहन वन में चली गई माता से बिछुड़ जाने और भूख से पीड़ित

होने के कारण हनुमान जोर-जोर से रोने लगे। इतने में उन्होंने

जपाकुसुम के समान लाल रंग वाले सूर्यदेव को उदित होते देखा। उन्होंने

उसे कोई फल समझा और फल के लोभ से वे सूर्य की ओर जोर से

उछले। सूर्य को पकड़ने की इच्छा से वे आकाश में उड़ते ही चले गए।

अपने पुत्र को सूर्य की ओर जाते देख

उसे दाह से बचाने के लिए वायुदेव

भी बर्फ के समान शीतल होकर उसके पीछे-पीछे चलने लगे। उड़ते हुए

बालक हनुमान आकाश को लॉँघते हुए सूर्यदेव के पास पहुँच गए। उन्हें

बालक जान सूर्य ने भी उन्हें जलाया नहीं।

जिस दिन हनुमान सूर्यदेव को पकड़ने के लिए उछले, उसी दिन

राहु द्वारा सूर्यग्रहण किया जाना था। हनुमान ने सूर्य के रथ के ऊपरी

भाग से ज्यों ही राह का स्पर्श किया तो वह डरकर वहाँ से इंद्र के पास

भाग गया । हनुमान को दूसरा राहु समझकर उसने इंद्र से गुस्से में कहा

कि जब वह सूर्य को ग्रस्त करने की इच्छा से वहाँ गया, तभी दूसरे राहु

ने आकर सूर्य को पकड़ लिया। यह सुन इंद्र घबरा गए और गजराज

ऐरावत पर आरूढ़ होकर उस स्थान की ओर चल दिया जहाँ हनुमान के

साथ सूर्यदेव विराजमान थे। राहु इंद्र को छोड़कर बड़े वेग से आगे बढ़

गया। हनुमान सूर्य को छोड़कर, राहु को ही फल मानकर उसे पकड़ने के

लिए पुनः आकाश में उछले। सूर्य को छोड़ अपनी ओर धावा करने वाले

हनुमान को देख राहु अपनी रक्षा करने के लिए इंद्र को पुकारने लगा।

इंद्र ने हनुमान पर वज के द्वारा प्रहार किया जिससे वे एक पहाड़ पर जा

गिरे और उनकी बाई दड़डी टूट गई।

अपने पुत्र के गिरते ही वायुदेव इंद्र पर कुपित हो उठे। उनका

कोघ प्रजाजनों के लिए बड़ा ही अहितकारक हुआ। प्रजाजनों से समस्त

वायु खींचकर वे अपने शिशु पुत्र को लेकर एक गुफा में घुस गए। इधर

वायु के प्रकोप से त्रस्त समस्त प्रजा दौड़ती हुई ब्रह्माजी के पास गई और

वायुरोधजनित

को

करने की प्रार्थना करने लगी।

दुःख

दूर

इस पर ब्रह्माजी ने बताया कि इंद्र द्वारा उनके पूत्र हनुमान पर

वार किए जाने के कारण वायुदेव कुपित हैं। सबको मिलकर उन्हं प्रसन्न

करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए। तब सभी उस स्थान पर गए जहाँ

वायुदेव छिपे बैठे थे। ्रह्माजी को देख वे अपने पुत्र को लिए हुए ही

उनके सामने उठ खड़े हुए और उन्होंने ब्रह्माजी को नमन किया। जैसे ही

उन्होंने उस शिशु पर हाथ फेरा, वैसे ही वह शिशु उठ खड़ा हुआ। अपने

पुत्र को उठ खड़ा देख प्रसन्न हुए वायुदेव पूर्ववत् वायु का संचार करने

लगे।

ब्रह्माजी ने तब सभी देवताओं से संसार का कल्याण करने और

वायुदेवता की प्रसन्नता के लिए उस शि

शु को वर देने के लिए कहा। इंद्र

ने कमलों की माला पहनाते हुए कपिश्रेष्ठ को ‘हनुमान’ नाम से अलंकृत

किया। इसी तरह सूर्य, वरुण, यम, शंकर, विश्वकर्मा आदि अन्य देवताओं

ने भी उसे अनेकानेक वरदान दिए। अंत में ब्रह्माजी ने वायुदेव से कहा,

“यह

देवताओं के जाने के बाद वायुदेव उसे लेकर अंजना के पास आए और

देवताओं के द्वारा दिए गए वरदान की बात बताकर चले गए।

दीर्घायु, महात्मा तथा सब प्रकार के ब्रह्मदंडों से अवध्य होगा।

वरदानों के वेग

से भरे हुए हनुमान शांतचित्त महात्माओं के

आश्रमों में जाकर भाँति भाति के उपद्रव मचाने लगे। केसरी और वायुदेव

दोनों ने भी उसे ऐसा न करने के लिए कहा फिर भी वह वानरवीर उनकी

आज्ञा का उल्लंघन कर ही देते। इससे भूगु ऋषि और अंगिरा के वंश में

उत्पन्न हुए महर्षि ने कुपित होकर उन्हें शाप देते हुए कहा, ‘वानरवीर ! तुम

जिस बल का आश्रय लेकर हमें सता रहे हो, उसे हमारे शाप से मोहित

होकर तुम दीर्घकाल तक भूले रहोगे-तुम्हें आअपने बल का पता ही नहीं

वलेगा। जब कोई तुम्हें तुम्हारी कीर्ति का स्मरण दिलाएगा, तभी तुम्हारा

बल बढ़ेगा।’ महर्षियों के इन वचनों के प्रभाव से उनका तेज और ओज

घट गया और फिर उन्हीं आश्रमों में वे मृदुल होकर विचरने लगे।

रामकीर्ति के अनुसार

गोतम मुने और अहल्या प्रसंग में बताया जा चुका है कि जब

स्वाहा ने अपनी माता काल-अचना के निष्ठाहीन व्यवहार और काकशबिरि

तथा सुग्रीव के जन्म की बात अपने पिता गोतम को बता दी थी। इस पर

उन्होंने अपनी पत्नी को एक पत्थर के रूप में बदलने का शाप दे दिया

था। तब काल-अचना को अपनी पुत्री पर बहुत कोध आया और उसने

उसे शाप दिया कि वह एक हाथ से टहनी को पकड़कर खडी रहेगी और

केवल हवा से अपना भरण-पोषण करेगी। उसे उस शाप से तभी मुक्ति

मिलेगी जब वह एक शक्तिशाली वानर बच्चे को जन्म देगी।

संयोग से ईस्वर की दृष्टि स्वाहा की दुर्दशा पर पड़ी और उन्हें

उस पर दया आ गई। इसके अतिरिक्त, उसमें उन्हें राक्षसों के विरुद्ध

लड़ाई में राम की सहायता करने की संभावना दिखाई दी। इसलिए

उन्होंने अपनी शक्ति और साथ ही अपने सभी

दिव्यास्त्रों की शक्तियों को

विभाजित कर दिया और वायु से उन शक्तियों को लेकर स्वाहा के मुख में

रख देने के लिए कहा ताकि उसके एक ऐसा पुत्र हो जिसका शरीर सभी

अस्त्रों के समुच्चयन से बना हो। गदा उसकी मेरुदंड होगी ताकि वह

आसमान में विचरण कर सके। त्रेशुल उसका शरीर, हाथ और पैर होने

के साथ-साथ उसका विशेष अस्त्र होगा जो उसके वक्षस्थल से सदा

चिपका रहेगा ताकि वह जब चाहे उसे बाहर निकाल सके

सिर होगा, जबकि वायु को उसका पिता होने का आदेश दिया गया।

चक उसका

तदनुसार वायु ने ईस्वर की आज्ञा का पालन किया और तत्क्षण

स्वाहा ने गर्भधारण कर लिया। तीस महीने के लंबे अंतराल के बाद

उसने सोलह साल के लड़के के समान बड़े, एक सुंदर सफेद वानर बच्चे

को जन्म दिया। सामान्य मार्ग के स्थान पर वह अपनी माँ के मुख से

बाहर आया। उसके पिता वायु ने उसका नाम हनुमान रखा। उसकी माता

उसे बताया कि उसके शरीर पर कछ विशेष चिन्ह हैं जैसे दोनों कानों

में कुंडल, दो चमकीले तीक्ष्ण दाँत (श्वदंत) और एक सफेद घुंघराला

बाल। लेकिन वे नारायण के अतिरिक्त अन्य सभी के लिए अदृश्य रहेंगे।

इसलिए जो कोई भी उनको देख पाने में सक्षम होगा, वह अवश्य ही

उनका अवतार होगा जिनकी सेवा हनुमान को ईमानदारी और निष्ठावान

सिपाही की तरह करनी होगी। इस बच्चे को जन्म देने के बाद स्वाहा को

शापित जीवन से छुटकारा मिल गया।

अब, एक दिन बालक हनुमान अपनी वानरीय शरारतें करते हुए

बगीचे में खेल रहा था। संयोग से बगीचा देवी उमा का था। उन्हें जब

यह पता चला कि उनका प्रिय बगीचा हनुमान की अपराजेय शक्त से

नष्ट किया जा चुका है, उन्होंने उसे तुरंत शाप दे दिया कि उसकी शक्ति

कम होकर आधी रह जाएगी। लेकिन परेशान हनुमान द्वारा अनुनय – विनय

32

स्वाहा निस्संदेह वाल्मीकि की अंजना हैं, यद्यपि उसकी व्याख्या मूल से बिल्कुल

अलग है, जहाँ पर यह केसरी की पत्नी और कुंजर की पुत्री के रूप में जानी जाती है

और वह स्वयं पुंजिकस्थली नामक एक स्वर्गिक परी थी जिसे वानर के रूप में जन्म लेने

के लिए शाप दि

या गया था।

रामकीति, पृ 25

करने पर ऑंततोगत्वा उन्होंने उसे एक वरदान देने की कृपा की कि वह

अपनी मौलिक शक्त को पूनः प्राप्त कर लेगा जब नारायण राम के

अवतार के रूप में उसके शरीर का सिर से पांव तक स्पर्श करेंगे।

कुछ दिनों के बाद उसके पिता वायु उससे मिलने आए। वे

अपने पुत्र को ईस्वर के पास ले गए जिन्होंने उसे सिखाया कि कैसे रूप

बदला जाता है और कैसे अदृश्य हुआ जाता है। वानर को कृपा करके

अमरत्व का वरदान भी दे दिया गया। चूंकि हनुमान बाली और सुग्रीव के

भानजे थे, इसलिए ईस्वर ने उन्हें कैलास पर्वत पर आने के लिए

कहलवाया ताकि वे उनका परिचय उनके मामाओं से करवा सकें। इसके

अतिरिक्त, उनकी त्वचा की सूखी पपड़ी से ईस्वर ने बाली के लिए

जम्बुबान नामक वानर का सृजन किया जो औषध में निपुण हुआ। जब

बाली और सुग्रीव ईस्वर से मिलने आए, तब उन्होंने नवसृजित वानर को

पोष्य बालक के रूप में बाली को दे दिया। आअतः हनुमान और जम्बुबान

दोनों भाईयों के साथ उनके देश खिडकिन चले गए।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में हनुमान का जन्म वायुदेव से हुआ बताया गया है।

वा. में उनके पिता केसरी का वर्णन है जबकि रा. में उनका वर्णन नहीं है।

वा. में अनेक देवताओं और ब्रह्मा के वरदानों से हनुमान बलशाली तथा

अवध्य बने जबकि रा में ऐसा वर्णन नहीं है। रा. में हनुमान के शरीर की

संरचना ईस्वर की शक्ति तथा उनके विविध अस्त्रों के समुच्चयन से बनी

बताई गई है। उनके शरीर को विशिष्ट चिन्हों से चिन्हित बताया गया है ।

वा. में हनुमान को भूगु तथा अनंग ऋषि के वंशज द्वारा शापित किया

जाता है, जबकि रा. में उमा द्वारा। दोनों ग्रंथों में शाप उनकी शक्ति को

कम करने के लिए दिया जाता है लेकिन वा. के अनुसार उन्हें अपने बल

की याद तब आएगी जब किसी के द्वारा उसकी याद करवाई जाएगी,

जबकि रा. में राम द्वारा उनके शरीर का स्पर्श करने पर उन्हें अपने

मौ

लिक बल की याद आ जाएगी।

सीता का जन्म

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

एक बार रावण, जो दसग्रीव के नाम से भी जाना जाता था,

हिमालय के वन में घूम रहा था। तभी उसने ब्रह्मर्षि क्शध्वज की अत्यंत

सुंदर पुत्री वेदवती को ऋषिप्रोक्त विधि से तपस्या में संलग्न देखा। उसे

देख कर वह काममोहित हो गया। उसने वेदवती से उसकी तपस्या करने

का कारण पूछा। जब उसने बताया कि उसके पिता तीनों लोकों के स्वामी

भगवान विष्णु से

दैत्यराज शंभु द्वारा उनकी हत्या कर दी गई। अतः उसने अपने पिता के

मनोरथ को पूरा करने के लिए भगवान नारायण को पति के रूप में पाने

की प्रतिज्ञा की है, इसीलिए वह यह महान तप कर रही है। यह सब जान

लेने पर भी रावण ने उसे अपनी पत्नी बनाने का प्रलोभन कई बार दिया

किंतु वह व्यर्थ गया। जब वह नहीं मानी, तब रावण ने अपने हार्थों से

उसके केश पकड़ लिए। इस पर कोधाभिभूत हो वेदवती ने अपने हाथों से

अपने केशों को मस्तक से अलग कर दिया। फिर जल कर मरने के लिए

उतावली हो, अग्नि की स्थापना करके उस निशाचर को द्ध करती

हुई-सी बोली, ‘तुझ पापात्मा ने इस वन में मेरा आपमान किया है, इसलिए

मैं तेरे वध के लिए फिर उत्पन्न होऊँगी। यदि मैंने कुछ भी सत्कर्म, दान

और होम किए हों तो अगले जन्म मैं सती-साध्वी अयोनिजा कन्या के रूप

में प्रकट होऊँ तथा किसी धर्मात्मा पिता की पुत्री बनूँ । और अग्नि में

उसका विवाह करना चाहते थे किंतु बलाभिमानी

प्रवेश कर अपने जीवन का अंत कर लिया।

तदन्तर दूसरे जन्म में वह कन्या पुनः एक कमल से प्रकट हुई।

लेकिन उस राक्षस ने वहाँ से उस कन्या को प्राप्त कर लिया तथा अपने

घर ले गया। उसने मंत्री को वह कन्या दिखाई। बालक-बालिका के

लक्षणों को जानने वाले उस मंत्री ने कन्या को अच्छी तरह देखकर रावण

को बताया, ‘यह सूंदर कन्या यदि घर में रही तो अपकी मृत्यु का कारण

होगी। इस पर रावण ने उसे समूद्र में फेंक दिया । तत्पश्चात् वह कन्या

समुद्र में बहती हुई राजा जनक के यज्ञमंडप के मध्यवती भूभाग में जा

पहुँची। एक दिन जब राजा जनक स्वयं हाथ

में हल लेकर यज्ञ के योग्य

क्षेत्र को जोत रहे थे, तभी वह कन्या भूमि से प्रकट हुई। राजा जनक की

दृष्टि उस पर पड़ी। उसके सारे अंगों में धूल लिपटी हुई थी। उस

अवस्था में उसे देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन दिनों उनके

कोई संतान नहीं थी, इसलिए स्नेहवश राजा जनक ने उसे अपनी पुत्री के

रूप में स्वीकार कर लिया और उसे पुण्यकर्मपरायणा बड़ी रानी को सौंप

दिया जिन्होंने मात् समुचित सौहार्द से उसका लालन-पालन किया।

क्योंकि वह कन्या हल के अग्र भाग से खींची गई रेखा (सीता) से प्रकट

हुई थी, इसलिए उसका नाम सीता रखा गया।

रामकीर्ति के अनुसार

दसकंठ आअपनी सारी पत्नियों में रानी मंडो को बहुत प्रेम करता

था। अपनी रानी की इच्छा को पूरा करने के लिए दसकंठ खुशी से अपनी

जान भी दे सकता था।

जब दशरथ द्वारा संतान प्राप्ति के लिए यज्ञ किया गया, तब

अग्नि में से निकले दिव्य भोजन की सुर्गंध दूर-दूर लंका तक फैल गई।

उस सुगंध के प्रति रानी मंडो इस सीमा तक आकृष्ट हो गई कि उसने

दसकंठ से इस भोज्य को लाने के लिए प्रार्थना की। दसकंठ अपनी प्रिय

रानी की प्रार्थना को आस्वीकार न कर सका

को कौए का रूप धारण करने और भोजन चूराने की आज्ञा दी। काकना

केक के मात्र आधे टुरकड़े को ही चुराने में सफल हो पाई और उसने उस

टुकड़े को मंडो को लाकर दे दिया। इसके कारण रानी ने गर्भ धारण कर

लिया। कुछ समय के बाद एक कन्या का जन्म हुआ जो वास्तव में लक्ष्मी

का अवतार थी। जैसे ही कन्या ने ऑँखें खोलीं, वह चिल्ला पड़ी, ‘रावण

को मार डालो, रावण को मार डालो। लेकिन उसकी आवाज उसके

माता-पिता को सुनाई नहीं दी।

उसने काकना नामक राक्षसी

उसके जन्म के बाद दसकंठ द्वारा बिभेक सहित ज्योतिषियों को

उन्होंने भविष्यवाणी की

कि कन्या की नियति में दसकंठ के संपूर्ण वंश का विनाश निर्धारित है।

इतनी डरावनी भविष्यवाणी से घबराकर दसकंठ ने अपने भाई बिभेक को

आमंत्रित कि

या गया और उनसे सलाह ली गई

आदेश दिया कि इस कन्या के साथ जैसा वह उचित समझे, व्यवहार करे।

बिभेक ने उसको एक पात्र में रख दिया और एक राक्षस को उसे नदी में

फैंकने का आदेश दिया।

लक्ष्मी के दिव्य प्रभाव के कारण नदी की सतह पर एक कमल

उग आया जिसने पात्र को ग्रहण कर लिया। समुद्र की अधिष्ठात्री देवी

मणि मेखला ने दूसरे सभी देवी – देवताओं के साथ मिलकर उस कन्या की

रक्षा की, जबकि लक्ष्मी के दिव्य प्रभाव से वह पात्र संयोगवश राजा जनक

नामक ऋषि के स्नान स्थल पर पहुँँच गया।

यद्यपि जनक मिथिला के राजा थे। किंतु राजसी वैभव से ऊब

कर वे संसार को त्याग कर नदी के किनारे एक तपस्वी जीवन जीने लगे

थे। एक दिन जब वे प्रतिदिन की तरह स्नान करने आए, उन्होंने स्नान

स्थल के सामने एक तैरते हुए पात्र को देखा। जिज्ञासु राजा ने जब

उसका ढक्कन खोला तो उसमें उन्होंने एक नवजात शेशु को पाया। उसे

तत्काल पिलाने के लिए दूध न पाकर उन्होंने प्रार्थना की कि उनकी

अंगुली के अग्रभाग से दूध निकल आए और कन्या को भूखे मरने से बचा

ले।

वे न तो अपने राज्य वापस लौटना चाहते थे और न ही बच्चे के

कारण अपना तापसी जीवन खतरे में डालना चाहते थे। इसलिए वे बच्वे

सहित पात्र को जंगल में ले गए। वहाँ उन्होंने पेड़ के नीचे एक गड़्ढा

खोदा और प्रार्थना की कि यदि इस कन्या की नियति में राजा के अवतार

के रूप में नारायण की पत्नी होना तय है तो पात्र को ग्रहण करने के

लिए इस गड्ढे में एक कमल खिल जाए। वास्तव में उनकी प्रार्थना से

गड़ढे में एक कमल खिल गया। जनक ने सहायता के लिए देवताओं का

आहवान किया, पात्र को उसकी पंखुडियों में रख गड़ढे को मिट्टी से ढक

दिया और देवताओं के संरक्षण और सुरक्षा में उस बच्चे को छोड़ दिया।

सोलह साल बीत जाने पर जब जनक की कोई आध्यात्मिक

उन्नति नहीं हुई, तब तापसी जीवन को आगे चला सकने में असमर्थ

उन्होंने अपने राज्य वापस लौटने का निर्णय

किया। लेकिन उन्हें अब भी

पात्र में रखे बच्चे के प्रति प्रेम था, इसलिए उन्होंने अपने सेवक सोमा को

पात्र को खोद निकालने का आदेश दिया। लेकिन सोमा के सारे प्रयास

निष्फल सिद्ध हुए। परेशान और अचम्भित राजा जनक ने अपने एक सेवक

को, खोदने और जोतने के औजारों सहित सैनिकों की एक ट्रकड़ी को

लाने के लिए मिथिला भेजा।

उनके सारे प्रयत्नों के बावजूद पात्र अब भी उनकी पहुँच के

बाहर था। अंत में ज्योंही ही राजा जनक ने स्वयं अपने हाथ में हल उठा

कर उसे खोजना शुरू किया, त्योंही पात्र दृष्टिगोचर हो गया और उस

पात्र के मध्य में कमल की पंखुड़ियों पर, अपने सौंदर्य की कांति से सभी

की आँखों को चौंधियाती हुई, अत्यंत सुंदर युवती विराजमान थी। चूंकि

कन्या हल की क्यारी से निकली थी, अतः उसे सीता नाम दिया गया।

जनक अपनी पोष्य पुत्री सीता और सेवकों के साथ राजधानी

लौट आए। कुछ ही समय में सीता निस्संतान रानी रत्नामणि की ऑँखों

का तारा हो गई और राज्य में दूर -दूर तक सभी की प्रिय हो गई ।

उल्लेखनीय बिंदु

वा. और रा. में वर्णित सीता के जन्म की कहानी में सबसे बड़ी

समानता यह है कि दोनों में ही सीता के पिता का नाम राजा जनक है।

और वे निस्संतान हैं। दोनों में ही सीता नाम रखने का कारण एक ही है।

दोनों ही ग्रंथों में सीता को पैदा होने के बाद त्यागने का कारण भी एक

सा ही है। किंतु इन दोनों ग्रंथों में सीता के जन्म के कारण में कई

भिन्नताएं दिखाई देती हैं जो इसप्रकार हैं -वा. में सीता पूर्व जन्म में

वेदवती थी, जो एक कमल से प्रकट हुई थी। रा. में सीता का जन्म मंडो

के गर्भ से हुआ था। वह जन्म लेते ही चिल्ला पड़ी कि रावण को मार

डालो। इसमें सीता को लक्ष्मी का अवतार माना गया है। किंतु इसप्रकार

का कोई उल्लेख वा. में नहीं है। वा. में रावण ने स्वयं कन्या को समुद्र में

फेंका था जबकि रा. में विभेक ने उसे एक पात्र में रख एक राक्षस द्वारा

नदी में फिकवाया था। वा. में जनक राजा ही हैं जबकि रा. में वे उस

वा.

समय राजसी वैभव का त्याग कर ता

पसी जीवन व्यतीत कर रहे थे

में जनक की पत्नी के नाम का उल्लेख नहीं है, रा. में उनका नाम

रत्नामणि बताया गया है।

ताटका वध

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

राजा दशरथ के चारों पुत्र जब वेदों के विद्वान, शूरवीर और सभी

गुर्णों से संपन्न हो गए, तब एक दिन ऋषि विश्वामित्र उनके राजदरबार में

उपस्थित हुए। राजा ने उन्हें अघ्र्य निवेदन कर उनके शुभ आगमन का

उद्देश्य पूछा, साथ ही उसे पूर्ण करने का आश्वासन भी दिया।

मैं सिद्धि के लिए एक नियम का

अनुष्ठान कर रहा हूँ। उसमें इच्छानुसार रूप धारण करने वाले सुबाहु और

मारीच नामक दो बलवान राक्षस मांस और रक्त की वर्षा करके विघ्न डाल

रहे हैं। यद्यपि मैं स्वयं शाप देकर उन्हें नष्ट कर सकने में समर्थ हूँ

तथापि मैं उन्हें शाप भी नहीं दे सकता क्योंकि वह नियम ही ऐसा है जिसे

आरंभ करने पर किसी को शाप नहीं दिया जाता। अतः उन्हें मारने के

लिए मुझे श्री राम को दे दीजिए। इनके अलावा अन्य कोई उन्हें नहीं मार

सकता।’ महर्षि की बात सुनकर राजा दो घड़ी के लिए संज्ञाशून्य हो गए।

फिर सचेत होकर उन्होंने अनेक प्रकार के बहाने बनाकर उन्हें मना करने

का प्रयास किया। राजा दशरथ के ऐसे वचन सुन ऋषि को कोधावेश हो

‘पहले वस्तु को देने की प्रतिज्ञा करके अब तुम उसे

तोड़ना चाहते हो। प्रतिज्ञा का यह त्याग रघु्ंशियों के विनाश का सूचक

है। विश्वामित्र को कोधाविष्ट देख महर्षि वशिष्ठ ने राजा को अनेक तरह

से समझाया। इससे दशरथ का मन प्रसन्न हो गया और उन्होंने खुशी से

इस पर ऋषि ने बताया,

आया। वे बोले.

राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ विदा कर दिया।

जब राम और लक्ष्मण महर्षिं विश्वामित्र के साथ जा रहे थे,

उन्होंने एक भयंकर वन देखा। उसके बारे में पूछने पर ऋषि ने बताया

कि इस वन में ही इच्छानुसार रूप धारण

करने वाली सुकेतु नाम से

प्रसिद्ध यक्ष की पुत्री यक्षिणी ताटका रहती है जो बुद्विमान सुन्द की पत्नी

है और इंद्र के समान पराकरमी मारीच नामक राक्षस की माता है। मारीच

ऋषि अगस्त्य के शाप से राक्षस हो गया था। ऋषि अगस्त्य के शाप से

ही यक्षिणी ताटका नरभक्षिणी राक्षसी हुई थी। यह सब बताने के बाद

ऋषि ने राम से उसे मारकर इस देश को निष्कंटक बना देने के लिए

कहा। तब राम ने उसे मारने की प्रतिज्ञा की और फिर धनुष के मध्य भाग

में मुट्ठी बाँधकर प्रत्यंचा पर तीव्र टंकार दी जिसकी आवाज से चारों

दिशाएें थर उठीं।

ताटका भी उस आवाज को सुन पहले तो किंकर्तव्यविमूढ़ हो

गई, किंतु थोड़ी देर बाद कुछ सोचकर वह रोष में भरकर उस दिशा की

ओर तेजी से दौड़ी जिधर से आवाज आई थी। उसने उन दोनों रघुवंशी

वीरों पर धूल उड़ाना शुरू कर दिया, फिर माया का आश्रय लेकर उन पर

पत्थरों की वर्षा करने लगी। यह देख राम कुपित हो उठे और उन्होंने

अपने तीखे वाणों से उस निशाचरी के दोनों हाथ तथा लक्ष्मण ने उसके

नाक- कान काट डाले। अदृश्य हुई ताटका पर जब राम ने शब्दवेर्ी वाण

का संधान किया, तब वह जोर-जोर से गर्जना करती हुई दोनों भाईयों

पर टूट पड़ी। पुनः राम ने एक वाण चलाकर उसकी छाती में मारा और

उस का अंत कर दिया।

ताटका को मारी गई देख इंद्र आदि देवताओं ने राम की बहुत

प्रशंसा की और विश्वामित्र जी से प्रजापति कुशाश्व के सत्यधारी और

बल संपन्न अस्त्रों को राम को समर्पित करने की प्रार्थना की। उस

ताटका वन में ही मुनि ने अनेकानेक अस्त्र- शस्त्र तथा शक्तियाँ राम को

प्रदान कीं तथा उन अस्त्रों की संहार विधि भी उन्हें समझाई।

तत्पश श्चात् सिद्धाशअ्रम पहुँचकर मुनि विश्वामित्र ने विधि विधान से

यज्ञ का आरंभ किया जिसकी रक्षा राम और लक्ष्मण करने लगे। तभी

मारीच और सुबाह नामक राक्षस अपने अनुचरों के साथ सब ओर अपनी

माया फैलाते हुए यज्ञमंडप की ओर दौड़े आए और रक्त की वर्षा करने

लगे। यह देख कमलनयन राम ने अपने धनुष पर मानवास्त्र का सधान

कर मारीच की छाती पर मारा जिसके आ

घात से वह पूरे सौ योजन की

दूरी पर समुद्र के जल में जा गिरा और उसके बाद शीघ्र ही आरग्नेयास्त्र

का संधान कर सुबाहु की छाती पर चलाया जिसके लगते ही सुबाहु धरती

पर गिर पड़ा।

रामकीर्ति के अनुसार

जब राम और उनके भाई यथ्थेष्ट आयु के हुए, उन्हें शिष्य के

कुछ ही

रूप में ऋषि वसिट्ठ और ऋषि स्वामित्र को सौंप दिया गया

समय में वे ज्ञान के सभी क्षेत्रों में दक्ष हो गए । अपने शिष्यों की प्रगति से

संतुष्ट हो, गौरवान्वित आचार्यों ने राम आदि के लिए शक्तिशाली बाणों

प्राप्त करने हेतु एक यज्ञ का आयोजन किया। जब पवित्र अग्नि प्रज्ज्वलित

की गई, ईस्वर ने नीचे अग्नि के मध्य में बारह बाण गिराए, प्रत्येक के

लिए तीन बाण जिन पर उनके नाम अंकित थे। उनमें से राम को ब्रह्मास्त्र,

अग्निवत और ब्लैवत प्राप्त हुए जो सभी बाणों में स्वोत्तम थे।

इसप्रकार विध्वंसक अस्त्रों को चलाने में निपुण और उन्हें धारण

करने में शक्तिसंपन्न होकर वे चारों भाई घर वापस आ गए जिससे

माता-पिता और प्रजा में हर्ष छा गया।

इसी बीच, जब दसकंठ को इस

भय हुआ कि

रत ऋषि आलौकिक शक्तियों में कहीं उससे आगे न निकल जार

उनकी तपस्या में विघ् डालने के लिए उसने काकनासुरको भेजा।

उसने और उसके दल ने अपने आप को कौओं के रूप में बदल लिया

और ऋषियों के लिए भीषण बाधाएं उत्पन्न करने लगे। ऐसे राक्षसी खतरों

का सामना करने में असमर्थ, वे सब मिलकर सहायता प्राप्ति हेतु वसिट्ठ

और स्वामित्र के पास पहूँचे। दोनों ऋषि दसरथ के दरबार में गए और

राम और लक्षण की सहायता पाने के लिए प्रार्थना की। सत्पुरुषों के

निमित्त सदा समर्पित रहने वाले दोनों राजकुमार ऋषियों को दानवी

विपत्ति से मुक्त कराने के लिए तुरंत चल पड़े । काकनासुर राम के तीक्ष्ण

बात

का

33

33

ताड़का

रामकीति पू 34

बाणों का शिकार हो गई। उसके दो पुत्र स्वाहू और मारीश” अपनी माँ

की मृत्यु का पता चलने पर उसकी मौत का बदला लेने के लिए आए।

स्वाहू का अंत तो उसकी माँ की तरह ही हुआ जबकि मारीश लंका भाग

गया।

उल्लेखनीय बिंदु

वा. में राम आदि चारों भाईयों की शिक्षा – दीक्षा वशिष्ठ की

देखरेख में हुई थी जबकि रा. में वसिट्ठ और स्वामित्र की देखरेख में

हुई। वा. की ताटका, सुबाहु और मारीच ही रा. के काकनासुर, स्वाहु और

मारीश हैं। वा. में जब राक्षस ऋषि विश्वामित्र की तपस्या में विध्न डालने

लगे, वे स्वयं राजदरबार में उपस्थित हुए। जबकि रा. में अन्य ऋषियों

द्वारा निवेदन करने पर वसिट्ठ और स्वामित्र राजा दसरथ के दरबार में

गए। वा. में राम और लक्ष्मण को अलौकिक वाणों की प्राप्ति ताटका-वध

के बाद हुई, जबकि रा. में चारों भाईयों को अलौकिक वाण काकनासुर के

वध से पहले ही प्राप्त हो चुके थे। ताटका-वध का तरीका भी दोनों में

अलग-अलग है। वा. में ताटका बुद्धिमान सुन्द की पत्नी और मारीच की

माता के रूप में वर्णित है,

सुबाहु का उसके पुत्र के रूप में उल्लेख नहीं

है जबकि रा. में उसके पति का उल्लेख नहीं है और सुबाहु और मारीश

दोनों उसके पुत्र माने गए हैं।

राम और सीता का विवाह

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

जब सीता धीरे-धीरे युवा होने लगीं, राजा जनक को उनके

विवाह की चिंता सताने लगी। उस समय जनक ने यह निश्चय किया, “मैं

धर्मतः अपनी पुत्री का स्वयंवर कस्ूँगा। स्वयंवर के लिए उन्होंने घोषणा

34

सुबाहु,

मारीच रामकीर्ति पृ 34

की कि जो भी अपने पराक्रम से भगवान शिव के द्वारा दिए गए धनुष पर

प्रत्यंचा चढ़ा देगा, उसी के साथ सीता का विवाह कर दिया जाएगा।

ऋषि विश्वामित्र को भी उस घोषणा की जानकारी थी। अतः विश्वामित्र भी

राम और लक्ष्मण को वहाँ लेकर आए। उन्होंने राजा जनक से उन दोनों

को धनुष दिखाने के लिए कहा।

धनुष दिखाने से पहले राजा ने उस धनुष का पूरा वृतांत बताते

पहले दक्ष के यज्ञ विध्वंस के समय परम

हुए कहा कि बहुत समय

कृमी भगवान शंकर ने रोषपूर्वक इस धनुष को उठाकर देवताओं से

कहा, मैं यज्ञ में अपना भाग प्राप्त करना चाहता था कितु तुम लोगों ने

मुझे नहीं दिया। इसलिए मैं इस धनुष से तुम लोगों के श्रेष्ठ अंग

डालूंगा। इसे सुनकर शिव के कोध से भयभीत देवतागण भगवान शिव

की स्तृति करने लगे जिससे वे प्रसन्न हो गए। प्रसन्न होकर उन्होंने इस

धनुष को देवताओं को अरपित कर दिया। देवताओं ने इस धनुष को जनक

के पूर्वज महाराज देवरात के पास धरोहर के रूप में रख दिया।

भगवान शंकर का यह धनुष इतना भारी था कि किसी से भी

पूरा प्रयत्न करने पर भी यह हिल नहीं पाता था। भूमंडल के नरेश स्वप्न

में भी उसे उठा सकने में असमर्थ थे। इस धनुष को पाकर जनक ने

भूमंडल के राजाओं को आमंत्रित करके उपरोक्त घोषणा की। बहुत से

पराकृमी राजा आए और उन्होंने उसे उठाने का बहुत यत्न किया लेकिन

कोई भी उसे उठाने अथवा हिलाने में समर्थ न हो सका।

पूरा वृतांत बताने के बाद जनक ने विश्वामित्र को धनुष दिखाते

हुए कहा कि यही वह श्रेष्ठ धनुष है जिसका जनकवंशी नरेशों ने सदा

पूजन किया है। उन्होंने ऋषि से इसे उन दोनों राजकुमारों को दिखाने

का अनुरोध किया। तब विश्वामित्र ने राम से उसे देखने के लिए कहा।

राम ने उनकी आज्ञा का पालन करते हुए उसे देखा और स्वयं ही कहा,

“मैं इसे उठाने और इस पर प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयत्न करूगा। महर्षि की

आज्ञा से राम ने धन्ष को बीच से पकड़कर लीलापूर्विक उठा लिया और

खेल-सा करते हुए उस पर प्रत्यंचा चढ़ा दी। ज्योंही उसे कान तक

खींचा, त्योंही वह बीच से टूट गया। टूट

ते समय उससे वज्पात के समान

बड़ी भारी आवाज हु। तब राजा जनक ने कहा, ‘महादेव के धनुष पर

प्रत्यंचा चढ़ाना अत्यंत अदभुत, अचिन्त्य और अतर्कित घटना है। मेरी पुत्री

सीता दशरथकुमार राम को पति के रूप में प्राप्त करके जनकवंश की

कीर्ति का विस्तार करेगी।’ तद्परांत राजा जनक ने ऋषि विश्वामित्र से

आज्ञा लेकर राजा दशरथ को आमंत्रित करने के लिए अपने मंत्रियों को

भेजा। राजा दशरथ के आ जाने पर जनक द्वारा उनका स्वागत-सत्कार

किया गया और फिर बड़ी प्रसन्नता से अपनी दोनों पुत्रियों सीता को राम

के लिए और उर्मिला को लक्ष्मण के लिए समर्पित करने की बात कही।

उसके बाद वशिष्ठ सहित विश्वामित्र ने भरत और शत्रुध्न के लिए करमशः

मांडवी और श्रुतकीर्ति का वरण करने के लिए कहा। इसप्रकार राम का

विवाह सीता के साथ, लक्ष्मण का विवाह उ्मिला के साथ, भरत का मांडवी

के साथ और शत्रुघ्न का विवाह श्रुतकीर्ति के साथ संपन्न हुआ। चारों पुत्रों

का विवाह संपन्न हो जाने पर राजा दशरथ ने विदेहराज मिथिला नरेश से

अनुमति लेकर अपनी राजधानी अयोध्या के लिए प्रस्थान किया।

रामकीर्ति के अनुसार

अप्रतिम सौदर्यसंपन्न युवती सीता किसी और से नहीं, वरन

ऐसे वीर से विवाह करने योग्य मानी गई जो उसे विवाह भेंट के रूप में

अपनी यथेष्ट वीरता का परिचय दे सके। इस समय राजा जनक के पास

एक धनुष था जो ईस्वर ने उन्हें दिया था। ईस्वर ने

सोलाश राज्य पर शासन करने वाले त्रिपूरम नामक राक्षस को मारने के

लिए किया था। लड़ाई के बाद उन्होंने धनुष जनक के पास भिजवा दिया

था और कवच को ऋषि अगत के पास नारायण को उस समय देने के

लिए रखवा दिया जब वे दसकंठ को पराजित करने के लिए अवतार लेंगे।

जनक ने संसार के सभी राजाओं को सूचित किया कि जो कोई भी ईस्वर

के धनुष

इसका प्रयोग

35

को उठाने में सफल होगा, उसे सीता का हाथ देकर सम्मानित

35

वाल्मीकि के अनुसार, ईश्वर ने धनुष का प्रयोग दक्ष प्रजापति के यज्ञ का विध्वंस

करने के लि

ए किया था। रामकीर्ति पृ 35

किया जाएगा। बहुत से राजा आए और प्रयास किया, लेकिन किसी को

सफलता नहीं मिली।

उस समय राम के अदम्य पराकम से बहुत प्रसन्न दोनों ऋषियों,

वसिट्ठ और स्वामित्र ने सोचा कि वे ही सीता के लिए योग्य पति होंगे ।

इसलिए काकनासुर के वध के उपरांत वे दोनों भाईयों को लेकर जनक के

दरबार में गए। जब वे महल की खिड़की के नीचे से गुजर रहे थे, राम

की दृष्टि सीता की दृष्टि से मिली और पहली ही दृष्टि में उन्हें एक दूसरे

से प्रेम हो गया। फिर भी राम को अभी अपनी प्रेमिका का हाथ मांगने से

पहले वीरता की कसौरटी पर खरा उतरना था।

दोनों भाईयों को धनुष के पास लाया गया। लक्ष्मण ने पहले

प्रयास किया और उसने जान लिया कि उसे उठाना बिल्कुल भी मुश्किल

नहीं है। लेकिन सीता के प्रति अपने भाई के प्रेम से अवगत होने के

कारण उन्होंने स्वयं को धनूष उठाने से रोक लिया। तब राम की बारी

आई और उन्होंने उसे एक पंख की तरह उठा लिया और प्रत्यंचा चढ़ा दी

और इसप्रकार सुंदर सीता के पति बन गए।

अयुध्या से दसरथ को आमंत्रित किया गया और बड़ी धूमधाम से

विवाहोत्सव मनाया गया। समारोह संपन्न हो जाने पर प्रसन्न राजा ने

अपने पुत्र और पु्त्रवधु के साथ अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान किया।

उल्लेखनीय बिंदु

वाल्मीकि के अनुसार, शिव ने धनुष का प्रयोग दक्ष प्रजापति के

यज्ञ का विध्वंस करने के लिए किया था। जबकि रा.. में ईस्वर ने इसका

प्रयोग सोलाश राज्य पर शासन करने वाले त्रिपूरम नामक राक्षस को

मारने के लिए किया। वा. में धनुष जनक के पूर्वज महाराज देवरात के

पास रखवाया गया था जबकि रा. में ईस्वर ने स्वयं जनक को धनुष दिया

था। वा. में स्वयंवर की जानकारी होने पर विश्वामित्र स्वयं ही राम और

लक्ष्मण को धनुष दिखाने के लिए राजा जनक के पास लेकर गए थे,

जबकि रा. में वसिट्ठ और स्वामित्र राम को सी

ता के योग्य जानकर राजा

जनक के दरबार में लेकर गए थे। रा. में राम और सीता के प्रेम का भी

संकेत है जबकि वा. में इस प्रकार का कोई संकेत नहीं है। वा. में केवल

राम ने ही धनुष उठाया था जबकि रा. में लक्षण ने पहले धनुष उठाने का

प्रयास किया और बाद में राम ने धनुष उठाया। वा. में जनक और

कुशध्वज की पुत्रियों के साथ दशरथ के चारों पु्रों के विवाह का वर्णन

मिलता है जबकि रा. में केवल राम के विवाह का वर्णन है।

राम-परशुराम प्रसंग

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न का विवाह हो जाने पर राजा

दशरथ ने राजा जनक से अनुमति लेकर, समस्त महर्षियों को आगे करके

अपने पुत्रों, सैनिकों तथा सेवकों के साथ अपनी राजधानी की ओर प्रस्थान

किया। प्रस्थान के कुछ समय के बाद ही क्षत्रिय राजाओं का मानमर्देन

करने वाले, बड़ी-बड़ी जटाएं धारण करने वाले, कैलास के समान दुर्जयी,

अत्यंत तेजोमय, भृगुकुलनंदन, जमदग्निकुमार परशुराम सामने से आते

दिखाई दिए। राजा दशरथ के साथ विराजमान उन ऋषियों ने उनका

स्वागत-सत्कार किया। परशुराम ने राम से कहा कि उनके द्वारा तोड़े गए

शिव-धनुष का उन्हें पता चल गया है। उसके टूटने की बात जानकर वे

एक दूसरा उत्तम वैष्णव धनुष लेकर आये हैं, वे इसे खींचकर इसके ऊपर

बाण चढ़ाएं और अपना बल दिखाएं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी कहा,

इस धनुष को चढ़ाने में तुम्हारा बल कैसा है? यह देखकर मैं ऐसा ्वंद्ध

युद्ध करूगा जो तुम्हारे पराकृरम के लिए स्पूहणीय होगा। राजा दशरथ

उनके ऐसे वचनों को सुनकर उदास हुए और उन्होंने परशुराम को मनाने

का प्रयास किया। किंतु उनके वचनों की अवहेलना करते हुए परशुराम ने

पुनः राम को उत्तेजित-सा करते हुए उस वैष्णव धनुष पर बाण चढ़ाने के

लिए कहा। उनकी ऐसी बातों को सुनकर राम मौन न रह सके। कुपित

होकर राम ने उनके हाथ से वह उत्तम धनुष और बाण लेने के साथ- साथ

अपनी वैष्णवी शक्ति को भी वापस ले लिया।

उस धनुष की प्रत्यंचा पर

बाण रखकर यही कहा, ‘आप ब्राह्मण होने के कारण मेरे पूज्य हैं तथा

विश्वामित्र के साथ भी आपका संबंध है। इन सब कारणों से मैं इस प्राण

संहारक बाण को आप के शरीर पर नहीं छोड़ सकता ।’ उसी समय

परशुराम का वैष्णवी तेज राम में मिल गया और राम के द्वारा बाण के

छोड़े जाने पर, उस बाण ने परशुराम के द्वारा उपार्जित किए गए सभी

पुण्यलोकों को नष्ट कर दिया। तत्पश्चात् परशुराम महेंद्र पर्वत पर चले

गए। उनके चले जाने पर राम ने शांतचित्त होकर वह अपार शक्तिशाली

वैष्णव धनुष वरुण के हाथ में दे दिया। उसके बाद वशिष्ठ आदि ऋषियों

को प्रणाम कर राम ने अपने पिता राजा दशरथ तथा अपनी सेनाओं के

साथ अयोध्या की ओर प्रस्थान किया।

रामकीर्ति के अनुसार

जब बारात एक

जंगल

से गुजर रही थी,

अस्त्र के रूप में

कुल्हाड़ी को धारण किए रामासुर नामक अरद्देव ने अचानक उसके मार्ग

को अवरुद्ध कर दिया। उसने रास्ते में खड़े होकर बारात को आगे बढ़ने

से रोक दिया और इसके मुखिया के बारे में पूछा। जब उन्हें दसरथ के

विषय में और ईस्वर के धनुष की प्रत्यंचा चढ़ाकर सीता से विवाह करने

वाले राम के बारे में बताया गया, उसने राम की वीरता की परीक्षा लेनी

चाही। तत्पश्चात् उनके बीच युद्ध हुआ जिसके अंत में रामासुर को

अपनी हार स्वीकार करनी पड़ी। राम ने अपने आप को नारायण के रूप

में प्रकट किया। रामासुर ने उनका कृपा पात्र बनने के लिए उस धन्ष को

भेंट किया जो उनके पितामह त्रिमेघ को ईस्वर द्वारा दिया गया था। राम

ने उसे आकाश में उछाल दिया ताकि वह बिरुन की देखरेख में रहे और

जब कभी उन्हें उसकी आवश्यकता पड़े, उनके पास आ जाए। बारात ने

तब फिर आयुध्या के लिए प्रस्थान किया और बिना किसी अन्य बाधा के

सुरक्षित अयुध्या पहुँच गई।

36

मूल रामायण के अनुसार, राम को परशुराम के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने की चु

नौती

दी गई थी। रामकीति, पू 37

उल्लेखनीय बिंदु

इस प्रसंग में दोनों की कथा में मामूली सा अंतर है। ऐसा लगता

है कि वा. के परशुराम ही रा. का रामासुर है। दोनों में ही परशुराम और

रामासुर ने बारात को आगे बढने से रोक दिया और राम के बल की

परीक्षा ली। वा. में परशुराम ने राम को एक दूसरे शक्तिशाली वैष्णव धनुष

पर प्रत्यंचा चढ़ाने की चुनौती दी। जबकि रा. में रामासूर ने राम से यु्ध

किया और वह पराजित हुआ। वा. में राम के द्वारा वैष्णव धनुष धारण

करते ही परशुराम को पता चल गया कि ये ही त्रिलोकीनाथ श्री हरि हैं।

जबकि रा. में उन्होंने अपना नारायण रूप प्रकट किया। दोनों ग्रंथों में एक

समानता यही है कि वह धनुष अंत में वरुण अथवा बिरुन को दे दिया

गया।

राम वनवास

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

जब राजा दशरथ ने देखा कि राम बल-पराकरम में यम और

इंद्र के समान, बुद्धि में बृहस्पति के समान और धैर्य में पर्वत के समान हो

गए हैं और अपने गुणों से वह प्रजाजन में बहुत प्रिय हो चुके हैं, तब राम

को युवराज बनाने के तलिए उन्होंने अपने मंत्रिमंडल से परामर्श किया।

सभी की सहमति पाकर उन्होंने राम के राज्याभिषेक की तैयारी के लिए

आज्ञा दी। राजा ने भिन्न नगरों में निवास करने वाले प्रधान-प्रधान पुरुषों

तथा अन्य जनपदों के समस्त राजाओं को अ्योध्या आने का निमंत्रण

दिया, किंतु केकयनरेश और राजा जनक को नहीं बुलवाया। सभी राजाओं

की उपस्थिति में राजा दशरथ ने घोषणा की, ‘पुष्यनक्षत्र से युक्त चंद्रमा

की भाॉति समस्त कार्यों को साधने में कुशल तथा धर्मात्माओं में श्रेष्ठ

पुरुषशिरोमणि रामचंद्र को मैं कल प्रातःकाल पुष्यनक्षत्र में युवराज के पद

पर नियुक्त करूँगा। इसके साथ ही वहाँ उपर्थित अन्य राजाओं से

इससे भी उत्कृष्ट विचार की सलाह मांगी गई।

किंतु सभी ने राजा दशरथ

के विचार को ध्वनिमत से स्वीकार कर लिया। यह घोषणा सुनते ही सारी

अयोध्या में खुशियाँ छा गईं।

कैकेयी की एक दासी थी जिसका नाम मंथरा था। जब उसने

कैकेयी के महल की छत से अयोध्या में होने वाली तैयारियों को देखा,

उसने राम की धाय से इसका कारण पूछा। जब मंथरा ने कल होने वाले

राम के राज्याभिषेक का समाचार सुना तो वह मन ही मन ईष्य्यालु हो गई।

उसे इस बात में कैकेयी का अनिष्ट दिखाई दे रहा था। वह कैकेयी के

पास गई और अत्यंत कोधावेग में कैकेयी के ऊपर आने वाली विपत्ति के

बारे में सोचकर उसे उत्तेजित करते हुए कहा, ‘कल दशरथ राम को

युवराज के पद पर अभिषिक्त कर देंगे, यह समाचार पाकर मैं दुख और

शोक से व्याकुल हो अगाध भय के समुद्र में डूब गई हूँ, चिंता की आग में

जा रही हूँ और तुम्हारे हित की बात बताने के लिए यहाँ आई हूँ।

ऐसी ही उत्तेजित करने वाली अन्य बातें उसने कैकेयी से कहीं। किंतु राम

के राज्याभिषेक की बात सुनकर कैकेयी हर्ष से भर गई और उसने उसे

पुरस्कारस्वरूप एक दिव्य आभूषण प्रदान किया और कहा, ‘यह तूने मुझे

बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया। इसके लिए मैं तेरा और कौन-सा उपकार

करूँ। लेकिन उसने उस आभूषण को फेंक दिया और फिर कैकेयी को

समझाने लगी। तब भी कैकेयी ने यही कहा कि यदि राम को राज्य मिल

रहा है तो उसे भरत को मिला हुआ ही समझ। कैकेयी की यह बात मंथरा

को अच्छी न लगी और उसने एक बार फिर कैकेयी को उकसाया कि वह

कुछ इस प्रकार का उपाय सोचे जिससे उसके पुत्र को तो राज्य मिल

को

सनते-सुनते कैकेयी पर भी उसकी बातों का प्रभाव पड़ गया और उसे भी

लगने लगा कि मंथरा जो कुछ कह रही है, सच है। अब उसने मंथरा से

जाए और राम

को

वनवास हो

जाए। बार-बार एक

बात

ही उपाय बताने को कहा।

उस समय मंथरा कैकेयी से इसप्रकार बोली, ‘दक्षिण दिशा में

दंडकारण्य के भीतर वैजयंत नाम से विख्यात एक नगर है जहाँ शंबर नाम

से प्रसिद्ध एक महान असुर रहता था। वह अपनी ध्वजा में तिमि (हवेल

मछली) का चिन्ह धारण करता था और

सैंकड़ों मायाओं का जानकार था।

एक बार जब उसने इंद्र के साथ युद्ध छेड़ दिया और इंद्र उसे पराजित

करने में असमर्थ रहा, तब राजर्षयों के साथ राजा दशरथ तुम्हें साथ

लेकर देवराज की सहायता करने के लिए गए थे। राजा ने उसके साथ

भयंकर यु्ध किया था किंतु उसमें असुरों ने अपने अस्त्र-शस्त्रों द्वारा

उनके शरीर को जर्जर कर दिया था। जब राजा की चेतना लुप्त हो गई,

उस समय सारथि का काम करती हुई तुमने अपने पति को रणभूमि से दूर

हटाकर उनकी रक्षा की। जब वहाँ भी वे राक्षसों के शस्त्रों से घायल हो

गए तब तुमने अन्यत्र ले जाकर उनकी क्षा की। इससे संतुष्ट होकर

राजा ने तुम्हें दो वरदान देने के लिए कहा था। उस समय तो तुमने वे

वरदान नहीं लिए थे। मंथरा ने कहा कि अब उन दोनों वरदानों को माँगने

का समय आ गया है। तुम उन दोनों वरदानों को अपने स्वामी से माँगो।

आप राम को चौदह वर्षों के लिए बहुत दूर वन में भेज दीजिए और भरत

को भूमंडल का राजा बनाइए। ऐसी बातें कहकर मंथरा ने कैकेयी की

बुद्धि में अनर्थ को ही अर्थरूप में जँचा दिया। अब कैकेयी को उसकी बातें

अच्छी लग रही थीं। उसे लगने लगा था कि मंथरा ही उसकी असली

शुभचिंतक है।

राज्याभिषेक की तैयारी के लिए आज्ञा दे कर जब राजा दशरथ

रनिवास में आए, तब उन्हें पता चला कि कैकेयी कोपभवन में भूमि पर

पड़ी हैं। कामाभिभूत राजा ने कैकेयी को मनाते हुए कहा, ‘जो कुछ भी

चाहती हो, बताओ। मैं राम की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हारे मन की

कामना अवश्य पूर्ण होगी। राजा के ऐसा कहने पर कैकेयी ने राजा से

अपने दोनों वर माँग लिए-पहले वर से उसने भरत का राज्याभिषेक और

दूसरे वर से राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास । कैकेयी के ऐसे वचन

सुन राजा एक बार तो मूच्छित हो गए। उनकी चेतना लुप्त-सी हो गई।

चेतना लौटने पर उन्होंने कैकेयी को समझाने का काफी प्रयास किया

लेकिन वह अपनी बात पर अड़ी रही।

प्रातःकाल ऋषियों के कहने पर जब सुमंत्र ने रनिवास में प्रवेश

कर राजा की स्तुति कर उन्हें जगाने का प्रयास किया, तब दुख और

दीनता से भरे राजा कुछ न कह सके। इस प

र कैकेयी ने उन्हें राम को

बुला लाने के लिए कहा। किंतु सुमंत्र राजा की आज्ञा के बिना जाने को

तैयार नहीं थे, तब राजा ने उन्हें राम को बुलाने की आज्ञा दी। राजा का

संदेश पाते ही राम उत्सवकालिक कृत्य पूर्ण करके सुमंत्र के साथ राजा

के पास पहुँचे। निकट पहूुँच कर उन्होंने राजा को प्रणाम करने के बाद

माता के चरणों में शीश झुकाया और बुलाने का कारण पूछा। राजा तो

‘राम’ के अलावा कुछ न कह सके किंत् कैकेयी ने बड़ी ही निर्लज्ज्ता से

उन्हें अपने दो वरदानों को माँगने की बात बताई और साथ ही यह भी

कहा, ‘तुम राजा की इस आज्ञा का पालन कर, अपने पिता के महान सत्य

की रक्षा करके इन्हें महान संकट से उबार सकते हो। कैकेयी के ऐरसे

कठोर वचनों को सुनकर राम को तनिक भी शोक न हुआ और उन्होंने

कैकेयी को अपने वन में जाने के प्रति आश्वस्त किया। वे फिर अपनी माँ

कौशल्या के पास गए और उन्हें वन जाने की बात से अवगत करवाया

जिसे सुन वे फरसे से काटी गई शाल वृक्ष की शाखा के समान सहसा

पृथ्वी पर गिर पड़ीं। राम कौशल्या को समझा-बुझा कर, उनसे वनगमन

की आज्ञा लेकर तथा उनसे स्वस्तिवाचन करवा के, सीता के भवन में आए

और उन्हें भी कैकेयी के वचनों तथा पिता की आज्ञा के बारे में बताया।

सीता ने उनसे उन्हें भी अपने साथ ले चलने के लिए कहा, किंतु राम ने

उनसे घर पर रहने का अनुरोध किया। लेकिन सीता ने उनकी यह बात

नहीं मानी और वे उन्हें अपने साथ ले चलने का आग्रह करते हुए

करुणाजनक विलाप करने लगीं। इसे देख राम को उन्हें अपने साथ ले

जाने का निर्णय करना पड़ा। राम और सीता के बीच हो रही बातचीत को

जब लक्ष्मण ने सुना तो उन्होंने भी राम के पैर पकड़ लिए और कहा, ‘मैं

भी आपका

चलूँगा। राम के बहुत समझाने पर भी जब लक्ष्मण नहीं माने तो राम ने

अनुसरण करूँगा। धनुष हाथ में लेकर मैं आगे-आगे

उनसे माताओं से आज्ञा लेने और आयुधों को लेकर लौट आने के लिए

कहा।

सीता और लक्ष्मण सहित राम राजा दशरथ से विदा माँगने के

लिए आए। राजा दशरथ ने आते भाव से रोते हुए कहा, ‘तुम कल्याण के

लिए, वृद्धि के लिए तथा फिर लौट आने के लिए शांत भाव से जाओ ।

तुम्हारा मार्ग विघ्न-बाधाओं से रहित हो।

राम, लक्ष्मण और सीता आअपने

पिता से आज्ञा लेकर, वल्कल वस्त्रों को धारण कर वनगमन के लिए तैयार

हो गए। राम, लक्ष्मण के साथ ही जब दशरथ ने सीता को भी मुनि वेश में

देखा तब उन्होंने कोषाध्यक्ष को सीता के पहनने योग्य बहुमूल्य वस्त्र और

आभूषण लाने की आज्ञा दी और उन वस्त्रों और आभूषणों से सज्जित होने

के बाद ही सीता को वनगमन की आज्ञा दी। राम, लक्ष्मण और सीता ने

हाथ जोड़कर दीन भाव से राजा दशरथ के चरणों का स्पर्श कर उनकी

दक्षिणावर्त परिकृमा की और माताओं से विदा लेकर, पहले से ही राजा

दशरथ की आज्ञा से तैयार सुमंत्र के द्वारा चलाए जाने वाले रथ पर

आरूढ़ हो वन के लिए चल दिए।

राम के वन के लिए प्रस्थान करते ही सारी अयोध्या में भीषण

कोलाहल मच गया। हा राम! हा लक्ष्मण! हा सीते! की रट लगाए

पुरवासियों के नेत्रों से गिरे आँसुओं से भीगकर धरती की उड़ती हुई धूल

शांत हो गई। जब सुमंत्र राम, लक्ष्मण और सीता को छोड़कर आ गए और

उन्होंने उस का समाचार राजा दशरथ को सुनाया, राजा मूच्छित हो गए।

होश आने पर उनके बारे में सारा समाचार जानकर, पूर्व में किए गए एक

दुष्कम अथोत् श्रवणकुमार के वध का स्मरण करने के बाद, ‘हा महाबाहु

रघुनंदन! हा मेरे कष्टों को दूर करने वाले श्री राम ! हा पिता के प्रिय पुत्र !

हा मेरे नाथ! हा मेरे बेटे!’ कहते हुए राजा दशरथ ने प्राण त्याग दिए।

रामकीर्ति के अनुसार

बूढ़े हो चुके राजा दसरथ अब आगे अपने विशाल साम्राज्य का

दायित्व वहन करने में असमर्थ थे, वे राम को अयुध्या के राजा के रूप में

प्रतिष्ठित करना चाहते थे। इसलिए उन्होंने राजसभा के सभी सदस्यों को

अपनी इच्छा से अवगत कराया। यह सूचना कैयाकेशी की कुबड़ी दासी

कुच्ची के कानों में भी पहूुँची। इस समय इस दासी के मन में राम के

प्रति द्वेष भाव था क्योंकि युवावस्था में राम ने उसके कूबड़ पर इतनी

शक्ति से बाण मारा था कि वह आगे की तरफ हो गया था। फिर उन्होंने

37

वा. मंथरा। शब्द स्पष्ट रूप से कुब्जी का विकृत

रूप है।

रामकीर्ति, पृ 38

दूसरा बाण लिया और इसे चला दिया जिससे वह पुनः अपनी पहली जैसी

स्थिति में आ गया। उनके इस विचित्र कार्य से दर्शक तो खूब हँसे लेकिन

कुच्ची के मन में बदले की भावना ने जन्म ले लिया था। अब वह सदैव

ऐसे अवसर की तलाश में रहने लगी थी जब उसे राम के प्रति पाले गए

अपने पुराने वैमनस्य का बदला लेने का अवसर मिल सके।

अंततः दसरथ द्वारा कैयाकेशी को दिए गए वरदान ने उसके

सामने एक सुनहरा अवसर प्रस्तुत कर दिया। जब दसरथ राज-सिंहासन

पर आरूढ़ हुए थे, तब पदुतदंत नामक राक्षस ने स्वर्ग पर आकृमण

किया था। उस समय इंद्र ने राक्षस को पराजित करने के लिए दसरथ से

सहायता मांगी थी। अतः उन्होंने तुरंत स्वर्ग के लिए प्रस्थान किया।

उनकी तीनों रानियों में से कैयाकेशी लड़ाई के लिए उनके साथ हो लीं।

करते समय एक भाला रथ की धुरी से आ

टकराया और उसके टुकड़े-टुरकड़े कर दिए, जिससे दसरथ की विजय की

कोई संभावना न रही। अपने पति के इस दुर्भाग्य को देखकर कैयाकेशी ने

साथ कि उसके जीवन पर कोई खतरा न आए, अपने

हाथों को धुरी के स्थान पर लगा दिया। इसप्रकार सहायता करने पर

दसरथ युद्ध में विजयी हुए। कृतज्ञ राजा ने उनको वरदान दिया कि जो

कुछ भी वे चाहें, उन्हें दिया जाएगा। यह जानने पर कि राजा कैयाकेशी

को कोई भी वरदान देने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध हैं, उसने रानी को वरदान के

रूप में राम का निर्वासन और अपने पुत्र बरत के लिए सिंहासन माँगने के

लिए उकसाया। कैयाकेशी सरलता से सहमत हो गई । अपनी सूंदर आँखों

में आँसू भरकर उन्होंने दसरथ से राम के लिए चौदह वर्ष का निवासन

और उसकी जगह बरत को सिंहासन देने के लिए आग्रह किया। राजा ने

इस लज्जाजनक कृत्य के लिए रानी को रोकने का भरसक प्रयत्न किया

लेकिन रानी अपने आग्रह पर अडिग रही। सत्य के सच्चे अनुयायी होने के

कारण राजा का मन अपनी प्रतिज्ञा से हटने के लिए नहीं माना। अत्यंत

व्यथित मन से उन्होंने राम को चौदह साल के लिए निर्वासित कर दिया।

राम अपने पिता को सत्य के पथ से विचलित नहीं करने देना चाहते थे,

अब राक्षस के साथ युद्ध

इस प्रा

र्थना के

38

वा. शबरा

इसलिए उनहोंने अपनी समर्पित पत्नी और निष्ठावान भाई लक्षण के साथ

वन के लिए प्रस्थान किया। सदा से ही मानव कल्याण के प्रबल प्रोत्साहक

रहे राम अपने निर्वासन के समय का उपयोग धरती से राक्षसों के पूर्ण

विनाश के लिए करना चाहते थे। अयुध्या के राजमहल से राम की

अनुपस्थिति शोकसंतप्त राजा के लिए घातक प्रहार सिद्ध हु और वह वृद्ध

मृत्यु को प्राप्त हो गए।

उल्लेखनीय बिंदु

यद्यपि राम वनवास की घटना दोनों ग्रंथों में मिलती है। दोनों

ग्रंथों में कैकेयी को वरदान देने का कारण उसके द्वारा दशरथ की युद्ध में

रक्षा करना है। अभिव्यक्ति में थोड़ी सी भिन्नता दिखाई देती है। वा. की

मंथरा ही रा. की कुच्ची है। मंथरा के मन में राम के प्रति कोई द्वेष हो,

इसका वा. में कोई संकेत नहीं है जबकि रा. में इसका कारण पूरी तरह से

स्पष्ट है। वा. में दशरथ ने उन्हें दो वरदान देने के लिए कहा था जबकि

रा. में वरदानों की संख्या का उल्लेख नहीं है तथापि कैयाकेशी द्वारा दो

रदान ही माँगे गए थे। इसके अतिरिक्त सारी कथा मिलती-जूलती है।

राम की चरण पादुकाओं का अधिष्ठापन

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

पुरवासियों को सोता छोड़ राम, लक्ष्मण और सीता सुमंत्र के

साथ श्रंगवेरपुर राज्य से गुजरे, जहाँ त्रिपथगामिनी गंगा बह रही थी।

उन्होंने सुमंत्र से वहीं ठहरने के लिए कहा। जब श्रंगवेरपुर के राजा गुह

को राम के आगमन की सूचना मिली, तो वह अपने बंधु-बांधवों के साथ

वहाँ आ गया और उनका भलीभांति आतिथ्य-सत्कार किया। उसने राम से

अपने राज्य का स्वामी बनकर शासन करने के लिए कहा। राम ने उसके

आतिथ्य की बहुत प्रशंसा की और जो वस्तुएं उसने प्रदान की थीं, उन्हें

स्वीकार कर पुनः विनम्रतापूर्वक लौटा दिया। सवेरा होने पर गुह से बड़

का दूध मंगवा कर राम और लक्ष्मण ने जटा

मंडल धारण कर, नाव में

बैठने के बाद सुमंत्र और गुह को वापस लौटा दिया। गंगा पार करने के

बाद राम ने पैदल ही आगे बढ़ने का संकल्प किया। राम ने लक्ष्मण से

कहा, ‘अब तुम सजन या निर्जन वन में सीता की रक्षा के लिए तैयार हो

जाओ। हम जैसे लोगों को नि्जन वन में नारी की रक्षा अवश्य करनी

चाहिए। अतः तुम आगे- आगे चलो, सीता तुम्हारे पीछे-पीछे चलें और मैं

तुम्हारी और सीता की रक्षा करता हुआ सबसे पीछे चलूँगा। इसप्रकार

लक्ष्मण आगे-आगे, सीता बीच में और राम पीछे -पीछे चलने लगे।

आगे बढ़ते हुए वे भरद्वाज मुनि के आश्रम में जा पहुँचे। अपना

परिचय देने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता ने मुनि का आतिथ्य स्वीकार

किया। किंत् जब मुनि ने उनसे वहाँ रुकने का अनुरोध किया, उन

रुकने के प्रस्ताव को यह कहकर अस्वीकार कर दिया, ‘मेरे नगर और

जनपद के लोग यहाँ से बहुत निकट पड़ते हैं, अतः मैं समझता हूँ कि

यहाँ मुझसे मिलना सुगम समझकर लोग इस अश्रम पर मुझे और सीता

को देखने के लिए प्रायः आते-जाते रहेंगे; इस कारण यहाँ निवास करना

मुझे ठीक नहीं जान पड़ता। भगवन् ! किसी एकांत प्रदेश में आश्रम के

योग्य उतम

प्रसन्नतापूर्विक रह सकें । ऋषि ने वृक्षों से हरे- भरे चित्रकूट पर्वत को

उनके रहने योग्य स्थान बताया। ऋषि द्वारा बताए गए मार्ग पर चलते हुए

उन तीनों ने कुशलतापूर्वक यमुना न्दी पार की और रात वहीं पर व्यतीत

की। अगले दिन सीता के साथ दोनों भाई पैदल ही यात्रा करते हुए

यथासमय रमणीय एवं मनोरम चित्रकूट पर्वत पर जा पहूँचे

पर राम ने लक्ष्मण से कहा, ‘सौम्य! यह पर्वत बड़ा मनोहर है। नाना प्रकार

के वृक्ष और लताएं इसकी शोभा बढ़ाते हैं। यहाँ फल-मूल भी बहुत हैं;

यह रमणीय तो है ही। मुझे जान

जीवन-निर्वाह हो सकता है। इस पर्वत पर बहुत-से महात्मा मुनि निवास

करते हैं। ..हम यहीं निवास करेंगे।’ ऐसा विचार करके उन्होंने उस पर्वत

पर अपनी दृष्टि दौड़ाई तो उन्हें वाल्मीकि मुनि का आश्रम दिखाई दिया।

सीता, राम और लक्ष्मण ने हाथ जोड़कर महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में

प्रवेश किया तथा ऋषि को सादर नमन किया। राम ने अपना यथोचित

परिचय दिया। राम ने लक्ष्मण को वहीं पर कुटी बनाने का आदेश दिया।

बताइए, जहाँ सुख भोगने के

योग्य विदेहकमारी

स्थान

वहाँ पहुँ

चने

पड़ता

कि यहाँ बड़े सुख से

उपयुक्त स्थान पर बनी उस कुटी में सीता, राम और लक्ष्मण ने निवास

हेतु प्रवेश किया।

राम को वन में छोड़ने के बाद जब सुमंत्र अयोध्या पहूँचे, राजा

दशरथ ने उनसे राम, लक्ष्मण और सीता की कुशलता पूछी। उसके कुछ

ही समय बाद दशरथ ने ‘हा राम’ कहते हुए अपने प्राण त्याग दिए। राजा

के दिवंगत हो जाने पर भरत और शत्रूध्न जो पहले से ही अपनी ननिहाल

में थे, को बुलाने के लिए शीघ्रगामी घोड़ों पर दू्तों को भेजा गया।

परिणामस्वरूप वे उसी रात उस नगर में पहुँच गए। जिस रात दूत नगर

में पहुँचे थे, उसी रात भरत ने एक अप्रिय स्वप्न देखा था जिसके कारण

वे बहुत भयभीत थे। दू्तों ने भरत से शीघ्र ही चलने के लिए कहा। अपने

नाना से आशी्वाद लेकर उन्होंने अपनी यात्र आरंभ कर दी।

रास्ते में अनेकानेक नगरों, गांवों और नदियों को पार करते हुए

आठवें दिन भरत ने अयोध्या पुरी के दर्शन किए। उसे देख उनके मन में

अनिष्ट की आशंका हो रही थी। राजा के दिखाई न देने पर वे अपनी

माता के महल में गए। उन्हें देख कैकेयी प्रसन्नता से भर गई और उनका

हालचाल पूछा। सब बातें बताने के बाद जब उन्होंने उनसे अपने पिता,

कौशल्या आदि के बारे में पूछा तो उन्होंने दशरथ की मृत्यु का समाचार

सुनाया जिसे सुन वे पितृशोक से विह्ल होकर गिर पड़े। फिर कैकेयी ने

बताया, ‘राजकुमार राम वल्कल वस्त्र धारण करके सीता के साथ दंडकवन

में चले गए हैं। लक्ष्मण ने भी उन्हीं का अनुसरण किया है। और राम के

वनगमन की पूरी बात बताई। भरत इस समाचार को सुन और भी संतप्त

हो उठे, उन्होंने अपनी माँ से अत्यंत कठोर वचन कहते हुए राज्य लेने से

मना कर दिया।

मुनि वशिष्ठ ने भरत से शोक छोड़ने और राजा दशरथ के

प्रेतकर्म की तैयारी करने के लिए कहा। उनके कहे अनुसार भरत ने 13

दिन तक किए जाने वाले सभी संस्कार विधिविधान से पूरे किए। अंत्येष्टि

किया के संपन्न हो जाने के बाद 14वें दिन समस्त राजकर्मचारियों ने

भरत से राज्यकार्य सँंभालने का अनुरोध किया। भरत ने ऐसा करने से

साफ इंकार कर दिया और यही कहा कि राज्य

पर ज्येष्ठ पुत्र का ही

अधिकार होता है। ऐसा कह उन्होंने वन से राम को लौटा लाने के लिए

मंत्रियों, पुरोहितों माताओं तथा विशाल चतुरंगिणी सेना के साथ प्रस्थान

किया।

निश्चित गंतव्य तक पहुँचने के बाद सेना को नीचे ही ठहराकर,

भरत पैदल ही गुह, सुमंत्र, शत्रुघ्न गुरूजनों और माताओं के साथ चित्रकूट

पर्वत पर स्थित राम की पर्णशाला की और बढ़ गए। राम को वहाँ देख

भरत अपने शोकावेग को न रोक सके और अपनी निंदा करते हुए

आर्य’ कहते हुए चीखने लगे। राम के पूछने पर भरत ने उन्हें पिता की

मृत्यु का समाचार बता कर उन्हें जलांजलि देने और वन छोड़ अयोध्या

चल कर राज्य भार सैंभालने के लिए कहा। किंतु दृढप्रतिज्ञ राम ने ऐसा

करने से मना कर दिया और भरत को समझाते हुए यह भी बताया कि

पिताजी का जब उनकी माता से विवाह हुआ था, तभी उन्होंने उनके

नानाजी से कैकेयी के पुत्र को राज्य देने की उत्तम शर्त स्वीकार कर ली

थी। अतः वह राज्याभिषेक कराएं और किसी प्रकार का विषाद न करें।

भरत के साथ वशिष्ठ, जाबालि आदि ऋषियों ने राम को समझझाने का

प्रयास किया किंतु राम ने एक ही बात कही कि उनके पिता ने जो आज्ञा

उन्हें दी है, वह मिथ्या नहीं होगी। भरत के बार -बार कहने पर जब राम

नहीं माने तो भरत ने कहा, ‘ये दो स्वर्णभूषित पादुकाएं आपके चरणों में

अपित हैं। आप इन पर चरण रखें। ये ही संपूर्ण जगत का योगक्षेम

करेंगी। राम ने उन पाद्काओं पर अपने चरण रखकर उन्हें भरत को सौंप

दिया। तत्पश्चात् भरत ने राम से कहा, ‘वीर रघुनंदन! मैं भी चौदह वर्षों

तक जटा और चीर धारण करके फल-मूल का भोजन करता हुआ आपके

आगमन की प्रतीक्षा में नगर से बाहर ही रहूँगा। इतने दिनों तक राज्य का

सारा भार

आपकी इन चरण पादुकाओं पर ही रखकर मैं आपकी बाट

जोहता रहूँगा। यदि चौदहवाँ वर्ष पूर्ण होने पर नूतन वर्ष के प्रथम दिन ही

मुझे आपका दर्शन नहीं मिलेगा तो मैं जलती हुई अग्न में प्रवेश कर

जाऊँगा। धर्मज्ञ भरत ने उन पादुकाओं को राजा की सवारी में आने वाले

सर्वेश्रेष्ठ गजराज के मस्तक पर स्थापित किया और शत्रुध्न के साथ रथ

पर बैठकर अयो

ध्या के लिए प्रस्थान किया।

मकीर्ति के अनुसार

राम ने अपने समर्पित भाई और निष्ठावान पत्नी के साथ अपने

भविष्य के निवास स्थान वन की ओर प्रस्थान किया। कुछ दूर चलने के

बाद वे सतोंग नदी के किनारे आ गए, जहाँ उनकी भेंट शिकारियों के

राजा खुखान से हुई। राम के प्रति बहुत समर्पित होने के कारण उसने

अपने स्थान पर उन्हें राजा बनने और अपनी वन्य जनजातियों पर शासन

करने का अनुरोध किया। चूंकि वह स्थान अयुध्या के बहुत पास था,

इसलिए उन्होंने उसके उत्कृष्ट आतिथ्य के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करने

साथ उसके विनम्र अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। खुखान के साथ

उन्होंने नदी पार की और ऋषि भारद्धाज के आश्रम पहूँच गए। उन्होंने भी

उनके लिए विनम्र आतिथ्य की व्यवस्था की। ऋषि ने उन्हें सरभंग ऋषि

के आश्रम जाने का परामर्श दिया। अतः वे इस नए गंतव्य की ओर चल

पड़े और वहाँ समय पर पहुँच गए। ऋषि ने भी उन्हें अपने साथ ठहरने

का निर्ंत्रण दिया, लेकिन यह स्थान अब भी राजधानी से बहुत दूर नहीं

था। इसके साथ ही बरत के द्वारा उनका पीछा करने का पूरा अवसर था,

अतः राम को उनका यह अनुरोध अस्वीकार करना पड़ा। तब ऋषि ने

उन्हें सत्कुट पर्वत पर जाने का परामर्श दिया जहाँ देवताओं ने उनके लिए

आरामदायक आवास

समाचार सुन, प्रसन्न होकर वे तुरंत सत्कुट पर्वत के लिए चल पड़े और

एक लंबी यात्रा के बाद अपने इस नए आवास पर पहुँच गए जहाँ वे

का निर्माण कर रखा था। इतना उत्साहवर्धक

आराम से रहने लगे।

राम के राज्याभिषेक का समाचार सुनकर बरत और सत्रुद फूले

न समाए और इस शुभ समारोह में सम्मिलित होने के लिए वे राजधानी

की ओर चल पड़े। लेकिन जब वे अयुध्या की सीमा पर पहुँचे, उन्होंने

पाया कि इस शुभ अवसर के अनुरूप ह्षोल्लास के स्थान पर सारा शहर

शोक के अंधकार में डूबा हुआ है। शीघ्न ही उन्हें इस छाए हुए शोक का

उसके वैध

कारण

पता चल गया। राम के प्रति समर्पित बरत ने,

39

वा. गुहा। यहाँ यह शब्द

तमिल भाषा के ‘कुकान से आया है।

उत्तराधिकारी द्वारा छोड़ दिये गए सिंहासन पर आरूढ़ होने के लिए अपनी

सहमति नहीं दी। इसलिए उन्होंने निश्चय किया कि पिता के दाह संस्कार

के बाद वह जाकर राम को उनके राजसिंहासन के लिए वापस लेकर

आयेंगे

को धर्मानुष्ठान के किसी भी कार्य में भाग लेने से रोक दिया गया था,

इसलिए वसिट्ठ और स्वामित्र के द्वारा उसको संपन्न किया गया। जब

धर्मानुष्ठान संपन्न हो गया, बरत और सत्रद अपनी माताओं के साथ वन

के लिए निकल पड़े, जहाँ राम निवास कर रहे थे। एक लंबी यात्रा के

बाद वे अपने गंतव्य पर पहुँच गए और उन्होंने राम से राजधानी लौटने

और प्रजा पर शासन करने के लिए प्रार्थना की। एक आज्ञाकारी पुत्र की

तरह उन्होंने न तो इस प्रस्ताव को स्वीकार किया और न ही उन्होंने इस

दुखद घटना की जिम्मेदार कैयाकेशी के प्रति कोई रोष प्रकट किया।

लेकिन श्रद्धापूर्ण सम्पण में बरत भी राम से पीछे नहीं रहे। वे भी

सिंहासनारूढ़ होने के लिए सहमत नहीं हुए। औअंततः इस गतिरोध को दूर

करने की इच्छा से बरत ने राम से अपनी चरण पादुकाएं देने के लिए

प्रार्थना की ताकि वे उसे राम के प्रतिरूप में सिंहासन पर अधिष्ठापित कर

सकें और उनके प्रतिनिधि के रूप में शासन चला सकें। राम ने इस

प्रस्ताव को सहमति दे दी। तब, इस अंतिम प्रार्थना के साथ, कि यदि राम

चौदह वर्ष बीतने पर नहीं लौटे तो वह और सत्रुद जलती हुई चिता में

अपने प्राणों को त्याग देंगे, वे राम के वियोग से संतप्त अयुध्या वापस

लौट गए।

मरणासन्न दसरथ के आदेश के अनुसार उन्हें और उनकी माता

उल्लेखनीय बिंदु

चरणपादुकाओं के प्रतिष्ठापन की घटना दोनों ही ग्रंथों में एक

जैसी मिलती है। अंतर केवल नामों में है जैसे गंगा नदी के स्थान पर रा.

में सतोंग नदी का प्रयोग, चित्रकूट के स्थान पर सत्कुट का प्रयोग है। वा.

में जो गुह है, वह रा. में खुखान है।

में भरत ने दशरथ का प्रेत संस्कार किया था जबकि रा. में दसरथ का

अंतिम संस्कार वसिट्ठ और स्वामित्र ने किया था।

एक

थोड़ा-सा अंतर यह है कि वा.

वा. में राम द्वारा भरत को बताई गई घटना का संकेत रा. में

नहीं मिलता।

राम का दंडकारण्य के लिए प्रस्थान

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

भरत के चले जाने के बाद राम ने भी कई कारणों से वहाँ से

चले जाना ही उचित समझा। वहाँ से प्रस्थान करते समय रास्ते में वे अत्रि

ऋषि के अश्रम में पहुँचे। ऋषि ने अपनी पत्नी अनुसूया का परिचय

सीताजी से करवाया । अनुस्या ने उन्हें पतिव्रत धर्म की शिक्षा दी, साथ ही

कई आभूषण भी प्रदान किए । तपस्वी ऋषि- मुनियों से आज्ञा लेकर राम ने

लक्ष्मण और सीता के साथ दण्डक वन में प्रवेश किया।

दण्डकारण्य में प्रवेश करके राम ने मुनियों के बहुत-से आश्रम

देखे। उस दर्गम वन में उन्हें एक नरभक्षी विराध नामक राक्षस मिला

जिसकी ऑंखें गहरी, मुँह बहुत बड़ा, आकार विकट था तथा जो उच्च

स्वर में गर्जना कर रहा था। उन्हें देखते ही वह उन तीनों को मारने के

लिए दौड़ा और सीता को झपट कर गोद में ले जाकर दूर खड़ा हो गया।

विराध ने उनसे उनका परिचय पूछा और उनके द्वारा उसके बारे में पूछे

जाने पर उसने बताया, ‘मैं जब नामक राक्षस का पुत्र हूँ और मेरी माता

का नाम शतह्दा है। भूमंडल के राक्षस मुझे विराध नाम से पुकारते हैं।

ब्रह्मा जी से प्राप्त वरदान के कारण मैं किसी भी शरस्त्र से अभेद्य हूँ। तुम

दोनों इस युवती को यहीं छोड़ जहाँ से आए हो, वहीं वापस लौट जाओ ।’

इसे सुन राम की आखें कोध से लाल हो गई। फिर राम, लक्ष्मण और

विराध में भयंकर युद्ध हुआ। युद्ध के दौरान ही विराध ने राम, लक्ष्मण और

सीता को पहचान कर अपने बारे में बताया कि वह पहले तुम्बुरु नामक

गंधर्व था जिसे कुबेर ने राक्षस होने का शाप दिया था, साथ ही उस शाप

से मुक्त होने का भी उपाय बताया था कि

जब दशरथनंदन राम उसका

वध करेंगे, वह अपने पहले स्वरूप को प्राप्त कर स्वर्गलोक चला जाएगा।

अब वह राम के वध द्वारा शापमुक्त हो चुका था। उस विराध ने ही

पूर्वावस्था प्राप्त कर राम को शरभंग मुनि के आश्रम के बारे में बताया।

उसी के कहने पर लक्ष्मण ने उसके शरीर को गड़ढे में गाढ़ दिया।

जब राम शरभंग मुनि के आश्रम में पहुँचे तो ऋषि ने उनका

आतिथ्य-सत्कार किया और थोड़ी दूर पर रहने वाले सुतीक्ष्ण ऋषि के

बारे में बताकर राम की अनुमति से उन्होंने अग्नि में प्रवेश कर अपने शरीर

को समाप्त कर लिया।

शरभंग ऋषि के ब्रह्मालोक चले जाने पर राम के पास अनेक

ऋषि आए। उन्होंने बताया कि इस वन में ब्राह्मण समुदाय राक्षसों द्वारा

मारा जा रहा है तथा उनसे अपनी रक्षा की प्रार्थना की। ऋषि-मुनियों के

दुख से दुखित हो राम ने उनकी रक्षा करने की प्रतिज्ञा की। इसके बाद

राम सुतीक्ष्ण ऋषि के पास पहुँचे और एक ऐसे स्थान के बारे में पूछा

जहाँ वे कुटी निर्माण कर सुखपूर्वक रह सकें। इसे सुन कर ऋषि ने उन्हें

अपने ही आश्रम में रहने को कहा किंतु राम ने उनकी इस बात को

स्वीकार नहीं किया। इस पर ऋषि ने उन्हें दण्डकारण्य वन के आश्रमों में

जाने के लिए कहा। ऋषि सुतीक्ष्ण के कहने पर वै धर्मभृत मुनि के साथ

उस वन के आश्रमों में गए और दस वर्ष का समय वहीं व्यतीत किया।

रामकीर्ति के अनुसार

बरत और उनके परिजनों के अयुध्या प्रस्थान करने के बाद, राम

ने सत्कुट से जाने का विचार किया। उन्होंने सोचा कि कहीं ऐसा न हो,

अपनी माता से उनकी दुखद भेंट दोबारा हो जाए । इसलिए वे घने जंगल

की ओर चल दिए। रास्ते में वे किसी सुदर्शन 40 नामक एक राजा से मिले

जो अपनी पत्नी सुक्खई के साथ वानप्रस्थी जीवन बिता रहे थे। उन्होंने

राम से अपने साथ ठहरने का निवेदन किया, पर ऊपर बताए कारण से

40

वा. सुतीक्ष्ण। मूल रामायण के अनुसार वे एक

ऋषि थे।

रामकीति, पू 42

उन्हें उनका निवेदन अस्वीकार करना पड़ा। फिर वे एक बगीचे में पहूँचे

जिसका स्वामी कोई बिरवा नाम का दानव था,

जिसने ईस्वर की

अनुकंपा से महासागर के अधिष्ठाता देवता समुद्र की तथा अग्नि की

शक्तियाँ प्राप्त कर ली थीं, जिससे वह बहुत शक्तिशाली हो गया था।

बगीचे से गुजरते समय इसके अनेक रकषकों ने उन्हें ललकारा, पर वे सब

के सब लक्षण के द्वारा मार दिए गए। उस समय बिरवा अपने घर पर न

था। जब वह वापस लौटा और अपने अधीनस्थों पर पड़ी घोर आपदा को

देखा, वह बदला लेने के लिए तुरंत चल पड़ा। लेकिन इतना शक्तिशाली

होने पर भी वह राम और लक्षण की संयुक्त वीरता का सामना नहीं कर

पाया। उन्होंने आकृमणकारी का तत्क्षण अंत कर दिया।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में यह कथा थोड़ी परिवर्तित है। वा. में वन में प्रवेश

करने पर राम की भेंट अत्रि ऋषि और उनकी पत्नी अनुसूया से होती है।

जबकि रा. में तापसी जीवन बिताने वाले राजा सुदर्शन और उनकी पत्नी

सुक्खई से होती है। दोनों ने ही राम को अपने पास ठहरने का निमंत्रण

दिया था जिसे राम ने अस्वीकार कर दिया था। अतः दोनों प्रसंगों में

समानता है। वा. का विराध रा. का बिरवा है। किंतु इन दोनों की कथा में

काफी अंतर है। विराध पहले गंध्व था जिसे कुबेर ने शापित कर नरभक्षी

राक्षस बना दिया था किंतु रा. में बिरवा के पिछले जीवन के बारे में ऐसा

कोई वर्णन नहीं है। वा. में विराध का वध राम द्वारा किया गया था जबकि

रा. में राम और लक्ष्मण ने संयुक्त रूप से बिरवा का वध किया था।

शूपर्णखा का आगमन और खर -दूषण वध

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

4

1

विराध।

रामकीर्ति, प 42

दस वर्ष बीत जाने के बाद लक्ष्मण और सीता के साथ राम

सुतीक्ष्ण ऋषि के आश्रम में लीट आए। आतिथ्य-सत्कार स्वीकारने के बाद

राम ने उनसे महर्षि अगस्त्य के बारे में पूछा। उनके द्वारा बताए गए मार्ग

के अनुसार वे महर्षि अगस्त्य के आश्रम पहुँचे। राम के आगमन की सूचना

पाकर ऋषि बहुत हर्षित हुए और उनका यथोचित स्वागत किया। आतिथ्य

स्वीकार करने के बाद राम ने उनसे ऐसे स्थान के बारे में जानना चाहा

जहाँ वे आश्रम बनाकर सुखपूर्वक रह सकें। ऋषि ने कहा, ‘यहाँ से दो

योजन की दूरी पर गोदावरी के पास पंचवटी नाम से एक बहुत ही सुंदर

स्थान है, वहीं जाकर आप लक्ष्मण के साथ आश्रम बनाइए और पिता की

आज्ञा का पालन करते हुए वहाँ सुखपूर्वक निवास कीजिए।’ यह सुनकर वे

ऋषि से आज्ञा लेकर वहाँ के लिए प्रस्थित हुए। पंचवटी जाते समय बीच

में राम को एक विशालकाय गीध मिला जो भयंकर पराकम प्रकट करने

वाला था। राम और लक्ष्मण द्वारा उसका परिचय पूछने पर उसने अपने

को राजा दशरथ का मित्र जटायू बताया। उसने कहा कि यह दुर्गम वन

राक्षसों से सेवित है। लक्ष्मण सहित वे यदि पर्णशाला से कभी बाहर जाएं

तो

इस अवसर पर वह देवी सीता की रक्षा करेगा। इसे सुन राम ने

उनका बहुत सम्मान किया। जटायु के साथ उन्होंने पंचवटी के लिए

प्रस्थान किया। वहाँ पहुँच कर लक्ष्मण ने उचित स्थान पर एक सुंदर -सी

कुटिया का निर्माण किया। फिर शास्त्रीय विधि से पूजा-अर्चना करके और

वास्तु शांति करके लक्ष्मण ने उस कुटिया को राम को दिखाया जिसे देख

राम बहुत खुश हुए। तत्पश्चात् उन्होंने गोदावरी के तट पर स्नान करके

जल से देवताओं और पितरों का तर्पण किया और वे सुखपूर्वक वहाँ रहने

लगे।

एक बार राम लक्ष्मण के साथ किसी बातचीत में व्यस्त थे, तभी

दसमुख राक्षस की बहन शूपर्णखा नाम की एक राक्षसी वहाँ आ पहुँची जो

राम को देखते ही काममोहित हो गई। उसने तपस्वी वेश धारण करने

वाले, साथ में स्त्री और धनुष-बाण ग्रहण करने वाले राम से इस जंगल में

आने का कारण पूछा। उन्होंने अत्यंत सहज भाव से अपने आने का कारण

तथा लक्ष्मण और सीता के बारे में विस्तार से बता कर फिर उसके बारे में

जानना चाहा। उसने भी अपने बारे में बता

ते हुए कहा कि वह इच्छान्सार

रूप धारण करने वाली, अकेले ही वन में विचरण करने वाली शूपर्णखा

नाम की एक राक्षसी है। विश्रवा मुनि के वीर पुत्र रावण, कुंभकर्ण और

धर्मात्मा विभीषण उसके भाई हैं। खर और दूषण भी उसके ही भाई हैं।

उसने कहा कि उसका मन उन पर आसक्त हो गया है, इसलिए वह उन

जैसे पुरुषोत्तम के प्रति पति की भावना रखकर बड़े प्रेम से आई है। किंतु

राम उसकी बात को सुनकर हँसने लगे। अपने आप को विवाहित बताकर

उन्होंने उससे लक्ष्मण के पास जाने के लिए कहा। लक्ष्मण के पास जाने

पर उसने उन्हें भी मनाने का प्रयास किया जिसमें वह सफल न हो सकी।

वह फिर राम के पास गई, सीता को राम के साथ बैठी देख वह उनके

प्रति दुर्वचनों का प्रयोग करने लगी और सीता को खाने के लिए उन पर

जोर से झपटी जिस के कारण राम ने कूपित होकर लक्ष्मण से उसे

अंगहीन करने

नाक-कान काट दिए।

के लिए कहा।

देखते ही देखते

लक्ष्मण

उसके

से भीगी हुई वह महाभयंकर एवं विकराल

रूपवाली

निशाचरी नाना प्रकार से चीत्कार करने लगी और भागकर राक्षससमूह से

घिरे हुए भयंकर तेजवाले जनस्थान निवासी भाई खर के पास जाकर पृथ्वी

पर गिर पड़ी। अपनी बहन को इस अवस्था में देख खर को बहुत कोध

आया और उसने इस सब का कारण पूछा। शूपर्णखा ने वन में सीता और

लक्ष्मण के साथ राम के आने और अपने कुरूप किए जाने का सारा वृतांत

कह सुनाया। उसने कहा कि वह उस स्त्री सहित उन दोनों राजकुमारों

खून

खून पीना चाहती है।

शूपर्णखा की बात से कुद्ध हुए खर ने अपने चौदह राक्षसों को

उनका मुकाबला करने के लिए भेजा जिन्हें राम ने जड़ से कटे वृक्षों की

भांति धराशायी कर दिया। उनको मरा देख शूपर्णखा खर के पास पुनः

आई और वह समाचार सुनाया। उसे सुनकर कुद्ध हुए खर ने अपने

सेनापति दूषण से सेना तैयार करने और उन पर आकृमण करने के लिए

कहा। सेना के साथ प्रस्थान करते ही अमंगलसूचक अपशकुन होने लगे

जिसकी खर ने परवाह न की। उसे आता देख राम ने सीता को लक्ष्मण

के साथ किसी गुफा में सूरक्षित भेज

दिया और स्वयं खर, दुषण और सेना

के साथ लड़ने लगे। पहले सेना के साथ दूषण मारा गया, फिर त्रिशिरा

आया, उसकी गति भी दूषण के समान ही हुई और अंत में राम का खर

के साथ भीषण संग्राम हुआ। राम के द्वारा धनुष के खण्डित होने, रथ के

टूटने और सारथि के मारे जाने पर खर हाथ में गदा लिए रथ से कूदकर

धरती पर राम के सामने खड़ा हो गया। राम ने उसे बहुत फटकारा जिसे

सुन वह तीव्र कोध में भर गया और उन पर भयंकर गदा चलाने लगा।

राम ने अनेक बाण मारकर उस गदा के टुकड़े-टुरकड़े कर डाले और अंत

में राम ने इंद्र के द्वारा दिए गए तेजस्वी बाण से खर को धराशायी कर

दिया। खर के मारे जाने के बाद लक्ष्मण भी सीता के साथ पर्वत की

कंदरा से निकलकर प्रसन्नतापूर्वक आश्रम में आ गए।

रामकीर्ति के अनुसार

सदैव कामूक आमोद-प्रमोद में लिप्त रहने वाली सम्मानखा ने

अचानक अपने पति जिव्हा की मृत्यु हो जाने पर अनुभव किया कि

उसका विधवा-जीवन काम-सुख से वंचित हो गया है। इसलिए उसने

अपने भाई दसकंठ से अपने पुत्र कुंभाकश से मिलने का बहाना बना कर

जाने की अनुमति माँगी। लेकिन इसके पीछे उसका छिपा हुआ प्रयोजन

रास्ते में नए पति की तलाश करना था

अंत में एक सुंदर स्त्री के छदमवेश में वह उस स्थान पर आई

जहाँ राम ने अपना आवास बना रखा था। प्रथम दृष्टि में ही वह अयुध्या

के राजकुमार के प्रति उन्मत्त प्रेम में पड़ गई। लेकिन राम ने उसके

कामुक प्रदर्शन के प्रति कोई प्रतिकिया व्यक्त नहीं की। जब उसे सीता

की झलक मिली, वह राम की निष्ठ्रता का कारण समझ गई। इसलिए

उसने सीता को मारने के बारे में सोचा ताकि वह राम के हृदय की रानी

बन सके। अतः उसने अपना राक्षसी रूप धारण किया और सीता पर

झपटते हुए उसे काटने और मारने लगी। राम ने उसे पलटकर मारा

जबकि लक्षण ने उसके हाथ-पांव के सा

थ-साथ उसके कान और नाक

काट दिए और उसे दूर भगा दिया। सम्मानखा रोमागन नगर 42

और उस देश के शासक, अपने भाई खर से झूठ बोला कि राम और

लक्षण ने उसके साथ प्रेम जताया, किंतु उसके प्रति उसने कोई प्रतिकिया

नहीं दी। इस कारण उन्होंने मेरे शरीर के अंगों को काटकर मुझसे बदला

लिया। जब खर ने यह सुना, उसे बहुत कोघ आया। इसलिए अपनी बहन

के अपमान का बदला लेने के लिए वह अपनी विशाल सेना को साथ

लेकर चल पड़ा।

पहुँची

तब राम और खर के बीच एक भयंकर युद्ध छिड़ गया, अपने

बाण के पहले ही प्रहार में उसने राम के धनुष को तोड़ दिया। इसलिए

राम ने विरुन की देख-रेख में रखे गए रामासुर के धनुष का आहवान

किया। उस शक्तिशाली धनुष की शक्ति का सामना कर पाने में असमर्थ

खर मृत्यु का शिकार हो गया। खर की मृत्यु के पश्चात् उसके छोटे भाई

दूषन ने राम को युद्ध के लिए ललकारा। लेकिन वह आअपने भाई से अधिक

अच्छा कुछ न कर सका।

यह खबर तीन मुख वाले भयंकर राक्षस त्रिशिरा के पास पहुँची।

उसका एक मुख कोधोन्माद में इतनी तेजी से गरजा कि उसकी आवाज

देवलोक तक पहुँच गई; दुसरे मुख ने राम के शरीर को इतने महीन

टुकड़ों में काटने का दृढ़ निश्चय किया कि वे कौओं के गले में न चिपकें,

और तीसरे मुख ने ऐसी सेना को संगठित करने का आदेश दिया जिसके

विचित्र सैनिकों के मुख तो नर -पशु के हों और शरीर दूसरे जानवर या

अलौकिक प्राणी के हों। किंतु अपने तीनों सिरों और अनूठे दल के साथ

वह केवल खर और दूषन के पीछे चल कर मृत्यु को प्रप्त हो गया।

उल्लेखनीय बिंदु

इस प्रसंग में वा. में जो शूपर्णखा है, वही रा. में सम्मानखा है।

किंतु वा. में शूपर्णखा के विवाहित अथवा विधवा रूप का कोई वर्णन नहीं

42

स्पष्ट रूप से यह एक जन

स्थान है।

रामकीति, पू 45

है और न ही उसके पति और पुत्र का कोई उल्लेख है जबके रा. में वह

जिहवा की पत्नी और कुभाकश की माता के रूप में वर्णित है। वा. में

उसने युवती का स्वरूप धारण नहीं किया जबकि रा. में वह युवती के रूप

में राम से मिली। वा. में राम ने उस पर प्रहार नहीं किया, केवल लक्ष्मण

ने ही उसके नाक-कान काटे, जबकि रा. में राम ने भी उस पर प्रहार

किया।

वा. में जिस जनस्थान का वर्णन है, उसे ही रा. में रोमागन कहा

वा. में दूषण खर का सेनापति है, त्रिशिरा भी सामान्य राक्षस के

गया है।

रूप में वर्णित है, खर की मृत्यु सबसे अंत में होती है जबकि रा. में दूषण

खर का छोटा भाई बताया गया है, त्रिशिरा तीन मुख वाला भयंकर राक्षस

बताया गया है तथा खर की मृत्यु सबसे पहले हो जाती है। वा. में राम ने

खर के जीवन का अंत इंद्र के धनुष से किया, जबकि रा. में विरुन के

दिए हुए धनुष से। बाकी कथा लगभग समान है।

सीता का अपहरण

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

खर और दूषण के मारे जाने के बाद अकंपन नामक राक्षस ने

बड़ी ही तेजी से अपनी जान बचाकर और लंका जाकर रावण से खर के

मारे जाने का समाचार सुनाया

पर उसने राम और लक्ष्मण के पराकम और सीता की सुंदरता के बारे में

बताया। रावण ने जब राम से युद्ध करने का निश्चय किया तो अकंपन ने

ही उसे सीता का अपहरण करने की सलाह दी। रावण ने भी उसकी

सलाह मानकर मारीच के पास जाकर अपनी योजना के बारे में बताया

कितु मारीच ने राम के बल और पराक्रम का वर्णन किया और उसे ऐसा

न करने का परामश्श दिया। रावण उसकी बात मानकर लंका वापस लौट

आया।

उधर शूपर्णरखा ने जब देखा कि राम ने अकेले ही चौदह हजार

राक्षसों के साथ दूषण, खर और त्रिशिरा को भी मार गिरया है तो वह मेघ

गर्जना के समान जोर-जोर से चीत्कार करने लगी। वह अत्यंत उद्विग्न

हो अपने भाई रावण के पास लंका चली गई और अत्यंत कुपित वाणी में

राम, लक्ष्मण द्वारा की गई अपनी दुर्दशा के बारे में उसे बताया, साथ ही

सीता के सौंदर्य की भी बहुत प्रशंसा की। उसने कपटपूर्वक कहा, ‘मैं उस

सुमुखी स्त्री को जब तुम्हारी भार्या बनाने के लिए ले आने को उद्यत हुई.

तब कूर लक्ष्मण ने मुझे इस तरह कुरूप कर दिया।

शूपर्णखा की बात सुनकर रावण ने अपने मंत्रियों से सलाह ली

और अपने कर्तव्य का निश्चय कर अपने रथ पर सवार होकर वह पुनः

मारीच के पास गया। रावण ने जनस्थान में रहने वाले खर, दूषण और

त्रिशिरा के वध का वृतांत सुनाकर कहा, ‘जिसने बिना किसी वैर -विरोध

के मेरी बहन के नाक कान काट दिए, उनसे बदला लेने के लिए मैं

उनकी

सहायता करो।’ मारीच ने रावण को पुनः अनेक प्रकार से समझाते हुए

कहा, ‘राजन्! पराई स्त्री के संसर्ग से बढ़कर दूसरा बड़ा कोई पाप नहीं

है। तुम्हारे अंतःपुर में हजारों युवती स्त्रियाँ हैं , तुम अपनी उन्हीं स्त्रियों में

अनुराग रखो। लेकिन काल से प्रेरित उस राक्षसराज ने उसकी वह

हितकारी बात नहीं मानी और अत्यंत कठोरता से उसके द्वारा बताए गए

मायामय कंचन मृग का स्वरूप धारण करने के लिए कहा। मारीच के

समक्ष उसकी बात को स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं था।

पत्नी का अपहरण करना चाहता हूँ। इस कार्य में तुम मेरी

मारीच सीता को लुभाने के लिए विविध धातुओं से चित्रित, अत्यंत

आकर्षक एवं मनोहर स्वर्ण मृग का रूप बना कर सीता के आश्रम के पास

ही घास खाता हुआ विचरने लगा । कुछ समय बाद सीता की दृष्टि मृग

पर पड़ी। सीता ने वैसा मृग कभी नहीं देखा था। वे अपने पति और देवर

को हथियार लेकर आने के लिए पुकारने लगीं। लक्ष्मण के मन में उस

मृग को देख कर संदेह उत्पन्न हुअआ और वे बोले, “भैया! मैं तो समझता हूँ

आया है।

स्वेच्छानुसार रूप धारण करने वाले इस पापी ने कपट-वेष बनाकर वन में

कि इस मृ्ग

रूप में

वह मारीच नाम का राक्षस ही

शिकार खेलने के लिए आए हुए कितने ही हर्षोत्फुल्ल नरेशों का वध किया

है। यह अनेक प्रकार की मायाएं जानता है। इसकी जो माया सुनी गई है,

वही इस प्रकाशमान मृगरूप में परिणत हो गई है।’ किंतु मारीच के छल

से जिनकी विचारशक्ति हर ली गई थी, ऐसी सीता की जिद के सामने

राम और लक्ष्मण की एक न चली और अंततः राम ने उस मृग को पकड़

कर लाने के लिए अपने आप को तैयार किया और लक्ष्मण से

‘बुद्धिमान पक्षी गृधराज जटायु बड़े ही बलवान और सामर्थ्यशाली हैं, उनके

साथ ही यहाँ सावधान रहना। मिथिलेशकुमारी सीता को अपने संरक्षण में

लेकर प्रतिक्षण सब दिशाओं में रहने वाले राक्षसों से चौकन्ने रहना।

कहा,

वह मृग राम को जंगल में काफी दूर ले गया। वे बहुत थक गए

थे। ज्योंही उन्हें वह मृग दिखाई दिया, उन्होंने अपना बाण चला दिया

जिससे घायल होकर वह पृथ्वी पर गिर पड़ा और उसने अपने कृत्रिम

शरीर को त्याग दिया

की सहायता करने के विचार से राम के स्वर में ही ‘हा सीते! हा लक्ष्मण!

कहकर पुकारा और मृगरूप त्याग राक्षसरूप धारण करके अपने प्राण त्याग

दिए। उसी समय राम को लक्ष्मण की कही बात याद आ गई। वे सोचने

लगे कि लक्ष्मण की बात सही थी। आज उनके द्वारा मारीच ही मारा गया

है। किंतु तभी मारीच द्वारा उच्चरित शब्दों की याद आ जाने पर सोचने

लगे, ‘उस शब्द को सुनकर सीता की और लक्ष्मण की कैसी दशा हो

जाएगी।, इस बात से भयभीत राम ने शीघ्र ही पंचवटी की ओर प्रस्थान

किया।

मरते समय रावण का स्मरण आने पर उसने रावण

राम की करुण पुकार सुन कर घबराई हुई सीता ने लक्ष्मण से राम

की सहायता हेतु जाने के लिए कहा । उनके ऐसा कहने पर भी भाई के

आदेश का विचार कर वे नहीं गए, तब सीता ने उनसे कठोर वचन कहे,

“मेरे लिए तुम्हारे मन में लोभ हो गया है, निश्चय ही इसीलिए तुम श्री

रघुनाथ के पीछे नहीं जा रहे हो। मैं समझती हूँ, श्री राम का संकट में

पड़ना ही तम्हें प्रिय है। तुम्हारे मन में अपने भाई के प्रति स्नेह नहीं है।

तब भी लक्ष्मण ने उन्हें राम के पराकम को लेकर आश्वस्त करना चाहा तो

सीता ने और भी कठोर वाणी में उन पर

भीषण आक्षेप लगाया, ‘तू बड़ा

दुष्ट है, श्रीराम को अकेले वन में आते देख मुझे प्राप्त करने के लिए ही

अपने भाव को छिपाकर तू भी अकेला ही उनके पीछे- पीछे चला आया है,

अथवा यह भी संभव है कि भरत ने ही तुझे भेजा हो।’ इन आक्षेपों को

सुनकर वे राम के पास चल दिए।

लक्ष्मण के वहाँ से चले जाने पर अत्यंत बलवान रावण को सीता का

अपहरण करने का सुनहरा अवसर मिल गया । वह सन्यारसी का वेश धारण

करके, भव्य रूप में अपनी अभव्यता छिपाकर शीघ्र ही शोक और चिंता में

डूबी हुई विदेहकुमारी सीता के सामने जा पहुँचा और मंत्रोच्चारण करने

लगा। वेशभूषा से महात्मा बनकर आए रावण का सीता ने अतिथि सत्कार

करते हुए उसे भोजन करने के लिए आमंत्रित किया। उसके बाद उसने

सीता से उनका परिचवय पूछा। अपना परिचय बताने के बाद जब सीता ने

उससे उसका परिचय पूछा तो रावण ने अपने बारे बताकर अपने आने का

‘यदि तुम मेरी भार्या हो जाओरगी तो सब प्रकार के

आभूषणों से विभूषित पॉँच हजार दासियाँ सदा तुम्हारी सेवा किया करेंगी ।

रावण की इस प्रकार की बातों को सुनकर सीता कुपित हो उठीं । उन्होंने

अपने पति के पराक्ृम से रावण को डराने की कोशिश की। रावण ने

अपने पराकृम का बखान कर सीता को एक बार फिर से मनाने का प्रयास

किया। लेकिन अपने प्रयास में असफल होने पर उसने तत्काल अपने

सौम्य रूप को त्याग कर तीखा एवं काल के समान विकराल रूप धारण

कर लिया और निकट जाकर सीता को पकड़ लिया। उसने बॉयें हाथ से

सीता के केशों सहित मस्तक को पकड़ा तथा दाहिना हाथ उनकी दोनों

जाँघों के नीचे लगाकर उन्हें उठा लिया। इस पर सीता जोर-जोर से ‘हे

राम!’ कह कर पुकारने लरगीं। उन्होंने एक वृक्ष पर बैठे हुए जटायु को

देखा और उनसे उस समाचार को राम को बता देने की प्रार्थना की। सोते

हुए जटायु ने सीता की उस करुण पुकार को सुना। सीता को ले जाते

देख उसने रावण को समझाने का प्रयास किया किंतु जब वह नहीं माना,

तब जटायु ने कहा, “मुझे अपने प्राण देकरभी महात्मा राम तथा राजा

दशरथ का प्रिय कार्य अवश्य करना है। जटायु की ऐसी बातों को सुनकर

रावण कोध से भर गया और उन दोनों के बीच महासंग्राम होने लगा।

रावण ने गीध को क्षत-विक्षत कर दिया। गीध ने भी रावण का

धनूष तोड़

कारण भी बताया,

वृद्ध गीध को थका देख हर्षित हो वह सीता को लेकर ऊपर की

दिया

ओर उड़ने लगा किंतु गीध ने अपनी पूरी शक्ति के साथ एक बार पफिर

उस पर अपनी चंचु से प्रहार कर जख्मी कर दिया, फिर तो रावण को

बहुत ही कोध आया और उसने उसके पंख, पैर तथा पाश्र्व काट दिए

जिससे वह जमीन पर गिर पड़ा। जटायू को जमीन पर पड़ा देख

जनकनंदिनी जोर-जोर से विलाप करने लगीं।

लेकिन अब रावण का र्थ निर्दद्व गति से सीता को लेकर लंका की

ओर उड़ रहा था। सीता के शरीर पर विद्यरमान आभूषण खन-खन की

आवाज के साथ धरती पर गिरते जा रहे थे। उस समय सीता को कोई

भी अपना सहायक दिखाई नहीं दे रहा था

रास्ते में सीता ने एक पर्वत

के शिखर पर पाँच वानरों को बैठे हुए देखा। उन्होंने सुनहरे रंग की

रेशमी चादर उतार कर, उसमें वस्त्र आभूषण रखकर उसे उनके बीच फेंक

दिया

रावण उनके इस कार्य को देख न सका। रावण ने सीता के साथ

लंका में प्रवेश किया और अंतःपुर की राक्षसियों को बुलाकर कहा कि

उसकी आज्ञा के बिना कोई भी सीता को देख न पाए अथवा इनसे मिल

न पाए। रावण ने बाहर जाकर आठ महाबली भयंकर राक्षसों को जनस्थान

की रक्षा के लिए वहाँ जाने की आज्ञा दी और पुनः अंतपुर में आकर सीता

को लुभाने का भरपूर प्रयास किया। किंतु सीता ने रावण की बातों का

निर्भय होकर उत्तर दिया और उसके द्वारा प्रस्तुत किए गए सारे प्रस्तावों

को दुकरा दिया जिससे कुपित होकर रावण ने राक्षसियों को आदेश

दिया, निशाचरियो! तुम लोग मिथलेशकुमारी सीता को अशोकवाटिका में ले

जाओ और चारों ओर से घेरकर वहाँ गूढ़ भाव से इसकी रक्षा करती

रहो। तब वे राक्षसियाँ सीता को लेकर अशोकवाटिका में च्ी गई।

रामकीर्ति के अनुसार

खर, दूषण और त्रिशिरा नामक तीनों राक्षसों की मृत्यु ने

सम्मानखा को इतना अधिक भयभीत कर दिया कि वह पृथ्वी के नीचे से

लंका की ओर चली गई। उस असंदिग्ध कपटी स्त्री ने दसकंठ को बताया

कि वह सीता नाम की एक सुंदर स्री से वन में मिली थी। जब वह सीता

भेंट करने के लिए दसकंठ के पास ला

रही थी,

को पत्नी के रूप में

लक्षण ने उसका पीछा कर, कूरता से उसे दण्डित कर, सीता को उससे

छीन लिया। जब उसकी सहायता के लिए खर, दूषण और त्रिशिरा आए

तो उन्हें राम ने मार दिया। इसलिए उसने दसकंठ से प्रार्थना की और

उसे उकसाया कि वह राम के साथ युद्ध करे और उससे उसकी सुंदर

पत्नी छीन ले

जब दसकंठ ने सीता के सौंदर्य के बारे में सुना, वह सब कुछ

भूल गया, यहाँ तक कि राम और लक्षण द्वारा किया गया अपनी बहन का

अपमान भी। अब उसके मन में एक ही विचार प्रबल था कि सीता को

कैसे पाया जाए। उसने रानी मंडो से सलाह माँगी कि क्यों न वह अपनी

बहन के अपमान का बदला लेने के लिए उन आदमियों को मारने के

स्थान पर उनकी पत्नी सीता का अपहरण कर ले। मंडो को उसकी यह

बात स्वीकार्य नहीं थी

वाले दसकंठ ने अपनी पत्नी मंडो की सलाह की परवाह न करते हुए,

मारीश को सोने के हिरण का रूप धारण करने और राम और लक्षण को

बहला-फुसला कर कुटिया से दूर ले जाने का आदेश दिया जिसका

मारीश ने ईमानदारी से पालन किया।

किंतु सीता के अपहरण के लिए कृतसंकल्प मन

हिरण मनोहारी तरीके से सीता की कुटिया के सामने चरने लगा।

अपने रंग और फुर्ती में अत्यंत सुंदर लग रहे स्वर्णिम हिरण को पालने की

इच्छा से

सीता को समझाया कि यह असली हिरण नहीं है बल्कि छदम ेिश में

राक्षस है। लेकिन सीता ने राम की एक न सुनी। अंततः राम ने उनके

सामने हार मान ली और वे हिरण के पीछे-पीछे चले गए । वह उनको वन

के अंदर काफी दूर तक ले गया। लेकिन राम के तेजी से पीछा करने के

कारण मारीश इतना अधिक थक चुका था कि वह अब हिरण के रूप में

नहीं रह सका। वह अपने राक्षस रूप में आ गया जिसे राम ने तुरंत

पहचान लिया। बिना देर किए राम ने उस पर बाण चला दिया जिसने

उस पर प्राणघातक प्रहार किया। बचने का कोई रास्ता न पाकर, परंतु

फिर भी दसकंठ की सहायता करने की भावना से उसने राम की आवाज

की नकल की और चिल्लाया, ‘सहायता करो, लक्षण, सहायता करो।

सीता ने राम से उसे पकड

लाने का अनुरोध किया। राम ने

उसके चिल्लाने की आवाज सीता के कानों तक पहुँची। उन्होंने

सोचा कि राम अवश्य किसी घातक संकट में हैं। इसलिए उन्होंने लक्षण

से शीघ्र ही अपने भाई की सहायता के लिए जाने का आग्रह किया। किंतु

लक्षण जानते थे कि यह राम की नहीं अपित किसी राक्षस की आवाज है।

उनके समझाने-बुझाने के बाद भी सीता ने एक बार फिर उनसे जाने का

आग्रह किया किंतु उनकी बात के न माने जाने पर उन्होंने लक्षण को कट्

शब्दों में फटकारा। अंततः लक्षण ने सीता की रक्षा हेतु देवताओं से

सहायता के लिए आहवान किया और राम की खोज में चल दिए।

अब दसकंठ ने उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाया और सीता

के समक्ष साधू के वेश में प्रकट हो गया। एक धर्मात्मा को देखकर सीता

ने उसका अपनी छोटी-सी कुटिया में स्वागत किया। लेकिन साधु ने

सीता से कहा कि उस जैसी एक सूंदर स्त्री दसकंठ की पत्नी होने योग्य

है जो सभी लोकों में सबसे शक्तिशाली राजा है। उस धर्मात्मा के मुख से

ऐसी अपवित्र बातें सुनकर सीता ने उसे बुरी तरह फटकारा और निकाल

दिया। उनकी झिड़की ने उसके कोध को भड़का दिया और वह आअपने

स्वरूप में आ गया। फिर उसने सीता को बलपूर्वक अपनी बाहों में ले

लिया, अपने रथ में बैठाया और लंका की ओर उड़ गया।

उसी समय एक विशाल आकार वाला पक्षी और राम का मित्र

सतायु उनसे मिलने आने के लिए रास्ते में था। आकाश के बीच में उसका

सामना उसके मित्र की पत्नी को अपहरण करके ले जा रहे रावण से

हुआ।

उसने उस राक्षसराज से सीता को तुरंत लौटाने की मांग की।

दसकंठ के मना कर देने पर वह स्वयं उससे युद्ध करने लगा। दसकंठ के

सारे अस्त्र, चाहे वे कितने भी विनाशकारी थे, उस विशाल पक्षी पर कोई

भी असर नहीं डाल पा रहे थे। इस पर सतायु ने उसके निष्फल प्रयासों

का मजाक उड़ाया और गर्व से कहा कि इस संसार में कोई अस्त्र उसे

नहीं मार सकता सिवाय ईस्वर की अंगूठी के, जो उस समय सीता की

अंगुली में थी। उसकी आत्मघाती गर्वोक्ति ने दसकंठ को एक अवसर दे

उसने सीता की अंगुली से अंगूठी निकाली

और उस पक्षी पर फेंक

दिया

वह नीचे गिर कर मृत-सा हो गया। उसकी चोंच में अभी भी अंगूठी

थी और उसकी आत्मा राम की प्रतीक्षा में थी। इसप्रकार, दसकंठ उस

इकलौते विरोधी से छुटकारा पाकर लंका पहुँच गया और सीता को आअपने

हजार पुत्रों की निगरानी में उद्यान में रख दिया।

दी

उल्लेखनीय बिंदु

वा. का रावण ही रा. का दसकंठ है। दोनों ग्रंथों में ही मारीच अथवा

मारीश ने सोने के मृग का रूप धारण कर सीता को आकृष्ट किया, राम

को सीता की जिद के समक्ष हार माननी पड़ी और मृग का पीछा करने के

लिए वन में जाना पड़ा, मरते समय मारीच ने राम की आवाज में ‘हा

लक्ष्मण!’ कहा, सीता का अपहरण सन्यासी रूप धारण करने वाले रावण ने

किया, विशालकाय गीध ने सीता को बचाने के लिए रावण से युद्ध किया

था। इस प्रसंग में जो अंतर दिखाई देता है, वह इसप्रकार है- वा. में

सीता पर्वत पर बैठे वानरों को देख कर अपने वस्त्र और आभूषण फेंकती

हैं, जबकि रा. में वह एक वानर के पास अपना दुपट्टा फेंकती है, अकंपन

द्वारा रावण को भड़काने की घटना रा. में नहीं मिलती, वा. में मारीच

घायल हो जाने पर अपने पूर्व रूप में वापस आया था जबकि रा.. में उसने

बहुत थक जाने पर ही राक्षस स्वरूप धारण किया था, वा. में मंदोदरी द्वारा

रावण को समझाने की बात नहीं है जबकि रा. में है, वा. में जटायु दशरथ

का मित्र बताया गया है जबकि रा. में राम का मित्र, रा. में सतायु ने जिस

प्रकार की गर्वोक्ति की है वैसी कोई घटना वा. में नहीं है।

सीता की खोज

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

इधर जब मृगरूपधारी मारीच का वध करके राम आश्रम की ओर

लौट रहे थे कि इतने में ही एक सियारिन कठोर स्वर में चीत्कार करने

लगी तथा इसी तरह के कई अपशकुन उन्हें दिखाई पड़े। उन्हें देख कर

राम को चिंता होने लगी और चित्त व्याकुल हो

गया। इतने में ही उन्हें

लक्ष्मण आते दिखाई पड़ गए। जब उन्होंने लक्ष्मण से सीता को अकेले वन

में छोड़कर आने का कारण पूछा तो उन्होंने इसका कारण सीता के ये

कटू वचन बताए, ‘लक्ष्मण! तेरे मन में मेरे लिए अत्यंत पापपूर्ण भाव भरा

है। तू अपने भाई के मरने पर मुझे प्राप्त करना चाहता है, परंतु मुझे पा

नहीं सकेगा। किंतु राम ने लक्ष्मण के इसप्रकार के आचरण पर उनसे

यही कहा कि उन्हें सीता को अकेली छोड़कर नहीं आना चाहिए था।

सुंदरी सीता के विषय में चिंता करते हुए ही लक्ष्मण के साथ राम तुरंत

जनस्थान में आए और उस स्थान को सूना देख विषाद में डूब गए और

अत्यंत उद्विग् हो उठे। शोक के सागर में डूबे हुए और विलाप करते हुए

कभी वृक्षों और पशु-पक्षियों से पूछते तो कभी-कभी वे पागलों जैसी

चेष्टा करते। राम ने सीता को वहाँ के सभी स्थानों पर दूँढा, परंतु उनका

कहीं पता नहीं चला। रास्ते में उन्होंने गिरे हुए फूलों को देखा। उन्हें एक

पर्वत पर राक्षस का विशाल पदचिह्न तथा सीता के चरण चिह्ह भी दिखाई

दिए। वहीं पर जब उन्होंने टूटे धनुष, तरकस और भिन्न होकर अनेक

टुकड़ों में बिखरे हुए र्थ को देखा तो वह घबरा गए। उन्हें तब लगा कि

सीता के लिए परस्पर विवाद करने वाले दो राक्षसों के बीच में यहाँ घोर

युद्ध भी हुआ है। अवश्य ही किसी राक्षस ने सीता का अपहरण कर लिया

इस प्रकार खोजते हुए राम जब एक स्थान से गुजर रहे थे, उन्होंने

खून से लथपथ जटायु को पृथ्वी पर पड़े देखा जिसने बताया कि सीता

को रावण हर कर ले गया है। उसने सीता को बचाने के लिए युद्ध भी

किया था किंतु अंत में जब रावण के द्वारा उसके पंख, पैर आदि काट

दिए गए तो वह कुछ न कर सका और वह रावण सीता को लेकर लंका

की ओर उड़ गया। जब राम जटायु से मिले तो उसने यह बात कहकर

राम को आश्वस्त किया,

खोया हुआ धन शीघ्र ही मिल जाता है। वह विंद नामक मुहुर्त था, किंतु

उस राक्षस को इसका पता नहीं था। जैसे मछली मौत के लिए बंसी

पकड़ लेती है, उसी प्रकार वह भी सीता को ले जाकर शीघ्र ही नष्ट हो

जाएगा।.. रावण विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई है। यह कहते हुए

जटायु ने प्राणों का त्याग कर दिया। राम ने उसका दाह संस्कार किया।

“रावण सीता को जिस मु

हुर्त में ले गया है,

उसमें

जटायु के दाह संस्कार के बाद जब वे दोनों मतंग मुनि के आश्रम

के पास पहुँचे तब उन्हें अयोमुखी नाम की विशालकाय राक्षसी मिली।

उसने लक्ष्मण से अपने साथ रमण के लिए कहते हुए उनका न केवल

हाथ पकड़ा वरन् अपनी भुजाओं में भी कस लिया। किंतु लक्ष्मण राक्षसी

के ऐसा करने पर कोध से भर गए और उन्होंने तलवार निकालकर उसके

कान, नाक और स्तन काट डाले। उन अंगों के कट जाने पर वह राक्षसी

जोर-जोर से चिल्लाती हुई जहाँ से आई थी, वहीं भाग गई

आगे बढ़ने पर राम और लक्ष्मण एक गहन वन में जा पहुँचे। वहाँ

उन्हें एक विशालकाय कबंध (ध़ मात्र) नामक राक्षस मिला। उसकी छाती

में ललाट था और उस में दहकती हुई- सी एक आँख थी। जब वे दोनों

भाई उसके निकट पहुँचे, वह उनका रास्ता रोक कर खड़ा हो गया। वे

दोनों उससे दूर जा खड़े हुए और बड़े गौर से उसे देखने लगे। उसने

अपनी दोनों भूजाओं को फैलाकर राम और लक्ष्मण को बलपूर्वक पीड़ा देते

हुए एक साथ ही पकड़ लिया और उनसे उनका परिचय पूछने लगा। बाद

में जब वह उन दोनों को खाने की कोशिश करने लगा, तब उन्होंने

उसकी भुजाएं काट डालीं। वह धरती पर गिर पड़ा। कबंध के पूछने पर

राम ने अपना परिचय दिया। उसके बारे में पूछे जाने पर कबंध ने अपने

बारे में बताते हुए कहा, ‘नरश्रेष्ठ श्री राम! मुझे जो यह कुरूप रूप प्राप्त

हुआ है, यह मेरी उद्दंडता का ही फल है। यह कह कर उसने

स्थूलशिरा महर्षि के कुपित होने और शाप देने तथा उससे मुक्त होने की

कहानी बताई। महर्षि ने कहा था,

काटकर तुम्हें निर्जन वन में जलाएंगे तब तुम पुनः अपने उसी परम उत्तम,

सुंदर और शोभासंपन्न रूप को प्राप्त कर लोगे। तत्पश्चात् राम ने उसे

मार दिया और लक्ष्मण ने उसे एक गड़ढे में डालकर आग लगा दी।

तदंतर वह कबंध एक तेजस्वी रूप धारण कर रथ पर सवार हो उनके

सामने उपस्थित हुआ और राम से कहा कि ऋष्यमूक पर्वत पर सुग्रीव

नाम के वानर हैं जिन्हें उनके भाई वाली ने घर से निकाल दिया है। वे ही

सीता की खोज में आपके सहायक होंगे। वहाँ तक पहुँचने का मार्ग और

भक्त शबरी के बारे में बताकर वह राम से आज्ञा लेकर वहाँ से चला

गया।

“जब श्री

राम तम्हारी दोनों भुजाएं

रामकीर्ति के अनुसार

मारीश को मारकर राम घर लौट रहे थे, तभी रास्ते में वे लक्षण

से मिले। उन्हें वहाँ देख वे बहुत भयभीत हो गए। उन्हें विश्वास हो गया

कि लक्षण को किसी चाल में फॅसा लिया गया है और सीता असुरक्षित

छोड़ दी गई है। दोनों भाई बेचैनी से अपनी कुटिया की ओर दौड़े ।

कुटिया खाली और वीरान थी।

शोकाकुल राम और लक्षण घबराहट में समझ नहीं पा रहे थे कि

उन्हें क्या करना चाहिए। किंतु सौभाग्य से इंद्र वहाँ दृष्टिगोचर हुआ और

उसने उन्हें वह रास्ता दिखाया जिससे सीता को ले जाया गया था। दोनों

भाईयों ने उस रास्ते का अनुगमन करते हुए घायल शरीर वाले सतायु को

देखा। पक्षी ने उन्हें सीता की अंगूठी दी, सीता को ले जाने वाले दसकंठ

के बारे में बताया और फिर अपने प्राण त्याग दिए। कृतज्ञ राम ने एक

बाण मारा और उससे एक चिता बन गई। तब उन्होंने एक दूसरा बाण

चलाया और इसने उसका शरीर जला दिया

बाण मारा और इसने अआग को बुझा दिया।

अंत में उन्होंने एक तीसरा

इस अनोखे दाहसंस्कार के बाद

उन्होंने सतायु के बताए

दिशानिर्देश के अनुसार अपनी खोज दोबारा प्रारंभ की। जब उन्होंने कुछ

दूरी तय कर ली, उन्हें कुबल नाम का कोई राक्षस मिला। ईस्वर से

शापित होने के कारण उसके शरीर का केवल ऊपरी भाग ही था। उसके

शापित जीवन का अंत राम से मिलने पर ही हो सकता था। जब राम

और लक्षण उसकी बाहों की पहुँच में आ गए, उसने उन्हें तुरंत पकड़

लिया और उन्हें निगलने के लिए तैयार हो गया । लेकिन अपने शरीर में

एक विचित्र प्रकार के भय की सरसराहट का अनुभव करने पर वह समझ

गया कि जो आदमी उसकी पकड़ में है, वह साधारण आदमी नहीं है,

बल्कि उसके मुक्तिदाता राम हैं। उसने तुरंत अपनी पकड़ को ढीला कर

दिया और वे दोनों भाई उसकी भीषण जकड़ से बाहर आ गए। राम पर

4

3

वा. कबंध रामकीति, पृ 50

पड़ी विपत्त के बारे में जानकर उस राक्षस ने उन्हें खिडकिन जाने और

बाली से परामर्श करने की सलाह दी। कुंबल की सलाह से लाभान्वित

होकर राम ने अपना बाण चलाकर उसे कष्टदायक शापित जीवन से मुक्त

करने में उसकी सहायता की

रास्ते में उन्हें अशमूखी” नाम की एक राक्षसी मिली जिसे उन

दो राजकूमारों से देखते ही प्रेम हो गया। वातावरण को घने काले बादलों

से अंधकारमय करके, लक्षण को अपनी बाहों में लेकर वह आकाश में उड़

गई ताकि राम अपने भाई को उसकी जकड़ से छुड़ाने में सफल न हो

बाण की शक्ति ने सारे बादलों को छितरा दिया और

लक्षण को तब अपनी संकटपूर्ण स्थति के बारे में मालूम हुआ। उन्होंने

कुछ वैदिक मंत्रों का उच्चारण किया जिसने उस राक्षसी को लक्षण को

अपनी बाहों में लेकर धरती पर आने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने

उसकी बाहें काट दीं, तब अशमूखी अपना जीवन बचाने के लिए जंगल में

सकें। परंतु राम के

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में ये दोनों प्रसंग काफी मिलते -जुलते हैं । केवल इनकी

अभिव्यक्ति का अंतर ही समझ में आता है। वा. में अयोमुखी की घटना

पहले और कबंध का प्रसंग बाद में है, रा. में कुबंल का प्रसंग पहले और

अशमुखी की घटना बाद में है। ऐसा लगता है कि वा. का कबंध ही रा..

का कुंबल है और वा. की अयोमुखी ही रा. की अशमुखी है। घटनाकम

दोनों का एक जैसा है। वा. में कबंध सुग्रीव से भेंट के बारे में बताता है।

जबकि रा. में कुंबल बाली से भेंट के बारे में कहता है।

शबरी प्रसंग

44

यह घटना वाल्मीकि रामायण में

देखने को नहीं मिलती।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

कबंध के बताए माग्ग पर चलते हुए राम और लक्ष्मण ने पंपा

सरोवर के पास स्थत मतंग मुनि का एक सुंदर आश्रम देखा। कबंध ने

बताया था, ‘इसमें पहले मतंग मुनि के शिष्य रहते थे। कुछ समय के बाद

वे सब तो चले गए किंत् उनकी सेवा में सदा तत्पर रहने वाली तपस्विनी

शबरी आज भी वहाँ दिखाई देती है। शबरी चिरजीवनी होकर सदा धर्म के

अनुष्ठान में लगी रहतीहै। आप का दर्शन कर शबरी स्वर्गलोक चली

जाएगी। कबंध की इसी बात को ध्यान में रखकर राम ने पंपा सरोवर के

पश्चिमी

राम-लक्ष्मण को प्रणाम कर उनका विधिवत् स्वागत किया। राम ने उस

सिद्ध तपस्विनी से कई प्रश्न पूछे जिनका उत्तर देते हुए उसने कहा, ‘आप

देवेश्वर का यहाँ सत्कार हुआ, इससे मेरी तपस्या सफल हो गई

मुझे आपके धाम की प्राप्ति भी होगी ही । अंत में उसने स्पष्ट किया कि

धर्मज्ञ ऋषियों ने परम धाम को जाते समय कहा था कि इस पवित्र आश्रम

में राम जी जरूर आएंगे। वे लक्ष्मण के साथ उसके अतिथि होंगे। उनका

यथावत सत्कार करना। उनका दर्शन करके ही उसे श्रेष्ठ एवं अक्षय लोकों

की प्राप्ति होगी। अतः उसने उन लोगों के लिए पंपातट पर उत्पन्न होने

वाले नाना प्रकार के जंगली फल-मू्लों का संचय किया है।

पहुँचकर शबरी के आश्रम

को देखा। शबरी ने

तट

और

राम के अनुरोध पर शबरी ने सारे आश्रम को दिखाया और

उसके महत्व का वर्णन किया। तत्पश्चात उसने राम से अपनी देह का

परित्याग करने की अनुमति मांगी। राम ने उसे अपनी इच्छानुसार

आनंदपूर्वक अभीष्ट लोक की यात्रा करने की आज्ञा दी। शबरी अपने

शरीर को अग्नि में समर्पित कर स्वर्गलोक (साकेतधाम) चली गई।

रामकीर्ति के अनुसार

बगीचे के स्वामी बिरवा नामक राक्षस का वध करने के पश्चात्

उन दोनों विजेताओं और सीता ने वन में अ

पनी यात्रा फिर शुरू कर दी।

शीघ्र ही वे एक गुफा पर पहुँचे जहाँ सौवरी नाम की एक स्वर्गिक

अप्सरा रह रही थी, जिसे ईस्वर की सेवा में लापरवाही बरतने पर जलते

हुए जंगल के पास की गुपफा में एकाकी जीवन जीने के लिए शापित किया

गया था। उसे उसके शापित जीवन से मुक्ति केवल तभी मिल सकती थी

जब राम आयें और उस आग को बुझायें। इसलिए उसने राम से आग

बुझाने और एक दुखी प्राणी की भलाई के लिए दयापुर्ण याचना की। स

कृपालु राम ने उसकी याचना को तुरंत स्वीकार कर लिया और सौवरी को

पुनः स्वगिक आनंद का सुख भोगने में सहायता की।

अंत में वे ऋषि अगत 46 की कुटिया पर पहुँचे जिनके संरक्षण में

ईस्वर ने राम को देने के लिए अपना वह अस्त्र रखा था, जिसका उपयोग

उन्होंने त्रिपुरम के साथ युद्ध करते समय किया था। ऋषि से अस्त्र प्राप्त

करने के पश्चात् राम अपने भाई और पत्नी के साथ तब तक यात्रा करते

रहे जब तक कि वे गोदावरी नदी के किनारे नहीं पहुँच गए, जहाँ इंद्र ने

उनके निवास के लिए पहले से ही तीन कुटिया बना रखी थीं।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में यह प्रसंग अलग-अलग रूप से वर्णित है। यदि

रा. की सौवरी को शबरी माना जाए, तब इसकी तुलना की जा सकती है।

अन्यथा नहीं। वा. में यह प्रसंग सीता अपहरण के बाद में आया है तथा

रा. में यह प्रसंग इससे पहले है। वा. में वह मतंग मुनि की शिष्या के रूप

में वर्णित है, रा. में वह सौवरी नाम की एक स्वर्गिक अप्सरा है। अगत वा.

के अगस्त्य हैं। रा. में सौवरी को अगत की शिष्या नहीं बताया गया है।

इंद्र द्वारा राम आदि के निवास के लिए बनाई गई तीन कुटियों का जिक

भी वा. में नहीं है।

45

सौवरी शायद वाल्मीकि की शबरी है।

46

वा.

अगस्त्य

रामकी्ति पू 42

हनुमान की राम से भेंट

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

सीता की खोज करते-करते राम और लक्ष्मण पंपा सरोवर पर

पहुँच गए। ऋष्यमूक पर्वत पर विचरने वाले वानरराज सुग्रीव पम्पा के

निकट घूम रहे थे। उन्होंने श्रेष्ठ आयुध धारण किए वीर वेश में इन दो

अपरिचितों को वहाँ देखा तो उनके मन में भय हुआ कि हो न हो, इन्हें

उनके शत्रु वाली ने ही भेजा होगा। वे उद्धिग्न होकर चारों दिशाओं में

देखते हुए अपने चित्त को स्थिर न रख सके। उन्होंने अपने मंत्रियों के

साथ विचार कर अपनी दुर्बलता और शत्रुपक्ष की सबलता का निश्चय

किया। वे मंत्रियों से बोले, ‘निश्चय ही ये दोनं वीर वाली के भेजे हुए,

इस दुर्गम वन में विचवरते हुए यहाँ आए हैं। इन्होंने छल से चीर वस्तर

धारण कर लिए हैं जिससे हम इन्हें पहचान न सकें।’ लेकिन वीर हनुमान

ने उन्हें समझाते हुए कहा कि इस मलय पर्वत पर तो वाली ऋषि मतंग

के द्वारा दिए गए शाप के कारण आ ही नहीं सकता। हनुमान ने सुग्रीव

को समझाते हुए कहा, ‘बुद्धि और विज्ञान से संपन्न होकर आप दूसरों की

चेष्टाओं द्वारा उनका मनोभाव समझें और उसी के अनुसार सभी आवश्यक

कार्य करें; क्योंकि जो राजा बुद्धि -बल का आश्रय नहीं लेता, वह संपूर्ण

प्रजा पर शासन नहीं कर सकता। इस पर सुग्रीव ने उनसे साधारण वेश

में जाकर उन दोनों के बारे में पता लगाने के लिए कहा।

सुग्रीव के ऐसा कहने पर हनुमान तपस्वी वेश धारण कर राम और

लक्ष्मण के समीप जा पहुँचे और मन को प्रिय लगने वाली वाणी में

वार्तालाप करने लगे। उन्होंने पहले तो उन दोनों की यथोचित प्रशंसा की

और फिर उनसे बोले, ‘वीरो! आप दोनों सत्यपराक्रमी, राजर्षियों के समान

प्रभावशाली, तपस्वी तथा कठोर व्रत का पालन करने वाले जान पड़ते हैं।

आप दोनों वीर कौन हैं? बताइए आप दोनों का क्या परिचय है?’ लेकिन

कई बार पूछने पर भी जब दोनों ने अपने बारे में कुछ नहीं बताया तो

वाक्पटु हनुमान ने स्वयं ही धर्मात्मा और वीर सुग्रीव के बारे में बताया कि

उनके भाई वाली ने घर से निकाल दिया है, इसलिए वे भयभीत हुए

इस जगत् में मारे-मारे फिरते हैं। उन्हीं के

भेजने पर वह उन दोनों के

पास आए हैं। उन्होंने अपना नाम हनुमान और स्वयं को सुग्रीव का मंत्री

बताते हुए कहा कि सुग्रीव उनसे मित्र्रता करना चाहते हैं ।

हनुमान की यह बात सुनकर राम के मुख पर प्रसन्नता छा गई।

उन्होंने लक्ष्मण से इन परम विद्वान हनुमान से बात करने के लिए कहा।

लक्ष्मण ने हनुमान से बात करते हुए कहा, ‘”विद्वन्! हमें महामना सुग्रीव के

गुण ज्ञात हो चुके हैं। हम दोनों भाई भी वानरराज सुग्रीव की खोज में ही

यहाँ आए हैं। वे सुग्रीव के साथ मित्रता करने के लिए तैयार हैं। लक्ष्मण

की इस बात से हनुमान बहुत प्रसन्न हुए और दोनों भाईयों के साथ

उनकी मित्त्रता करवाने की इच्छा व्यक्त की।

रामकीर्ति के अनुसार

जब राम ने अशमुखी की बाहें काट दीं और वह जंगल में भाग

गई,

उसके बाद दोनों भाई पेड़ की ठंडी छाया में आ गए। संयोगवश

हनुमान उस पेड़ पर बैठे हुए थे। हनुमान ने दो अनजाने व्यक्तियों को पेड़

के नीचे बैठा देख उनके बारे में जानना चाहा। उनका ध्यान अपनी ओर

आकर्षित करने के लिए वे पेड़ की डाल को हिलाने लगे। राम उस समय

मीठी नींद का आनंद ले रहे थे और लक्षण उनकी सतर्क पहरेदारी कर

रहे थे। कहीं शाखाओं की हलचल उनकी नींद को बाधित न कर दे, इस

डर से लक्षण ने वानर को भगाने की कोशिश की, किंतु वह व्यर्थ रही।

जिद्दी वानर अब भी वहीं था और तीव्रता से डाल को हिला रहा

अंततः उन्होंने अपना धनुष-बाण उठा लिया। लेकिन वह उन्हें झपट कर

ले गया। अस्त्रविहीन हुए लक्षण हक्के-बक्के रह गए। एक वानर की इस

दुर्जेय शक्ति से चकित, उनके सामने राम को जगाने और जो कुछ हुआ

था, उसके बारे में बताने के अतिरिक्त और कोई रास्ता न था। राम ने

ऊपर देखा और पाया कि वानर के शरीर पर विशिष्ट चिन्ह हैं जैसे दोनों

कानों में कुंडल, दो चमर्ीले तीक्ष्ण दाँत (श्वदंत) और एक सफेद घुंघराला

बाल। हन्मान को उनकी माता ने बताया था कि ये चिह्न नारायण के

अतिरिक्त अन्य सभी के लिए अदृश्य रहेंगे। इसलिए जो कोई भी उनको

देख पाने में सक्षम होगा, वह अवश्य ही उनका अवतार होगा जिनकी सेवा

उन्हें ईमानदारी और निष्ठावा

न सिपाही की तरह करनी होगी।

जब हनुमान ने देखा कि उनके चिन्हों को पहचान लिया गया है,

तब वे जान गये कि पेड़ के नीचे लेटा हुआ आदमी नारायण का अवतार

है। अतः वह पेड़ से नीचे आए और स्वयं को राम की सेवा में समर्पित कर

दिया।

उल्लेखनीय बिंद

राम से हनुमान की भेंट का प्रसंग दोनों ग्रंथों में अलग-अलग तरीके

से वर्णित है। वा. में सुग्रीव के कहने पर हनुमान राम के पास जाते हैं, रा.

में वे पेड़ पर बैठे हैं और राम की नींद बाधित करने की कोशिश करते हैं।

वा. में हनुमान के शरीर पर पाए जाने वाले चिन्हों की कोई च्चवा नहीं है।

वा. में हनुमान सुग्रीव के मंत्री बताए गए हैं और अपनी वाक्पट्ता से

राम-लक्ष्मण को प्रभावित करते हैं जबकि रा. में ऐसा नहीं है।

राम की सुग्रव से भेंट

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

राम की बात सुनकर तथा सुग्रीव के विषय में उनका सौम्य भाव

जानकर हनुमान को बड़ी प्रसन्नता हुई। तब उन्होंने पंपा-तटवर्ती कानन

से सुशोभित इतने दुर्गम और भयंकर वन में आने का कारण पूछा। इस

पर लक्ष्मण ने उन्हें सारी बातें विस्तार से बताते हुए अंत में कहा कि वे

दोनों सुग्रीव की शरण में आए हैं और उन्हें अपना रक्षक बनाना चाहते हैं।

तदंतर हनुमान राम और लक्ष्मण दोनों को लेकर ऋष्यमूक पर्वत पर पहुँचे

और सुग्रीव से उन दोनों राजकुमारों का परिचय करवाया। हनुमान के

वचन सुनकर सुग्रीव अत्यंत दर्शनीय रूप धारण करके राम के पास आए

और बड़े प्रेम से राम के सामने मित्रता का हाथ बढ़ा दिया। राम ने भी

उनका हाथ पकड़ते हुए उन्हें अपनी छाती से लगा लिया। हनुमान ने

उनकी मित्रता के साक्षी के रूप में अग्नि को प्रज्ज्वलित किया। तब दोनों

ने अग्नि की परिक्मा की और एक -दू

सरे के मित्र बन गए ।

सुग्रीव ने उन्हें वाली द्वारा घर से निकाले जाने और उनसे

उनकी पत्नी छीन लेने वाली पूरी कहानी बताई । राम ने उ्हें आश्वस्त

करते हुए कहा कि वे उनकी पत्नी का अपहरण करने वाले वाली का वध

अवश्य करेंगे। उसके बाद सुग्रीव ने स्पष्ट किया कि उन्हें भी उनकी पत्नी

शीघ्र ही प्राप्त होगी। उन्होंने राम को सीता द्वारा फेंके गए आभूषणों के

बारे में बताते हुए वे आभूषण भी दिखाए। लेकिन उस हरण करने वाले

राक्षस को पहचानने में अपनी असमर्थता जताई। परंतु यह जानने पर कि

रावण द्वारा सीता का हरण कर लिया गया है, सुग्रीव ने उन्हें उस राक्षस

का वध करने के बारे में आश्वस्त किया।

अब राम ने सुग्रीव से उन दोनों के बीच वैर का कारण पूछा।

सुग्रीव ने बताया कि वाली उसके बड़े भाई हैं, उनमें शत्रुओं का संहार

करने की बड़ी शक्ति है। पिता की मृत्यु के बाद मंत्रियों ने उन्हें ज्येष्ठ

समझ कर राजा बना दिया।

उन दिनों मायावी नामक एक तेजस्वी दानव रहता था, जो मय

उसके साथ वाली का स्त्री

दानव का पुत्र और दुंदुभि का बड़ा भाई था

के कारण वैर हो गया। एक दिन आधी रात के समय जब सब लोग सो

गए, मायावी किष्किंधापुरी के दरवाजे पर आया और कोध से भरकर गर्जने

और वाली को ललकारने लगा। ललकार को सहने में असमर्थ वाली उसे

मारने के लिए दौड़ा, वह भी उसके साथ ही उसके पीछे दौड़ा। किंतु

राक्षस एक बड़े बिल में घुस गया। शत्रु को बिल में घुसा देख वाली के

कोध की सीमा न रही। वाली ने उससे कहा कि जब तक वह शत्र को

मारकर नहीं आ जाता, तब तक वह बिल के दरवाजे के पास खड़ा रहे,

यह कहकर वह बिल के अंदर चला गया। वाली को अंदर गए जब एक

साल से भी अधिक समय हो गया तो उसके मन में वाली के मारे जाने

की आशंका होने लगी। तदंतर दीर्घ काल के पश्चात् उस बिल से सहसा

फेन सहित खुन की धारा बह निकली और उसी समय गरजते हुए अस्रों

की आवाज भी उसके कानों में सुनाई पड़ी युद्धरत बड़े भाई की गर्जना

वह सुन न सका। फिर वह बिल के दरवाजे पर पर्वत के समान चट्टान

रखकर भाई को जलांजलि देकर वाप

स लौट आया और मंत्रियों ने

मिलकर उसे राजा बना दिया। कुछ समय बाद राक्षस को मारकर वाली

जब किष्किन्धा पहुँचा और राजा के रूप में उसे अभिषिक्त हुआ पाकर वह

आग

निर्दयतापूर्वक घर से निकाल दिया, साथ ही उसकी स्त्री को भी उससे

छीन लिया। अब वह वाली के भय से इस ऋष्यमृक पर्वत पर आकर छिप

गया है। मतंग मुनि द्वारा शापित किए जाने के कारण वाली इस पर्वत पर

आ नहीं सकता । सुग्रीव की सारी कथा को सुनकर राम ने वाली का वध

करने, उसे उनकी पत्नी तथा राज्य दिलाने की प्रतिज्ञा की।

बबूला

हो

उठा। वाली

उसकी

न सुनी और उसे

रामकीर्ति के अनुसार

जब हनुमान ने राम की दर्दभरी कहानी सुनी, उन्होंने उनका

अपने मित्र सुग्रीव से परिचय करवाना उचित समझा जो उस समय अपने

भाई बाली द्वारा अपमानित और निर्वासित था ये बाली की कुछ शंकाएं

ही थीं कि सुग्रीव को इतना कष्ट सहना पड़ा। सुग्रव ने राम को बाली

और स्वयं के बीच हुए वैर से संबंधित पूरी कहानी इस प्रकार सुनाई-

कैलास प्वत का एक द्वार नंदकला नामक राक्षस की देख-रेख

में था। एक दिन ईस्वर की उप पत्नियों में से एक फूल चुनने के लिए

बगीचे में गई

वाली के रूप-सौंदर्य पर आकर्षित हो वह राक्षस उससे प्रेम करने लगा।

काफी समय तक उसने अपनी भावनाओं को अपने अंदर ही दबाए रखा।

लेकिन इस बार वह अपनी भावनाओं को नियन्त्रित न कर सका, उसके

ध्यान को आअपनी ओर खींचने के लिए उसने उसके ऊपर एक फूल फेंका।

दुर्भाग्यवश वह किशोरी न तो प्रेम करने में और न ही उसका जबाब देने

की मनःस्थिति में थी। अतः उसके प्रेम प्रदर्शन ने केवल उसे कुद्ध करने

का ही काम किया। अत्यंत कुद्ध होकर वह ईस्वर के पास वापस गई और

उसके विरुद्ध शिकायत की। ईस्वर उसकी इस धृष्टता पर बहुत नाराज

हुआ। अतः उसने उसे दराबा नाम के भैंसे के रूप में जन्म लेने का शाप

दे दिया। फिर भी वह अपनी पूर्व स्थिति को तभी प्राप्त कर सकेगा जब

वह अपने ही पुत्र दराबी के द्वारा मारा जाएगा।

फूलों से भरे पेड़ों के बी

च, उस प्रसन्नचित्त होकर घूमने

तदनुसार नंदकला ने कैलास में अपना अधिकार गँवा दिया और

उसने भैंसे के रूप में जन्म लिया। कुछ ही समय में वह एक बड़े झुंड का

मुखिया बन गया और उसने अतुलनीय शक्ति प्राप्त कर ली। जीवित रहने

की स्वाभाविक प्रवृत्ति ने उसे भैंसे के जीवन को त्यागने और कैलास

वापस लौटने के लिए प्रेरित नहीं किया। इसलिए जब कभी उसके एक

पांडा पैदा होता, वह उसे तुरंत मार देता और इसप्रकार अपने उद्धारक से

छुटकारा पा लेता। उसके इस कठोर व्यवहार ने उन सभी गायों को बहुत

दुख पहुँचाया जिनका वह मुखिया था। इसलिए, एक बार जब एक गाय

को उसके द्वारा दूसरे बच्चे के गर्भधारण करने के लक्षण दिखाई दिए, वह

एक गुफा में चली गई, ताकि वह अपने छोटे बच्छचे को अपने ही पिता

द्वारा कुचल कर मार डालने से बचा सके। पांडा अपने समय पर पैदा

हुआ और उसका नाम दराबी” रखा गया। उसकी माता ने उसके पिता

के विषादपूर्ण अतीत के बारे में बताया और उसे देवताओं के संरक्षण में

छोड़ दिया।

जब वह युवा हुआ, उसने अपने पिता से बदला लेने का निश्चय

किया। इसलिए यह जानने के लिए कि क्या वह शरीर में अपने पिता के

समान हो गया है, उसने अपने पदचिन्हों को अपने पिता के पदचिन्हों से

मापा। जब उसने देखा कि दोनों ही पदचिन्ह समानाकार के हैं, तो उसे

इस बात का विश्वास हो गया कि उसका शरीर उसके पिता के शरीर से

आकार में कम नहीं है। तब वह बाहर निकला और अपने पिता को अंतिम

सांस तक लड़ने के लिए ललकारा। ईस्वर की भविष्यवाणी के अनुसार,

दराबा अपने पुत्र दराबी द्वारा मृत्यु को प्राप्त हुआ।

अपनी पहली लड़ाई में विजयी होने पर दराबी के घमंड की

कोई सीमा न रही। वह बहुत अधिक आकामक हो गया

और उसने

हिमालय वन के अधिष्ठाता देवताओं को चुनौती दे दी। उन्होंने उसे

पंकगिरि के देवताओं को चुनौती देने की सलाह दी। अतः वह वहाँ गया,

47

वा. दुंदुभि । वाल्मीकि रामायण के अनुसार वह एक राक्षस था। वाली ने एक लड़की

के लिए उससे युद्ध किया

था। रामकीर्ति पृ सं. 54,

किंतु उन्होंने उसे समुद्र के देवता को चुनौती देने के लिए कहा । किंतु

देवता उससे लड़ने के लिए तैयार नहीं हुए, बल्कि उन्होंने उसे ईस्वर के

पास, यह कह कर भेज दिया कि वे ही उसकी लड़ाई की प्यास को बुझा

सकेंगे। ईस्वर ने अपनी बारी आने पर उसे बाली के पास भेज दिया,

क्योंकि उसके हाथों से वह अपनी मृत्यु को प्राप्त करेगा और बाद में वह

खर के पूत्र के रूप में जन्म लेगा जिसका नाम मंकरकंठ होगा और अंत

में वह राम के बाण द्वारा मारा जाएगा।

अतः वह बाली के पास गया और उसे चुनौती दी। दोनों के बीच

युद्ध एक खुले मैदान में हुआ और वह बराबरी पर समाप्त हुआ। फिर

बाली ने उससे सुबह के समय एक गुफा में युद्ध पुनः शुरु करने के लिए

कहा। दराबी सहमत हो गया। इसलिए अगली सुबह वे एक निर्धारित

गुफा में मिले और अधूरी लड़ाई फिर से शुरु कर दी। लेकिन गुफा के

लिए चलने से पहले बाली ने सुग्रीव से गुफा के द्वार पर प्रतीक्षा करते

रहने और बहते हुए खून को ध्यान से देखते रहने के लिए कहा। यदि

खून गहरे रंग का हुआ तो उसका मतलब दराबी की मृत्यु। लेकिन इसके

विपरीत यदि खून हल्के रंग का हुआ तो इसका अथर्थ उसकी अपनी मृत्यु।

उस दशा में सुग्रीव गुफा के मुँह को बंद कर दे ताकि संसार को उसकी

शर्मनाक हार का पता न लगे। सात दिन तक वे युद्धरत रहे, लेकिन

विजय किसी के हाथ न लगी। अंत में बाली ने उसकी शक्ति को खत्म

करने के लिए उसे जाल में फँसाने के बारे में सोचा। उसने दराबी से

पूछा कि उसने इतनी अधिक शक्तित के भंडार को कैसे प्राप्त किया। आपने

अहंकार के नशे में उन्मत्त वह देवताओं द्वारा की गई सहायता के प्रति

कृतज्ञता को भूल गया और उत्तर दिया कि उसके सींग ही उसकी शक्ति

के मूल कारण हैं। बाली ने सभी देवताओं को उसकी अकृतज्ञता के बारे

में बता दिया और उन्हें उसका साथ छोड़ने के लिए प्रेरित किया।

देवताओं द्वारा त्याग दिए जाने पर दराबी बाली के भीषण प्रहार का

सरलता से शिकार होकर मृत्यु

को प्राप्त हो गया।

संयोग की बात है कि उस समय बारिश 18 हो रही थी और पानी

के मिलने से उसका गाढ़ा खून हल्के रंग का दिखाई पड़ने लगा। इसलिए

सुग्रीव ने इसे भूलवश अपने भाई का खून समझ लिया। अतः उसके

आदेशानुसार, उसने गुफा का द्वार बंद कर दिया और चला गया।

जहाँ तक बाली का संबंध है, उसने दराबी का सिर काट दिया

और गुफा के द्वार पर आया। जब उसने इसे बंद देखा, वह यह सोचकर

कोधोन्मत्त हो गया कि सुग्रीव उसे उसके सिंहासन से वंचित करना चाहता

है। कोध में आकर बाली ने दराबी के सिर को द्वार को बंद करने वाले

पत्थर पर दे मारा जिससे उसे तुरंत रास्ता मिल गया। वह अपने महल

वापस आया और सुग्रीव को उस अपराध के लिए, जो उसने कभी नहीं

किया था, निर्वासित कर दिया। अपने भाई के दरबार से निर्वासित हुआ

सुग्रीव जब जंगल में भटक रहा था, उसकी भेंट हनुमान से हुई और उन

दोनों ने जंगल में अपना एक निवास बना लिया। जहाँ तक दराबी का

संबंध है, उसने दसकंठ और रजतासुर के छोटे भाई खर के पुत्र के रूप

में जन्म ले लिया।

सुग्रीव ने आपनी दुखभरी कहानी राम को बताई, उन्होंने उसके

प्रति बहुत खेद व्यक्त किया। अंत में उन्होंने परस्पर एक समझौता किया

कि बाली के खिलाफ युद्ध में राम सुग्रीव की सहायता करेंगे और सूग्रीव

सीता की खोज करने और दसकंठ को पराजित करने में राम की सहायता

करेगा।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में कथा थोड़ा-सा अंतर लिए है। वा. में सुग्रीव और

वाली के बीच हुए वैर का कारण वाली का मायावी से हुआ युद्ध था,

जबकि रा में बाली का दराबी से युद्ध हुआ था। वा. का मायावी रा. का

दराबी है।

48

फिर भी बारिश का कुछ संदर्भ हमें बंगाली रामायण में मिलता है

। रामकीर्ति पू सं.

55

यहाँ पाठकों की जानकारी के लिए यह स्पष्ट करना उचित रहेगा

कि वा. में वाली का युद्ध दो असुरों से हुआ वर्णित है। उसका पहला युद्ध

दुंदंभि से हुआ था जिसके कारण उसे मतंग ऋषि का शाप मिला था और

दूसरा युद्ध मायावी से हुआ था जिसका वर्णन ऊपर किया गया है।

पहले युद्ध का वर्णन इसप्रकार है- दुंदंभि एक असुर था, जो भैँसे के

रूप में दिखाई देता था और बहुत बलशाली था। बल के घमंड से भरा

हुआ दुंदंभि अपने को मिले वरदानों से मोहित हो समुद्र से युद्ध करने के

लिए गया। समुद्र ने उससे लड़ने से मना कर दिया और उसे हिमवान् से

लड़ने के लिए भेज दिया। हिमवान ने भी स्वयं को उससे लड़ने में

असमर्थ बताया और उसे देवराज इंद्र के पुत्र वाली के पास भेज दिया।

दुंदुभि की ललकार को वाली सह न सका। कोध के आवेश से युक्त हो,

एक-दूसरे को जीतने की इच्छा रखने वाले उन दोनों में घोर युद्ध होने

लगा। अंत में वाली ने दुंदंभि को पृथ्वी पर दे मारा, साथ ही उसे अपने

शरीर से दबा दिया, जिससे दुंदंभि पिस गया और उसके शरीर से रक्त

बहने लगा। उसके प्राणों के निकल जाने पर वाली ने उसे वेगपूर्वक एक

योजन दूर फेंक दिया जिससे उसके शरीर के रक्त की बहुत-सी बूंदें

मतंग मुनि के आश्रम में जा गिरीं। उन्हें देख ऋषि ने उसे उस पर्वत पर

प्रवेश न कर सकने का शाप दे दिया।

रा. में बाली और दराबी के बीच हुए युद्ध के वर्णन में मूल रामायण

के ‘वाली और दुंदंभि तथा ‘वाली और मायावी’ दोनों युद्धों का मिश्रण

किया गया है। इसीलिए दुंदंभि और दराबी के बीच भ्रम की स्थिति बनी

है। रा. में युद्ध का परिणाम तथा अगले जन्म में होने वाली घटना को

बताया गया है, वा. में ऐसा नहीं है। वा. में बारिश का कोई वर्णन नहीं है।

वाली

वध

वाल्मी

कि रामायण के अनुसार

सुग्रीव ने राम को दुंदुभि और बाली के मध्य हुए युद्ध की कथा

सुनाकर वाली के पराक्रम के बारे में बताया और राम के पराक्म के बारे

में जानने की इच्छा व्यक्त की। सुग्रीव ने राम से साल के सातों वृक्षों में

से किसी एक को लक्ष्य करके बींधने के लिए कहा। सुग्रीव के वचनों को

सुनकर राम ने एक बाण सालवृक्ष की ओर लक्ष्य करके छोड़ दिया और

वह बाण वहाँ पर खड़े सात साल वृक्षों को एक ही साथ बींधकर पर्वत

तथा पृथ्वी के सातों तलों को छेदता हुआ पाताल में चला गया जिसे देख

कर सुग्रीव मन ही मन प्रसन्न हो गया। अब उसे विश्वास हो गया कि

राम उसकी पत्नी तथा उसका विशाल राज्य उसे अवश्य दिला देंगे।

सुग्रीव ने राम से उस दिन ही वाली का वध कर डालने का निवेदन

किया। तब राम ने सूग्रीव से किष्किधा जाकर वाली को ललकारने के

लिए कहा और वे स्वयं एक वृक्ष की आड़ में छिपकर खड़े हो गए। दोनों

में बड़ा भयंकर युद्ध होने लगा। वे दोनों भाई कोधावेग से एक -दूसरे पर

तमाचों और धूँसों का प्रहार करने लगे। उसी समय राम ने धनुष आपने

हाथ में लिया और उन दोनों की ओर देखा। दोनों एक दूसरे से काफी

मिलते-जुलते थे। अतः वाली को पहचानने में असमर्थ राम ने बाण का

प्राणांतकारी प्रहार नहीं किया। इस बीच वाली ने सुग्रीव के पैर उखाड़

दिए और वह पर्वत की ओर लौट आए । हारे हुए सुग्रीव ने वापस लौट

कर अत्यंत दीन भाव से राम से अपने मन की बात कही। तब राम ने

उसका कारण बताते हुए इस बार पहचान के लिए सुग्रीव के गले में

गज-पुष्षीलता डाल दी और फिर उसे वाली पर आक्ृमण करने के लिए

भेजा और कहा, ‘तुम इसी मुहर्त में वाली को मेरे एक ही बाण का निशाना

बनकर धरती पर पड़ा देखोगे।

राम की बात सुनकर सुग्रीव ने आकाश को विदीर्ण-सा करते हुए

कठोर वाणी में भयंकर गर्जना की। उसकी गर्जना को सुनकर वाली को

बड़ा ही कोध आया। अपनी पत्नी तारा के द्वारा रोके जाने पर भी वाली न

रुका और चलते हुए उसने यही कहा, ‘जो कभी परास्त नहीं हुए और

जिन्होंने युद्ध के अवसरों पर कभी पीठ नहीं दखाई, उन शूरवीरों के लिए

शत्रु की ललकार सह लेना मृत्यु से भी ब

ढ़कर दुःखदाई होता है। यह

कहकर वह सुग्रीव के समक्ष जा पहुँचा और उनके बीच पुनः भयंकर युद्ध

होने लगा। वानरराज सुग्रीव को कमजोर देख राम ने वाली के वध की

इच्छा से अपने बाण को धनुष पर रखकर जोर से छोड़ दिया। उस बाण

से वेगपूर्वक आहत हो वानरराज वाली तत्काल पृथ्वी पर गिर पड़ा।

इसप्रकार श्रीहीन और अचेत हो वह धराशायी हो गया और धीरे -धीरे

आर्तनाद करने लगा

जब महापराक्ृमी राम और लक्ष्मण उस वीर वाली का विशेष सम्मान

करते हुए उसके पास पहुँचे तो राम से उसने धर्म और विनय से युक्त

कठोर वाणी में अधर्मपूर्वक किए गए बाण के प्रहार का कारण पूछा,

‘काकुत्स्थ! मैं सर्वथा निरपराध था तो भी यहाँ मुझे बाण मारने का घृणित

कर्म करके सत्पुरुषों के बीच आप क्या कहेंगे ? यदि आप युद्धस्थल में मेरी

दुष्टि के सामने आकर मेरे साथ युद्ध करते तो आज मेरे द्वारा मारे जाकर

सूर्यपुत्र यम देवता का दर्शन करते होते। मेरे स्वर्गवासी हो जाने पर

सुग्रीव जो यह राज्य प्राप्त करेगा, वह तो उचित ही है। अनुचित इतना ही

हुआ है कि आपने मुझे रणभूमि में अधर्मपूर्वक मारा है। इतना कहकर वह

चुप हो गया। राम ने उसे दंड का कारण बताते हुए कहा, ‘तुम सनातन

जो तुम्हारी

पुत्रवधु के समान है, कामवश उपभोग करते हो। वानरराज! जो लोकाचार

से भ्रष्ट होकर लोकविरुद्ध आचरण करता है, उसे रोकने या राह पर लाने

के लिए मैं दंड के सिवा और कोई उपाय नहीं देखता हूँ । इससे वाली के

मन में बड़ी व्यथा हुई। उसने राम से यही कहा, ‘नर्श्रेष्ठ! आप जो कुछ

कहते हैं, बिल्कुल ठीक है; इसमें संशय नहीं है। इसप्रकार कहते हुए राम

के दोष का चिंतन त्याग उसने राम से अपने पुत्र को शरण में लेने की

प्रार्थना की, सुग्रीव से तारा को स्वीकारने और उसकी बात मानने के लिए

हुए कहा, ‘बेटा! अब

देश-काल को समझो-कब और कहाँ कैसा बत्ताव करना चाहिए, इसका

निश्वय करके वैसा ही आचरण करो। समयानुसार जो कुछ प्रिय या

सुख-दुख-जो कुछ आ पड़े, उसको सहो। अपने हदय में क्षमा

भाव रखो और सदा सुग्रीव की आज्ञा के अधीन रहो। किसी के साथ

अत्यंत प्रेम न करो और प्रेम का अभाव भी न होने दो; क्योंकि ये दोनों ही

धर्म का त्याग करके अपने छोटे भाई की पत्नी रूमा का,

साथ ही अपने पु

त्र अंगद को समझाते

अप्रिय,

महान दोष हैं। अतः मध्यम स्थिति पर ही दृष्टि रखो।

के आघात से अत्यंत घायल हुए वाली की ऑँखें घूमने लगीं। उसके

भयंकर दॉत खुल गए और फिर उसके प्राण पखेरु उड़ गए । राम ने

सुग्रीव, अंगद और तारा को उचित संस्कार करने की आज्ञा दी। इसके

बाद सुग्रीव को किष्कंधा का राजा और अंगद को उसका युवराज बना

दिया गया।

ऐसा कहकर बाण

रामकीर्ति के अनुसार

चूंकि राम के मन में खिडकिन के राजा के प्रति कोई द्वेष-भाव

नहीं था, इसलिए बाली का वध करने के लिए सुग्रीव की सहायता करने

को लेकर वे धर्मसंकट में थे। सुग्रीव ने उनके इस संकोच को भाँप लिया।

उनके इस द्ंद्द को शांत करने के लिए, उसने राम को बताया कि बाली

ने कैसे अपनी प्रतिज्ञा तोड़ी थी और उसकी धर्मपरायण पत्नी तारा का

हरण किया था, और ऐसा करने से उसने नारायण के बाणों से मृत्यु को

आमंत्रित कर लिया था।

इसे सुनकर राम अपने धर्मसंकट से उबर गए और सहर्ष उसकी

मदद को तैयार हो गए। चूंकि बाली को ईस्वर से एक वरदान प्राप्त था

जिसकी वजह से जो कोई उसरसे लड़ेगा, अपनी आधी शक्ति खो देगा।

इस विचार से कि सुग्रीव को कोई हानि न पहुँचे, राम ने पानी लिया,

अपने

बाणों को उसमें डुबोया और उस जल को सुग्रीव के सिर पर

छिड़क दिया।

तब राम और सुग्रीव खिडकिन पहुँचे और सुग्रीव ने बाली को अकेले

लड़ने की चुनौती दी। बाली ने चुनौती स्वीकार की और दोनों के बीच

युद्ध शुरु हो गया। दोनों भाई अपनी चाल-ढाल में इतने अधिक

मिलते-जुलते थे कि राम के लिए अपने शिकार को पहचानना बहुत

कठिन हो गया। बहुत जल्दी बाली ने सुग्रीव पर काबू पा लिया और

चकृवाल पर्वत पर फेंक कर मारा। किंतु पवित्र जल ने किसी भी प्रकार

की

हानि से उसकी रक्षा की।

वापस लौटने पर उसने राम को अपनी प्रतिज्ञा को पूरी न करने के

लिए भला-बुरा कहा। राम ने बाली को न पहचान सकने की अपनी

असमर्थता के बारे में उसे बताया। इस बार उन्होंने अपने कपड़े का एक

टुकड़ा फाड़ा और पहचान चिन्ह के रूप में उसे सुग्रीव की कलाई पर

बाँध दिया।

अगले दिन, जैसे ही युद्ध शुरु हुआ, राम ने बाली पर बाण चला

दिया। वानरराज बाण को पकड़ने में काफी दक्ष था। अपने मारने वाले को

एक धर्मात्मा के रूप में देखकर, उसने अपवित्र कार्य के लिए उनकी तीक्ष्ण

भत््सना की। इस पर राम ने नारायण का रूप धारण कर लिया और उसे

उसकी प्रतिज्ञाभंग के बारे में बताया।

बाली भयभीत हो गया। वह समझ गया कि अब उसके प्रतिफल का

दिन आ चूुका है। इसलिए उसने सुग्रीव, अंगद और हनुमान को राम को

समर्पित कर दिया और अपना अंत करने के लिए तैयार हो गया। राम ने

उसकी कमी का अनुभव किया, वे उसे मरने नहीं देना चाहते थे। उन्होंने

बाली से खून की आधी बूंद देने के लिए कहा ताकि वे अपने ब्रह्मास्त्र की

पूजा कर सकें और बाली के शाप को काट सकें, किंतु ऐसा करने पर

उसके शरीर पर बाल के सातवें भाग जितना छोटा दाग रह जाएगा।

लेकिन इंद्र के बेटे बाली को तो शर्मनाक दाग की अपेक्षा मृत्यु अधिक

प्रिय थी। वह देवताओं के बीच हुँसी का पात्र बना देने वाले ऐसे प्रस्ताव

से कैसे सहमत हो सकता था। अपने निश्चय पर अडिग बाली ने सुग्रीव

को परामर्श दिया कि उसे राम के प्रति अपना व्यवहार कैसा रखना

चाहिए। तब उसने एक बाण लिया और अपने ह्ृदय को चीर कर अपनी

पराकमी ऑँखें सदा के लिए बंद कर लीं।

उल्लेखनीय बिंदु

इस घटना के संबंध में दोनों ग्रंथों में काफी भिन्नता है। वा. में

सुग्रीव की बात सुनकर राम ने स्वयं वाली को मारने का निर्णय लिया।

उनके बाण के लग जाने पर वाली की मृत्यु हुई। रा. में राम को बाली को

मारने में संकोच हुआ क्योंकि उसने राम के प्र

ति कोई दुर्यवहार नहीं

किया था। तब सुग्रीव ने राम को बताया कि किस तरह बाली ने अपनी

प्रतिज्ञा भूलकर उसकी पत्नी तारा को अपनी पत्नी बनाया और प्रतिज्ञा

भूलने पर बाली ने राम के बाणों से मृत्यु का आलिंगन करने की बात

कही थी। इस बात की याद दिलाने पर वे उसे मारने के लिए तैयार हुए।

राम के द्वारा सुरक्षा कवच के रूप में पानी छिड़कने का वर्णन वा. में नहीं

है। राम द्वारा छोड़े गए बाण को वीर बाली ने रोक लिया। राम के द्वारा

जीवन देने की बात को भी उस स्वाभिमानी बाली ने अस्वीकार कर दिया

और फिर एक बाण लेकर अपने हृदय को चीर कर अपनी पराक मी आँखें

सदा के लिए बंद कर लीं । इसप्रकार का वर्णन वा. में नहीं है।

युद्ध की तैयारी

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

वाली की मृत्यु के पश्चात् किष्किंधा के राज्य पर सुग्रीव का

राज्याभिषेक किया गया और युवराज के पद पर अंगद का अभिषेक किया

गया। उसके बाद के चार मास वर्षा ऋत् के थे और उन दिनों में राजा

युद्ध नहीं करते थे, अतः सुग्रीव को उसकी सुंदर नगरी में भेजकर राम

स्वयं लक्ष्मण के साथ प्रस्वण गिरि पर रहने लगे। चातुमस बीत जाने पर

और स्वच्छ आकाश के दिखाई पड़ने के बावजूद सुग्रीव को स्वेच्छाचारी

हुआ देख, शासत्र के निश्चित सिद्धांत को मानने वाले वाक्पटु हनुमान ने

उन्हें राम के प्रति उनके कर्तव्य की याद दिलाते हुए कहा, ‘राजन! आपने

राज्य और यश तो प्राप्त कर लिया और कुल परंपरा से प्राप्त लक्ष्मी को

भी बढ़ाया; किंतु अभी मित्रों को अपनाने का कार्य शेष रह गया है, उसे

आपको इस समय पूर्ण करना चाहिए।. ..अतः आप आज्ञा दीजिए कि

कौन कहाँ से आपकी किस आज्ञा का पालन करने के लिए उद्योग करे।

हनुमान की बात सुनकर परम बुद्धिमान सुग्रीव ने राम का कार्य सिद्ध

करने का निश्चय किया। इघर राम आकाश को मेघों से मुक्त हो जाने पर

भी सुग्रीव के द्वारा किसी प्रकार का कोई कार्य न होते देख सोचने लगे,

सुग्रीव काम में आसक्त हो रहा है, जनककु

मारी सीता का अब तक कुछ

पता नहीं लगा है और लंका पर चढ़ाई करने का समय भी बीता जा रहा

है। इस तरह का विचार करने पर उन्होंने लक्ष्मण को किष्किंधापुरी भेजा

और सुग्रीव से यह कहने के लिए कहा, ‘जो बल-पराक्रम से संपन्न तथा

पहले ही उपकार करने वाले कार्यार्थी पुरुषों को प्रतिज्ञापूर्वक आशा देकर

पीछे उसे तोड़ देता है, वह संसार के सभी पुरुषों में नीच है। यह सुन

सुग्रीव के उपेक्षित व्यवहार से कुद्ध होकर लक्ष्मण सुग्रीव की नगरी में

पहुँचे और अपने धनुष पर टंकार दी जिसकी ध्वनि से समस्त दिशाएं गूँज

उर्ठीं। धनुष की टंकार को सुन सुग्रीव समझ गए कि लक्ष्मण यहाँ तक आ

गए हैं जिससे वे मन ही मन घबरा गए। उन्होंने लक्ष्मण को प्रसन्न करने

के लिए तारा को भेजा। तारा ने धर्मयुक्त बातों से उनको मना लिया।

फिर सुग्रीव ने सामने आकर उनसे क्षमा प्रार्थना की और पास खड़े

हनुमान से महेंद्र, हिमवान, विंघ्य, कैलास तथा श्वेत शिखर वाले मंदराचल

पर्वत के शिखरों पर तथा विविध दिशाओं में रहने वाले श्रेष्ठ वानरों को

शीघ्र बूला लाने के तलिए कहा। फिर तीन करोड़ वानरों की सेना को साथ

लेकर वे लक्ष्मण के साथ शिविका पर सवार होकर राम के पास पहुँचे।

रामकीर्ति के अनुसार

बाली के दाह-संस्कार के बाद, सुग्रीव ने राम को खिडकिन आने के

लिए आमंत्रित किया किंत् राम ने निमंत्रण को स्वीकार नहीं किया।

इसलिए सुग्रीव ने उन्हें गंधमास की तलहटी में रहने की सलाह दी,

जबकि वह सेना लाने के लिए खिडकिन चला गया।

गंधमास में रहते हुए राम एक मोर से मिले जिसने उन्हें सीता

और उस वानर के बारे में खबर दी जिसके पास सीता ने अपना दुपट्टा

यह निवेदन करते हुए नीचे फेंका था कि वह इसे राम के पास पहुँचा दे।

सात दिनों तक राम सुग्रीव की प्रतीक्षा करते रहे लेकिन उसके

लौटने का कोई लक्षण दिखाई नहीं दे रहा था। अंत में लक्षण उसकी

तलाश में गए। सुग्रीव ने लक्षण को सूचित किया कि सारा देश इस समय

अस्त-व्यस्त है और लोगों को व्यवस्थित करने में समय लगेगा। फिर भी

उसने वचन दिया कि वह राम से

मिलने अगले दिन जाएगा।

सुबह होने पर सुग्रीव और हनुमान ने राम की कुटिया की ओर

प्रस्थान किया। गंधमास पहूँचने पर, सुग्रीव ने अपना भय व्यक्त किया कि

राजा जम्बु, जो बाली का मित्र था, अपने मित्रर का बदला लेने के लिए

कहीं खिडकिन की जनता को बहका न दे

पास बुलाने के लिए एक पत्र भेजा। जम्बु ने पत्र प्राप्त किया लेकिन उसे

इसकी प्रामाणिकता पर विश्वास नहीं हुआ। इसलिए उसने स्वयं उपस्थित

होने के स्थान पर अपनी निष्ठा का संदेश भेजा। लेकिन इससे हनुमान

संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने अपनी माया से महल के सभी लोगों को गहरी

नींद में सुला दिया। फिर जिस पलंग पर राजा विश्राम कर रहा था,

उन्होंने उसे उठा लिया और राम के सामने ले आए।

राम ने उस राजा को अपने

जब जम्बू जागा और राम को नारायण के रूप में देखा, उसने स्वयं

को उनकी सेवा में समर्पित करने में जरा भी संकोच नहीं किया।

सुबह

होने पर जब राजा जम्बु की पत्नी ने अपने

पति

को

रहस्यमय तरीके से गायब पाया, वह तुरंत समझ गई कि उसे हनुमान

द्वारा उठा कर ले जाया गया है। इसलिए उसने राजा के भर्तीजे निलाबद

से अपने चाचा की खोज में जाने के लिए कहा

एक मक्खी के रूप में बदल लिया। वह वहाँ उड़ कर पहुँच गया जहाँ

जम्बु बैठा हुआ था और उसके कान में धीरे से राजधानी से उसके गायब

होने का कारण पूछा। राजा ने उसे सब कुछ बता दिया और आगे कहा

कि चूँकि वह नारायण के उद्देश्य के लिए काम कर रहा है, इसलिए

अपनी राजधानी नहीं लौट सकता

मिलवाया। निलाबद राम की सेवा करके खुश था, फिर भी वह हनुमान के

प्रति पाले गए विद्वेष को नहीं त्याग पाया।

अतः उसने अपने को

तब उसने अपने भतीजे को राम से

को

राम ने तब सुग्रीव और निलाबद को अपनी- अपनी राजधानियों में

लौट जाने और सेनाएं लाने की सलाह दी। बूढ़े जम्बु को उन्होंने अपनी

राजधानी वापस जाने और अपने देश के साथ-साथ खिडकिन पर भी

सुग्रीव के प्रतिनिधि के रूप में शासन करने की सलाह दी क्योंकि सु

ग्रीव

को सेना के साथ जाना था।

कुछ ही समय में निलाबद के नेतृत्व में जम्बु की सेना और सुग्रीव के

नेतृत्व में खिडकिन की सेना ने ‘अठारह मुकुटों के नाम से प्रसिद्ध अठारह

सेनापतियों के साथ मिलकर गंधमास की तलहटी में अपना डेरा डाल

दिया।

उल्लेखनीय बिंदू

वा. में चातुमर्मास के बाद राम ने सुग्रीव के बारे में जानने के लिए

लक्ष्मण को भेजा जबकि रा. में सात दिनों के बाद ही भेज दिया। रा. में

आया हुआ मोर का प्रसंग वा. में नहीं है। दोनों ही ग्रंथों में सीता की

खोज के लिए सेनाएं एकत्रित करने के प्रसंग हैं किंतु उनके वर्णन भिन्न

संपाति प्रसंग

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

सीता की खोज के लिए दक्षिण दिशा में अंगद के सेनापतित्व में

गई सेना अपने काम में सफलता प्राप्त नहीं कर पाई, तब अंगद ने अपनी

सेना से कहा, ‘जो समय सुग्रीव ने निश्चित किया था, उसके बीत जाने

पर हम सब वानरों के लिए उपवास करके प्राण त्याग देना ही ठीक जान

पड़ता है। यहाँ से लौटने पर राजा सुग्रीव निश्वय ही हम सबका वध कर

डालेंगे। आनुचित वध की अपेक्षा यहीं मर जाना हम लोगों के लिए

श्रेयस्कर है। सभी वानरों ने उसकी बात का समर्थन किया। किंतु तार

नाम के वानर ने उनसे स्वयंप्रभा की गुफा में प्रवेश कर निवास करने के

लिए कहा क्योंकि उस गुफा में पफल-फूल, जल आदि भी प्रचुर मात्रा में थे

और राम, सुग्रीव आदि से भी कोई भय न था। अंगद को उसकी बात

ठीक लगी। किंतु हनुमान ने उन्हें ऐसा न करने के लिए समझाया, पर

अंगद अपनी बात पर डटे रहे और धरती पर कुश बिछाकर उदास मुँह से

रोते-रोते वे मरणांत उपवास के लिए बैठ गए। उनको ऐसा करते देख

सभी श्रेष्ठ वानरों ने भी आमरण उपवास

करने का निश्चय किया।

पर्वत के जिस स्थान पर वे आमरण अनशन कर रहे थे, उस प्रदेश

में बल और पुरुषार्थ के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध जटायु के बड़े भाई संपाति

आए और इतने सारे बंदरों को एक साथ देखकर प्रसन्नतापूर्वक बोले, ‘इन

वानरों में से जो-जो मरता जाएगा, उसका मैं कृमशः भक्षण करता

जाऊँगा। भोजन पर लुभाए उस पक्षी का वचन सुन अंगद को बहुत दुख

हुआ और वे हनुमान से अनेक प्रकार की बातें करने लगे। तभी अंगद ने

किसी बात में जटायु का नाम लिया। अंगद के मुख से अपने भाई का

नाम सुनकर संपाति चौंके, ‘यह कौन है जो मेरे प्राणों से भी बढ़कर प्रिय

भाई जटायु के वध की

कम्पिति-सा होने लगा है। ऐसा कह कर संपाति ने जटायु के बारे में

अधिक जानने के लिए अंगद से कहा, ‘मेरे पंख सूर्य की किरणों से जल

गए हैं, इसलिए मैं उड़ नहीं सकता; किंतु इस पर्वत से नीचे उतरना

चाहता हूँ।’ तब अंगद ने उन्हें नीचे उतारकर सीता- हरण के समय

गृधराज जटायु द्वारा रावण के साथ किए गए युद्ध के बारे में बताकर

उनकी मृत्यु की सूचना दी। अंगद ने यह भी बताया कि वे लोग भी सीता

को खोजते फिर रहे हैं।

बात कह

रहा है। इसे सुनकर मेरा हदय

वानरों के मुख से जटायु की मृत्यु की बात सुनकर संपाति की

आँखों में आँस् आ गए। फिर उन्होंने अपने पंखों के जलने की कहान

“जब इंद्र के द्वारा वृत्रासुर का वध हो गया, तब इंद्र

को प्रबल जानकर हम दोनों भाई उन्हें जीतने की इच्छा से, पहले

आकाशमाग्ग के द्वारा बड़े वेग से स्वर्गलोक में गए। इंद्र को जीतकर

लौटते समय स्वर्ग को प्रकाशित करने वाले अंशुमाली सूर्य के पास आए।

हममें से जटायु सूर्य के मध्याह् काल में उनके तेज से शिथिल होने लगा।

मैंने स्नहेवश उसे अपने दोनों पंखों से ढक लिया। उस समय मेरे दोनों

पंख जल गए और मैं इस विंध्य पर्वत पर गिर पड़ा। यहाँ रहकर मैं कभी

अपने भाई का समाचार न पा सका।’ तब अंगद ने उनसे उस राक्षस के

बारे में पूछा। उन्होंने कहा, ‘वानरो! मेरे पंख जल गए हैं। अब मैं बेपर का

गीध हूँ। मेरी शक्ति जाती रही है तथापि मैं वचनमात्र से भगवान राम की

उत्तम सहायता अवश्य करूँगा। फिर संपाति ने बताया कि वह राक्षस

विश्रवा का पुत्र और कुबेर का भाई रावण है जो लंका में

निवास करता

सुनाते हुए बताय

है। वहीं पर पीले रंग की रेशमी साड़ी पहने सीता बड़े दुख के साथ

निवास करती हैं। वे रावण के अंतःपूर में नजरबंद हैं। बहुत-सी राक्षसियाँ

उनके पहरे पर हैं। वहाँ पहुँचने पर ही वे लोग सीता को देख सकेंगे।

लंका चारों ओर से समुद्र से घिरी है। समुद्र को पार करने में ही उन्हें

अपने पराकृम का परिचय देना होगा। सीता के बारे में संपूर्ण वृतांत

जानकर सब लोग बहुत प्रसन्न हुए

उसके बाद अपने भाई को जलांजलि देकर जब संपाति स्नान कर

चुके तो उन्होंने उन लोगों को बताया, ‘पूर्वकाल में यहाँ पर बने आश्रम में

रहने वाले निशाकर मुनि को जब मैंने अपने जले पंखों की कहानी सुनाई

थी, तब उन्होंने बताया था कि मेरे नए पंख निकल आएंगे, वह भी तब

जब सीता का हरण रावण कर लेगा, वह वहाँ भोजन नहीं करेंगी, तब

देवराज इंद्र उनके लिए अमृत के समान खीर निवेदन करेंगे और उसे

खाने से पहले सीता उस खीर को राम को अर्पित करने के उददेश्य से

पृथ्वी को प्रदान करेंगी। उस समय राम के दूत सीता का पता लगाते हुए

आएंगे। तुम उन्हें सीता का पता बता देना। यहाँ से कहीं न जाना। तभी

से मैं आप लोगों की बाट देख रहा था। थोड़ी देर बाद ही उन वनचारी

वानरों के समक्ष उनके दो नए पंख निकल आए। अपने शरीर को नए

निकले हुए लाल रंग के पंखों से संयुक्त देख संपाति को बहुत हर्ष हुआ

और उन्होंने वानरों से कहा, “वानरो! तुम सब प्रकार से यत्न करो।

निश्वय ही तुम्हें सीता का दर्शन होगा। मुझे पंखों का प्राप्त होना तुम

लोगों की कार्यसिद्धि का विश्वास दिलाने वाला है। ऐसा कहकर वे

आकाश-गमन की शक्ति का परिचय पाने के लिए पर्वतशिखर से उड़ गए

और उनकी बात को सुनकर वानरों का ह्दय भी प्रसन्नता से खिल उठा।

रामकीर्ति के अनुसार

जब युद्ध की सारी तैयारियाँ पूरी हो गईं, तब सीता की खोज के

लिए और सैन्य दृष्टि से टोह लगाने के लिए हनुमान, जंबुवान और

निलाबद के नेतृत्व में एक दल भेजा गया। रास्ते की बाधाएं पार

करते-करते वे हेमाटिरन पर्वत के पास पहुँचे जो विशाल और अधीर

महासागर को देखा-अनदेखा कर खड़ा था।

अभियान बिल्कुल रुक गया।

सामने कोई जगह दिखाई नहीं दे रही थी केवल विशाल सागर के जिसने

अपना अ्सीमित सीना आकाश की नील वर्ण सीमा से परे तक फैला रखा

अब वे क्या करते? बलशाली हनुमान ने सफलता को उछलती

हुई लहरों के हवाले करने के स्थान पर महान सतायु के समान मृत्यु के

द्वारा सम्मान प्राप्त करने का अटल संकल्प व्यक्त किया। जैसे ही सतायु

का नाम लिया गया, इसने एक जादुई शब्द का सा काम किया। पर्वत के

ढाँचे में स्थत निकटवर्ती गुफा में से संबादि नाम का विशाल पक्षी बाहर

आया जो सतायु का बड़ा भाई था, पंखहीन और दिखने में असहाय। जब

सतायु इतना छोटा था कि कुछ समझ नहीं सकता था, उस समय एक

बार उसने भोर के कोहरे की चादर में से उदित होते लोहितवर्णी सूर्य को

देखा। बालक होने के कारण अज्ञानता में उसने इसे एक स्वादिष्ट फल

समझा और इसे पाने के लिए उड़ गया

खतरे को भॉपकर संबादि ने उसे अपने फैले हुए पंखों की ओट में ले

लिया और सूर्य के कुपित प्रहार को अपने पंखों पर आने दिया क्षण भर

में ही वे जल कर राख हो गए। वे केवल तब ही उग सकते थे, जब राम

की सेना द्वारा उसकी तीन बार जय जयकार की जाती। राम की सेना की

प्रतीक्षा में उसने निद्राहीन रातें और कष्टपूर्ण दिन बिताए । एक लंबे समय

के बाद वे उसके लिए दुख और सुख दोनों ही लेकर आए। उन्होंने उसे

उसके भाई की मृत्यु का दुखद समाचार दिया, साथ ही तीन बार जय

जयकार करके उन्होंने चेतना और तेज से दैदीप्यमान नए निकले पंखों के

अपने भाई के सामने आने वाले

साथ उसे विशाल आकाश में ऊँचा उड़ने से मिलने वाला परमानंद प्रदान

किया।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में इस प्रसंग में काफी समानता है। दोनों ही ग्रंथों के

अनुसार संपाति अथवा संबादि के पंख अपने छोटे भाई को सूर्य की

किरणों के कुपित प्रहार से बचाने के कारण जले थे। संपाति और संबादि

शब्द में अंतर केवल उच्चारण के कारण ही है। वा. में राम के दूतों के

आने पर उनके पंख निकल सकते थे जबकि

रा.. में पंख केवल तब ही

उग सकते थे, जब राम की सेना द्वारा उसकी तीन बार जय जयकार की

जाती।

हनुमान की लंका यात्रा और उनके साहसिक कार्य

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

संपाति की बातों से रावण के निवास स्थान तथा उसके भावी

विनाश की सूचना मिली जिसे सुनकर सिंह के समान पराकमी वानर हर्ष

से भरकर समुद्र के तट पर आए। उस रोमांचकारी महासागर को देखकर

वे विषाद में पड़ गए। उन्हें विषाद में पड़ा देख अंगद ने उन्हें समझाया,

‘वीरो! तुम्हें अपने मन में विषाद नहीं लाना चाहिए; क्योंकि विषाद में बड़ा

दोष है। जैसे कोध में भरा हुआ साँप अपने पास आए बच्चे को काट

खाता है, उसी प्रकार विषाद पुरुष का विनाश कर डालता है।’ फिर उसने

सभी से उसको पार करने की शक्ति के बारे में पूछा। सभी वानरों ने

अपने-अपने पराकरम के बारे में बताया लेकिन कोई भी ऐसा न दिखाई

दिया जो असंभव-से लगने वाले इस काम को कर पाता। इस पर

जांबवान ने हनुमान से पूछा, ‘तुम एकांत में आकर चुपचाप क्यों बैठे हो?

तुम कुछ बोलते क्यों नहीं? तुम्हारा बल, बुद्धि, तेज और धैर्य भी समस्त

प्राणियों से बढ़कर है। फिर तुम अपने-आपको समुद्र लॉघने के लिए क्यों

नहीं तैयार करते? वानर श्रेष्ठ! उठो और इस महासागर को लॉघ जाओ;

क्योंकि तुम्हारी गति सभी प्राणियों से बढ़कर है। इसप्रकार जांबवान की

प्रेरणा पाकर हनुमान को अपने वेग पर विश्वास हो आया और सेना का

हर्ष बढ़ाते हुए उन्होंने अपना विराट रूप प्रस्तुत किया। जैसे-जैसे वे

अंगड़ाई लेते गए, उनका रूप बढ़ता ही गया। तब हनुमान जोर से गर्जना

कर छलांग लगाने के लिए महेंद्र पर्वत पर चढ़ गए। यह उनका प्रथम

साहसिक काम था।

कपिवर हनुमान ऐसा साहसिक काम करना चाहते थे जो दूसरों के

दुष्कर हो। समुद्र को लाँघने की इच्छा से

उन्होंने अपने शरीर को

बेहद बढ़ा लिया और अपनी भुजाओं और चरणों से पर्वत को दबा दिया,

अपने शरीर को हिलाया, रोएं झाड़े तथा मेघ के समान गर्जना की। सभी

वानरों से उन्होंने कहा, ‘सर्वथा कृतकृत्य होकर मैं सीता के साथ लौू ँगा

अथवा रावणसहित लंकापुरी को उखाड़कर लाऊँगा। ऐसा कहकर

विध्न-बाधाओं का कोई विचार न करके उन्होंने बड़े वेग से ऊपर की ओर

छलॉग लगाई तथा महान वेग से अपने को ऊपर की ओर खींचते हुए

निर्मल आकाश में अग्रसर होने लगे। यह उनका दूसरा साहसिक काम

था।

गंधर्व, सिद्ध और महर्षियों ने नागमाता सुरसा से

भयंकर राक्षसी का रूप धारण कर हनुमान के पराककम की परीक्षा लेने के

लिए कहा। सुरसा ने विशाल राक्षसी का रूप धारण कर समूद्र के पार

जाते हुए हनुमान को घेर लिया और कहा, ‘देवेश्वरों ने तुम्हें मेरा भक्ष्य

बताकर मुझे अर्पित किया है, अतः अब मैं तुम्हें खाऊँगी। तुम मेरे इस मुँह

में चले आओ ।’ ऐसा कह वह अपना विशाल मुँह खोलकर हनुमान के

सामने खड़ी हो गई। इस पर उन्होंने कहा, ‘तुम अपना मुँह इतना बड़ा

बना लो जिससे उसमें मेरा भार सह सको। सुरसा के विशाल मुख को

देख हनुमान ने अपना शरीर अंगूठे के समान छोटा कर लिया और उस

मुख में प्रवेश कर बाहर निकल आए। सुरसा ने प्रसन्न होकर उन्हें राम के

काम में सफल होने का आशीवद दिया। उनके इस तीसरे अत्यंत दुष्कर

कर्म को देख सब प्राणी वाह-वाह करने लगे।

रास्ते में जाते हुए हनुमान को इच्छानुसार रूप धारण करने वाली

सिहिंका नाम की

राक्षसी ने देखा। उन्हें देख वह सोचने लगी,

आज

दीर्घकाल के बाद यह विशाल जीव मेरे वश में आया है। इसे खा लेने पर

बहुत दिनों के लिए मेरा पेट भर जाएगा। यह सोचकर उसने हनुमान की

छाया पकड़ ली। अचानक छाया के पकड़े जाने पर हनुमान ने अपनी

दृष्टि नीचे डाली और उस अदभुत छायाग्राही जीव को देखकर उन्होंने

अपना शरीर विशाल कर लिया। उनके विशाल शरीर को देख उसने भी

अपना मुख पाताल और आकाश के मध्यभाग के समान फैला दिया और

उनकी ओर दौड़ी। हनुमान अपने शरी

र को संकुचित कर उसके विशाल

मुख में आ गिरे। अपने तीखे नखों से उसके मर्म स्थानों को विदीर्ण कर,

उसे मार कर मन के समान गति से उछलकर उसके मुख से बाहर

निकल आए। यह उनका चौथा साहसिक कार्य था।

अब वे पुनः आकाश में गरुड़ के समान वेग से चलने लगे। वहाँ से

ही उन्होंने भाँति- भाँति के वृक्षों से सुशोभित लंका नामक द्वीप को देखा।

फिर अपने कर्तव्य का विचार करके छोटा-सा रूप धारण कर लिया।

समुद्र को लॉघकर हनुमान उसके तट पर उतर गए और लंका पुरी की

शोभा देखने लगे। फिर हनुमान धीरे-धीरे अदभुत शोभा से संपन्न

रावण-पालित लंकापुरी के पास पहुँचे। उसके चारों ओर खुदी हुई खाइ्याँ

उस नगरी की शोभा बढ़ा रही थीं। विश्वकर्मा की बनाई गई लंका मानो

उनके मानसिक संकल्प से रची गई एक सुंदर स्त्री थी। उसकी चौकसी

का भी भारी प्रबंध था। बहुत तरह से विचार करने के बाद उन्होंने सूर्यास्त

हो जाने पर छोटा रूप बनाकर लंका में प्रवेश करना उचित समझा। जब

वे उसमें प्रवेश करने लगे, तभी उस नगरी की अधिष्ठात्री देवी लंका ने

अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट होकर उन्हें देखा

वह उनके सामने खड़ी

हो गई और उनसे उनका परिचय तथा आने का कारण पूछने लगी। किंतु

हनुमान ने अपना परिचय देने से पहले उसके बारे में जानना चाहा। तब

उसने अपने को रावण की आज्ञा से नगर की रक्षा करने वाली सेविका

बताया। हनुमान ने उससे लंका को देखने देने का अनुरोध किया जिस

पर उस लंका ने हनुमान को जोर से थप्पड़ मारा। फिर तो हनुमान ने

उसका मुकाबला करते हुए उस पर मुट्ठी से प्रहार किया। उससे पीड़ित

होकर उसने हनुमान से उसके प्राण न लेने की याचना की तथा उनसे

रावणपालित लंका में प्रवेश करने और स्वेच्छानुसार जनकनंदिनी सीता की

खोज करने के लिए कहा।

रामकीर्ति के अनुसार

जब युद्ध

की सारी तैयारियाँ हो चुकीं, राम ने लंका के लिए

तुरंत कूच करने की सोची। इसलिए उन्होंने युद्ध समिति को अपनी

योजना के औचित्य पर विचार करने के लिए बुलाया। समिति ने निर्णय

किया कि मुख्य सेना को भेजने से

पहले यह अधिक उचित रहेगा कि

हनुमान, जम्बुबान और निलाबद के नेतृत्व में सैन्य दृष्टि से टोह लगाने के

लिए एक दल भेजा जाए। उनको सीता का पता- ठिकाना जानने और उन

तक खबर पहुँचाने का दायित्व भी सौपा गया।

राम ने हनुमान को मुद्रिका और सीता का दुपट्टा उन्हें सौंपने

के लिए दिया ताकि वे उस पर विश्वास कर सकें किे वह उनके पति का

दूत है। किंतु हनुमान ने शंका व्यक्त की कि सीता कहीं उन्हें एक दुश्मन

न समझ लें, क्योंकि इस बात की पूरी संभावना है कि कोई भी राक्षस उन

स्मृति-चिन्हों को सरलता से पा सकता है। इस पर राम ने हनुमान से

कहा कि यदि सीता उन पर शंका करें, तब वे उन्हें एक गुप्त बात बता दें

जो केवल राम और सीता को ही पता है। यह उनके प्रथम प्रेम की प्रिय

कहानी थी जो मिथिला के महल की खिड़की के नीचे से शुरु हुई थी।

सीता के संदेह का निवारण करने वाली इस गुप्त बात के साथ हनुमान

और सेना ने लंका के लिए कूच किया।

पर्याप्त दूरी तय कर लेने के बाद, सना मायन नगर पहुँची। यह

बिल्कुल निर्जन स्थान था, केवल स्वर्ग से गिरी शापित अप्सरा पुष्माली

वहाँ रह रही थी। इसका कारण था कि इसकी कपटी चाल द्वारा मायन

के शासक तावन ने स्वर्गिक अप्सरा रंभा को अपनी पतनी बना लिया था।

ईस्वर ने इसलिए उस पूरे देश को वीरान कर दिया और पुष्माली को इस

निर्जन नगर में राम के सैनिकों से भेंट होने और शापित जीवन से

छटकारा पाने तक, एकाकी जीवन जीने का शाप दे दिया। हनुमान उससे

मिले और उन्होंने अपना परिचय राम के सैनिक के रूप में दिया। लेकिन

आशंकित पुष्माली ने उनसे किसी विशिष्ट चमत्कारिक शक्ति का प्रदर्शन

करने के लिए कहा। तब हनुमान ने चार मुख और आठ भुजाओं वाले

विशाल शरीर को धारण कर अपना मुँह फाड़कर, सूर्य, चंद्र और तारों के

समूह को दिखाया जिससे पुष्माली को उन पर विश्वास हो गया और

उसने उन्हें लंका जाने का रास्ता बता दिया। अप्सरा के विशिष्ट सौंदर्य ने

हनुमान को इतना अधिक मोहित कर लिया कि वे अपने आप को उस

युवती से प्रेम करने से नहीं रोक पाए, जिसे उ

सने भी सहर्ष स्वीकार कर

लिया। अपने प्रेम से संतुष्ट होने के बाद हनुमान ने उसके शापित जीवन

का सुखद अंत कर दिया।

पुष्माली के बताए गए मार्ग का अनुगमन करते हुए सेना तीव्र गति

से बहने वाली महानदी पर पहुँची जिसकी विशालता देख सेना आगे बढ़ने

में असमर्थ हो गई किंतु हनुमान ने अपनी पूँछ को असाधारण रूप से बढ़ा

कर दोनों किनारों के बीच में रख दिया। उसने मजबूत पुल का काम

किया और सारी सेना सकुशल नदी पार कर गई। अंत में के विशाल और

अधीर महासागर के पास स्थित हेमाटिरन पर्वत के पास पहुँचे। सामने

और कोई स्थान दिखाई नहीं दे रहा था केवल विशाल सागर के। इससे

उनका अभियान बिल्कुल रुक गया।

किंतु इससे वे बिल्कूल घबराए नहीं यहीं पर उनकी भेंट सतायु

के बड़े भाई संबादि से हुई। बलशाली हनुमान कृतज्ञ संबादि की पीठ पर

बैठकर हेमाटिरन और लंका के मध्य स्थित गंधिसिंग्खरा पर्वत पर पहुँच

गए। वहाँ पहुँचने पर संबादि ने निलाकल पर्वत की ओर संकेत किया जो

बहुत ऊँचा था। एक बड़ी छलॉग लगा कर हनुमान अपने गंतव्य की ओर

उड़ चले। अचानक एक विशालकाय,

महासागर की विकराल रक्षक थी और जिसे दसकंठ ने समुद्रतट की रक्षा

के लिए नियुक्त किया था, ने उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया। हनुमान

तेजी से उसके मुँह में घुस गए और उसके पेट को फाड़कर उसकी आंतें

बाहर निकाल लाए। वह राक्षसी अब केवल असंख्य जलचरों का ग्रास

बनने के लिए जमीन पर पड़ी थी।

भयंकर और अभेद्य राक्षसी जो

फिर छलांग का आवेग हनुमान को निलाकल पर्वत से बहुत आगे

ले गया और उन्हें सोलाश पर्वत के शिखर पर जाकर छोड़ा, जहाँ नारद

ऋषि की कुटिया थी। हनुमान ने उनसे एक रात बिताने हेतु आश्रय के

लिए निवेदन किया। उन्हें एक कुटिया दिखाई गई जहाँ पर वे एक रात

बिता सकते थे। नारद ऋषि की अलौकिक शक्तियों को जानने के लिए

जिज्ञासु हनुमान ने अपने शरीर का इतना विस्तार कर लिया कि कुटिया

इतनी छोटी लगने लगी कि वे उसमें नहीं आ सकते थे । सर्वशक्तिमान

ऋषि ने एक बड़ी कुटिया का निमाण कर दि

या, किंतु हनुमान का शरीर

उससे भी अधिक बड़ा हो गया। अंत में उनको सबक सिखाने के लिए

ऋषि ने इतनी अधिक ठंडी बारिश करवा दी कि उस जैसे बलशाली वानर

को भी सिकुड़कर मूल रूप में आना पड़ा। ऋषि तब उनको कॉपते हुए

कुटिया में छोड़ गए और एक तालाब पर पहूँचे जहाँ उन्होंने एक लकड़ी

को जोंक में बदल दिया।

दिन निकलने पर हनुमान तालाब पर प्रातः दैनिक प्रक्षालन के लिए

गये। जैसे ही उन्होंने इसके ताजे पानी में डुबकी लगाई, जोंक उनकी

ठोड़ी से चिपक गई। व्यग्र हो उन्होंने उसे पकड़कर खींचना शुरु कर

दिया। लेकिन जितना ज्यादा वे खींचते, वह चमत्कारिक जोंक उतनी ही

ज्यादा चिपचिपी और लचीली होती जाती। अंत में उनके मन में विचार

आया कि यह उनकी धृष्टता का परिणाम है। सच्चा प्रायश्चित करते हुए

हनुमान ऋषि की ओर दौड़े और क्षमा याचना की। जोंक तुरंत नीचे गिर

गई

उल्लेखनीय बिंदू

दोनों ग्रंथों में ही हनुमान के साहसिक कार्य अलग-अलग हैं।

जिन घटनाओं का जिक वा. में है वह रामकी्ति में नहीं है। रा. में वर्णित

राम-सीता के मध्य प्रेम, पुष्माली की हनुमान से भेंट, नारद ऋषि-हनुमान

भेंट आदि प्रसंग वा. में नहीं मिलते।

हनुमान की सीता से भेंट और लंका दहन

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

लंका की रक्षा करने वाली राक्षसी को परास्त कर हनुमान रात्रि में

चहारदीवारी फाँदकर लंका में प्रवेश कर गए । लंका में पहुँच जाने के बाद

हनुमान सीता को इधर-उधर खोजने लगे। उन्होंने रावण तथा अन्य

अनेक राक्षसों के घरों में घुसकर सीता को हूँढा। किंतु उन्हें कहीं भी

सीता के दर्शन नहीं हुए। उनके मन में बड़ी ही

निराशा पैदा हो गई।

‘हताश न होकर उत्साह को बनाए रखना ही संपत्ति का मूल कारण है’,

यह सोचकर अपना उत्साहवर्धन कर वे सीता को खोजने लगे। वे रावण

के महल की छत से कूदकर अशोकवाटिका की चहारदीवारी पर चवढ़ गए।

जब वे अशोकवाटिका में पहुँचे, तब उन्होंने मलिन वस्त्रों में एक सुंदर स्त्री

को देखा जिसे देखकर उन्होंने सोचा कि हो न हो, ये ही सीता हैं। वे

राक्षसियों से घिरी बैठी थीं तथा उनके मुख पर आँसुओं की धारा बह रही

थी। सीता के दर्शन से उल्लसित हो सवेरा होने तक वे वहीं छिपे रहे।

सवेरा होने पर हनुमान ने देखा कि आभूषणों को धारण किए हुए रावण

अशोकवाटिका में प्रवेश करके सीता को लुभाने की बहुत कोशिश

है, ‘मिथिलेशकुमारी! तुम मेरी भार्या बन जाओ। पातिव्रत्य के इस मोह को

छोड़ो। मेरे यहाँ बहुत सी सुंदर रानियाँ हैं। तुम उनमें श्रेष्ठ पटरानी बन

जाओ। किंतु उन्होंने देखा कि सीता ने उसकी इन बातों का बड़ी ही

कठोरता से उत्तर दिया। इस पर रावण कृद्ध होकर, दो महीने बाद जान

से मारने की धमकी देकर चला गया। रावण के प्रति किए गए सीता के

इस व्यवहार के कारण राक्षसियाँ फिर उन्हें धमकाने लगीं और वे पुनः

जोर-जोर से विलाप करते हुए सोचने लगीं कि अब वे इन प्राणों का

परित्याग कर देंगी। इधर राक्षसियाँ उन्हें बार-बार भयभीत किए जा रही

थीं। उनकी बातों को सुनकर बूढ़ी राक्षसी त्रिजटा ने रात में देखे गए

भयंकर और रोमांचकारी स्वप्न के बारे में बताया, जिसमें उसने राम,

लक्ष्मण के साथ सीता को विजयी मुद्रा में तथा रावण और उसके कुल के

विनाश को देखा था। उसने कहा कि रावण के विनाश और राम की

विजय में अब अधिक विलंब नहीं है। उसकी इस बात को सुनकर सीता

हर्ष से भर गई

थोड़ी ही देर बाद जब सीता को रावण की बातें याद आई, तो

वह पुनः भयभीत हो गई । शोक से संतप्त उन्होंने अपनी चोटी की डोरी से

फॉसी लगाने का निश्चय किया और जब वह फॉसी लगाने का प्रयास

करने लगीं, तभी उनके सामने शुभ शकुन प्रकट होने लगे और उन्होंने

इस विचार को त्याग दिया।

पराकृमी हनुमान ने सीता का विलाप, त्रिजटा की स्वप्न चर्चा और

राक्षसियों की डॉाँट-फटकार सुन ली थी। यह सब देखकर वह बहुत दुखी

हुए। उन्होंने सोचा कि यदि आज रात सीता को सांत्वना नहीं दी गई तो

ये अपने आप को समाप्त कर लेंगी। यह सोचकर वे शाखाओं के बीच में

छिप कर बोलने लगे। उन्होंने राम के वंश, सीता के विवाह तथा उनके

हरण की सारी कहानी सुनाई। सीता द्वारा इधर -उधर भौंचक देखने पर

हनुमान पेड़ से उतरे और सीता को प्रणाम कर स्वयं को राम का दूत

बताया। सीता द्वारा हनुमान से राम के परिचय के बारे में पूछे जाने पर

उन्होंने राम और लक्ष्मण की प्रशंसा करते हुए यहाँ तक आने की पूरी

कथा सुना दी। इसके साथ ही सीता को विश्वास दिलाने के लिए उन्होंने

राम नाम से अंकित राम द्वारा दी गई मुद्रिका भी दिखाई। हनुमान की

बातें सुनकर उन्हें काफी सांत्वना मिली। उन्होंने उनकी बहुत प्रशंसा की

तथा राम लक्ष्मण के बारे में भी पूछा। हनुमान ने राम-लक्ष्मण के बारे में

बताने के बाद उन्हें अपनी पीठ पर बैठा कर राम के पास ले चलने के

लिए भी कहा जिसे सीता ने यह कहकर अस्वीकार कर दिया, ‘रावण से

मेरे शरीर का जो स्पर्श हो गया है, वह तो उसके बल के कारण हुआ है।

उस समय मैं असमर्थ, अनाथ और बेबस थी। यदि श्री रघुनाथ राक्षसों

सहित दशमुख रावण का वध करके मुझे यहाँ से ले चलें तो वह उनके

योग्य कार्य होगा। अतः तुम राम को यहाँ बुला लाने का प्रयत्न करो ताकि

वे स्वयं मुझे यहाँ से ले जाएं। सीता की बात सुन हनुमान बहुत प्रसन्न

हुए और उनसे उनकी कोई पहचान मांगी। तब सीता ने उन्हें कौए वाली

कहानी जिसमें कौए ने उनकी छाती में चोंच मार दी थी, का संकेत राम

को देने के लिए कहा जिसे केवल राम ही जानते थे। इसके साथ ही

सीता ने दिव्य चूड़ामणि भी दी।

हनुमान ने जाते समय यह सोचा कि अभी तक शत्रु की शक्ति

का तो पता लगाया ही नहीं। इसके बारे में जानने के लिए उन्होंने अनेक

प्रकार के वृक्षों और लताओं से भरे प्रमदा वन को ही उजाड़ डाला और

प्रमदा वन के फाटक पर आ गए। पेड़ों के टूटने की आवाज सुनकर

लंकावासी घबरा गए। रावण को जब इसकी सूचना मिली तो वह कोध से

भर गया। उसने वीर किंकर नामधारी राक्ष

सों को उनका मुकाबला करने

के लिए भेजा। हनुमान ने राम का नाम लेकर अपना परिचय दिया और

उन राक्षसों को मार डाला। फिर प्रहस्त का बलवान पुत्र जंबुमाली आया,

दोनों के बीच भयंकर युद्ध हुआ। लेकिन वह भी वहीं मारा गया। फिर

हनुमान द्वारा रावण के भेजे गए मंत्री के सातों पुत्र भी मार दिए गए। इस

खबर से रावण बहुत परेशान और चिन्तित हो गया। उसने अपने पाँच

सेनापतियों -विरूपाक्ष, यूपाक्ष, दुर्धर, प्रघस, और भासकर्ण को हनुमान का

मुकाबला करने के लिए भेजा लेकिन उन्हें भी मुँह की खानी पड़ी। रावण

ने अपने पुत्र अक्षय कुमार को हनुमान का सामना करने के लिए भेजा।

दोनों में भीषण युद्ध हुआ। हनुमान ने बल और पराकम से उसके दोनों पैर

पकड़ कर उसे पृथ्वी पर पटक कर मार डाला।

अक्षयकुमार की मृत्यु के समाचार ने रावण के कोध को और भी

भड़का दिया। उसने आपने पुत्र इंद्रजीत को वहाँ जाने की आज्ञा दी। वे

दोनों आपस में भिड़ गए। कोई वश न चलने पर इंद्रजीत ने उन्हें कैद

करने के विचार से उन पर ब्रह्मास्त्र से प्रहार किया। निश्वेष्ट हुए हनुमान

को रस्सों में बाँधने के बाद वे कूर राक्षस उन्हें पीड़ा देते हुए तथा मुक्कों

का प्रहार करते हुए रावण के पास ले गए। रावण उन्हें देखकर कोध से

भर गया और उसने अपने मंत्रियों से उनका परिचय पूछने की आज्ञा दी।

मंत्री प्रहस्त द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने बताया कि वह वानरराज सुग्रीव

का दूत बनकर आया है । सुग्रीव ने राम से सीता को हढूँढ निकालने की

प्रतिज्ञा की है। अतः वह सीता को ढूँढने के लिए ही यहाँ आया है। फिर

रावण को सावधान करते हुए कहा, ‘राजन! तीनों लोकों में एक भी ऐसा

प्राणी नहीं है जो राम के प्रति अपराध कर सुखी रह सके। उनकी ऐसी

अनेक बातों को सुनकर कुद्ध हुए रावण ने उनका वध करने की आज्ञा दी

जिसका विभीषण ने विरोध किया और कहा, ‘सत्पुरुषों का कथन है कि

दूत कहीं भी किसी समय भी वध करने योग्य नहीं होते !. दूत के लिए

अन्य प्रकार के बहुत से दण्ड देखे गए हैं। किसी अंग को भंग कर विकृत

कर देना, कोड़े से पिटवाना, सिर मुड़वा देना तथा शरीर में कोई चिहन

दाग देना-्ये ही दण्ड दूत के लिएउचित बताए गए हैं। अपने छोटे भाई

विभीषण के इस उत्तम और प्रिय वचन को सुनकर रावण ने सोच–विचार

कर उनकी बात मान ली और कहा, ‘वानरों

को अपनी पँछ बड़ी प्यारी

होती है, अतः जितनी जल्दी हो सके, इसकी पूँछ जला दो। ऐसा कह

कर उनकी पूँछ जलाने की आज्ञा दी।

हनुमान की पूँछ में कपड़ा बॉधकर, तेल डालकर और आग लगाकर

उन्हें सारी लंका में घुमाया जाने लगा। उन्होने विभीषण का घर छोड़कर

सारी लंका में आग लगा दी। जब सारी लंका जल रही थी और राक्षसगण

अत्यंत भयभीत हो रहे थे, तभी उन्हे सीता के दण्ध होने की आशंका से

बड़ी पीड़ा हुई, साथ ही अपने कोध के प्रति बड़ी घृणा भी हुई, ‘अधिक

कुद्ध हुआ मनुष्य कभी इस बात का विचार नहीं करता कि मुँह से क्या

कहना चाहिए और क्या नहीं? कोधी के लिए कोई ऐसा बुरा काम नहीं,

जिसे वह न कर सके और कोई ऐसी बुरी बात नहीं जो वह मुँह से न

निकाल सके। मैंने रोष के दोष से तीनों लोकों में विख्यात इस वानरोचित

चपलता का ही यहाँ प्रदर्शन किया है। सीता के नष्ट हो जाने पर दोनों

भाई राम और लक्ष्मण भी नष्ट हो जाएंगें। किंतु उसी समय उन्होंने कुछ

महात्माओं के मुख से सीता के जीवित होने की बात सुनी तो वे हर्षित हो

गए। वानर शिरोमणि हनुमान ने समुद्र के जल में अपनी आग बुझाई।

फिर वे सीता के पास गए और उनसे जाने की आज्ञा लेकर उड़ गए।

जब वानरों ने हनुमान के सिंहनाद को सुना तो वे समझ गए कि

हनुमान कार्य सिद्ध करके आ गए हैं। राम के पास पहुँचकर हनुमान ने

सीता के बारे में विस्तार से बताया। उसे सुनकर राम आश्वस्त हो गए ।

रामकीर्ति के अनुसार

हनुमान अपने मेजबान नारद ऋषि से औपचारिक विदाई लेकर

लंका की ओर चल पड़े। एक दूसरी बहुत ऊँची वानरी छलांग लगा वे

बड़ी आसानी से निलाकल पर्वत पर पहुँच गए। चार मुख और आठ हाथ

वाले नगर -पहरेदार ने उनका विरोध किया जिसे मौत के घाट उतारते हुए

वे राक्षस के रूप में लंका में प्रवेश कर गए। शाम का समय था, साहरपति

ब्रह्मा की सृष्टि पर अंधकार का आवरण छा गया। हनुमान ने रात के

आवरण का लाभ उठाया, सभी लोगों को गहरी नींद के वश में कर दिया

और बहुत शीघ्र मिलने वाली सफलता

की आशा भरी खुशी के साथ

अंततः उन्होंने दसकंठ के महल में प्रवेश किया। किंतु आफसोस, वहाँ

निराशा ही हाथ लगी। वे एक राजमहल से दूसरे राजमहल में छलांग

लगाते गए, एक कमरे से दूसरे कमरे में घूमते रहे और हर जगह का

कोना-कोना छान मारा, किंतु उनकी चौकन्नी निगाहों को सीता कहीं

दिखाई नहीं दीं।

निराशा में सिर झुकाए वे नारद के पास वापस आए और उनसे

राय लेकर उन्होंने छोटे वानर का रूप धारण कर सीता को खोजने के

लिए एक रमणीय बगीचे में प्रवेश किया। वहाँ पर उनकी खोज का लक्ष्य

था-असहाय सीता, किंतु वैसे ही अस्पष्ट जैसे काले- घने बादलों के पीछे

छिपा हुआ ूर्णमासी का चाँद । शाम होने पर दसकंठ अपनी सारी अनैतिक

कूरता के साथ नारायण की पत्नी का मन जीतने के लिए वहाँ अया।

लुभावने अंदाज में उसने उनसे प्रणय निवेदन किया। किंतु एक शुद्ध एवं

निष्ठावान हृदय को प्रलोभन अकर्षित नहीं करता। दसकंठ को पहले से

कहीं अधिक कुद्ध हो कर वापस लौटना पड़ा।

अपने प्रिय पति से काफी दूर होने के कारण अब सीता की

सहिष्णुता अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी थी। उन्हें लगातार पापपूर्ण

प्रलोभनों का सामना करना पड़ रहा था। अंततः उन्होंने अपने दुखी जीवन

का अंत करने का मन बना लिया। ज्यों ही उनके मन में यह विचार

आया, वे एक निर्जन पेड़ के पास गई और अपने को फांसी पर लटका

लिया। भौँचक्के हनुमान, जिन्होंने कभी सोचा भी न था कि सीता अपनी

जान भी ले सकती हैं, तुरंत पेड़ पर चढ़ गए और गांठ को ढीला कर

दिया। उनके पूरे शरीर में खुशी की लहर दौड़ गई, जब उन्होंने सीता को

जीवित पाया। उन्होंने अपना परिचय दिया और उन्हें बताया कि राम लंका

पर चढ़ाई करने और उन्हें छुड़ाने की तैयारी कर रहे हैं।

जब सीता उनकी सच्चाई से संतुष्ट हो गई, उनके उदास गालों

पर खुशी की अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी। निराशा की लंबी रात के बाद

यह आशा की पहली किरण थी। हनुमान उन्हें अपनी हथेली पर बैठाकर

ले जाना चाहते थे, लेकिन उन्होंने उनकी यह बात नहीं मानी। उन्होंने

यही कहा कि एक बार दसकंठ द्वारा

ले जाए जाने पर उनका जीवन

काफी बदनाम हो चुका है। वे किसी दूसरे पुरुष द्वारा ले जाए जाने के

कारण अपने जीवन को और अधिक बदनाम नहीं होने देना चाहतीं।

तब हनुमान उनसे अनुमति लेकर हेमाटिरन पर्वत पर जाने के

लिए तैयार हो गए। किंतु उस नगर से जाने से पहले वे अपने कुछ

निशान पीछे छोड़ना चाहते थे। इसलिए उन्होंने दसकंठ के प्रिय पेड़ों को

जड़ से उखाड़ते हुए उसके सुंदर बगीचे को तहस-नहस कर डाला।

हिंसा के इस अचानक हुए विस्फोट के कारण राक्षसी सेना उनको वश में

करने के लिए पहुँची किंतु उसके स्थान पर उसे केवल मृत्यु ही प्राप्त

हुई। सहस्सकुमार, दसकंठ के हजार पुत्र भी कुछ अधिक आअच्छा न कर

सके। अंत में इंद्रजीत आया जो देवताओं के राजा का यश निष्प्रभ कर

चुका था। राक्षसों की शक्ति को जाँचने के उद्देश्य से हनुमान ने स्वयं

ही अपने को इंद्रजीत से बंधवा लिया और लंका के राजा के सामने ले

जाए गए। वीरता के ऐसे प्रदर्शन से प्रसन्न दसकंठ उन्हें अपना एक

सैनिक बनाना चाहता था। लेकिन हनुमान ने इसे अस्वीकार कर दिया।

हनुमान ने कहा कि उनके शरीर को पीट- पीट कर काला-नीला करने पर

भी उन्हें दास जीवन की अपेक्षा मृत्यु स्वीकार्य होगी। उन्होंने अनुरोध करते

हुए पूछा कि क्या वे उसके शरीर को तेल में ड्बोए कपड़े से बांधेंगे और

उसमें आग लगाएंगे? राक्षसों ने उनकी प्रार्थना को बिना किसी संकोच

और बिना किसी देरी के स्वीकार कर लिया और कुछ ही समय में हनुमान

का पूरा शरीर जलने लगा। विशाल पर्वत के समान हनुमान चारों ओर से

निकलती तेज लपटों के साथ उठ खड़े हुए। जोर के झटके के साथ

उन्होंने अपने सारे बंधन तोड़ दिए और लंका की सड़कों पर दौड़ने लगे।

एक छत से दूसरी छत पर छलांग लगाते हुए वायुपुत्र हनुमान अपनी

जलती पूँछ को घुमाते रहे और सारे सुंदर शहर को आग लगा दी। एक

महल से दूसरे महल तक, एक घर से दूसरे घर तक भीषण लपटें ताण्डव

करती रहीं और स्वर्णनगरी को नष्ट कर धराशायी कर दिया।

अपनी पूर्ण संतुष्टि के साथ लंका को जलाने के बाद हनुमान ने

समुद्र में अपने शरीर को ठंडा किया लेकिन उनकी पूँछ में अभी भी आग

लगी थी। किसी पानी से उसकी आग न बुझ

सकी। परेशान हो उन्होंने

नारद से सलाह मांगी जिनको यह जानकर आश्चर्य हुआ कि वानर इतना

अनजान है कि उसे अपने ‘छोटे कुंए का प्रयोग करना नहीं आता।

हनुमान उनका तात्पर्य समझ गए और अपनी पूँछ को अपने मुँह में डाल

लिया। आग पल भर में बुझ गई

उसके बाद हनुमान हेमाटिरन पर वानर दल के पास वापस लौट

आए और अपने साहसिक कार्य के बारे में बताया। खुशी और उल्लास से

उछल-कूद करते हुए, राम को इस शुभ समाचार से अवगत कराने के

लिए वे गंधमास की ओर चल दिए।

राम ने जब हनुमान के इस वीरतापूर्ण कार्य के बारे में सुना, वे

बहुत व्याकुल हो गए क्योंकि इससे सीता को नुकसान पहुँच सकता था

जो अभी भी दुश्मन के कब्जे में थी। अपनी आज्ञा का उल्लंघन करने के

कारण राम ने उन्हें पफटकारा। किंतु हनुमान ने बताया कि उन्होंने किसी

को अपना परिचय नहीं दिया और दसकंठ इस तथ्य से अनजान है कि वे

राम के दूत हैं।

सेना ने तब लंका के लिए कूच किया और सही समय पर उफनते

हुए उस समुद्र के किनारे अपना डेरा डाल लिया जिसने राक्षसों के देश

को चारों ओर से घेर रखा था।

उल्लेखनीय बिंदु

हनुमान द्वारा लंका की खोज का प्रसंग दोनों ग्रंथों में थोड़ी सी

भिन्नता रखता है। वा. में हनुमान जब सीता की खोज के लिए गए, तब

तक राम द्वारा लंका पर आकृमण करने की योजना नहीं बनी थी। रा. में

लंका पर आकृमण करने की योजना बन चूकी थी। वा. में सीता ने

आत्महत्या के बारे में केवल सोचा ही था किंतु रा. में उन्होंने आत्महत्या

करने के विचार को कियान्वित किया जिसे हनुमान द्वारा विफल कर दिया

गया। रा. के अनुसार, दसकंठ ने हनुमान को अपना सैनिक बनाने का

प्रस्ताव दिया था, वा. में ऐसा नहीं है। वा. में विभीषण के कहने पर

हनुमान की पूँछ में आग लगाई गई थी जबकि रा

. में हनुमान ने स्वयं

अपनी पूँछ में आग लगाने के लिए कहा था। वा. में लंका जलाने के बाद

हनुमान ने समुद्र के जल में आग बुझा दी थी, रा. में समुद्र के जल से

पूँछ की आग नहीं बुझी थी, बल्कि नारद के कहने पर उन्होंने ‘छोटे कुएं

अ्थात् मुँह में डालकर उस आग को बुझाया। वा. में हनुमान स्वयं को राम

का दूत बताते हैं, रा. में उन्होंने अपना परिचय नहीं दिया।

विभीषण का निष्कासन

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

हनुमान ने सीता से भेंट करने और लंका दहन करने वाला अपना

जो भयावह कर्म दिखाया था, उसे देख रावण का सिर लज्जा से झुक

गया। उसने मंत्रियों से विचार-विमर्श कर सही सलाह देने के लिए कहा।

किंतु राक्षसों को न तो नीति का जञान था और न ही वे शत्रु का बलाबल

समझते थे। वे बलबान तो बहुत थे किंतु नीतिशून्य थे। अतः परिस्थिति

की गंभीरता को न समझते हुए उन्होंने मूखों की तरह राम, सुग्रीव, लक्ष्ण

और हनुमान को मार डालने की बात कही। हाथों में अस्त्र-शस्त्र लिए

उन राक्षसों को जाने के लिए उद्यत देख विभीषण ने उन्हें जाने से रोका

और दोनों हाथ जोड़ रावण से कहा, ‘श्रीराम बड़े धर्मात्मा और पराक्मी

हैं। उनके साथ वैर करना उचित नहीं। मिथिलेशकुमारी सीता को उनके

पास लौटा देना चाहिए। आप मेरे बड़े भाई हैं। कृपा करके आप मेरी बात

मान लीजिए।’ अगले दिन विभीषण ने रावण को उसके घर जाकर भी

समझाया किंतु काममोहित हुए रावण ने मंत्रियों और सुह्दों के साथ

सलाह करके युद्ध को ही उचित माना।

तत्पश्चात रावण ने अत्यंत उत्तम रथ पर सवार होकर सभा भवन्

की ओर प्रस्थान किया। सभा-भवन में पहुँचकर रावण ने अपने सभी

सभासदों को बुलाया। विभीषण भी वहाँ पहूँचे। तब रावण ने कहा, ‘मैं

दण्डकारण्य से, जो राक्षसों के विचरने का स्थान है, राम की प्यारी रानी

जनकदुलारी सीता को हर लाया हूँ। किंतु वह

मेरी शैया पर आरूढ़ नहीं

होना चाहती। रावण की इस बात को सुनकर कुंभकर्ण ने कोधपूर्वक कहा

कि उसे सीता हरण करने से पहले ही उन सबसे इस विषय पर विचार

करना चाहिए था। यद्यपि ऐसा नहीं हुआ, तथापि वह उसके पक्ष में ही

युद्ध करेगा। इसीप्रकार महाबली महापाश्व ने भी रावण से उसके पक्ष में

वचन कहे। किंतु विभीषण ने रावण को फिर से राम की अजेयता को

बताकर सीता को वापस लौटाने के लिए समझाने का प्रयास किया। इस

पर रावण ने कोधावेश में विभीषण से कहा, कुलकलंक निशाचर! तुझे

धिक्कार है। यदि तेरे अलावा दूसरा कोई ऐसी बातें कहता तो उसे इसी

मुहुर्त अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ता।’ यह बात सुनकर विभीषण अपने

हाथ में गदा लेकर अन्य चार राक्षसों के साथ उछलकर आसमान में चले

गए और वहीं से कहा, ‘राजन! सदा प्रिय लगनेवाली मीठी-मीठी बातें

कहने वाले लोग तो सुगमता से मिल सकते हैं; परंतु जो सुनने में अप्रिय

किंतु परिणाम में हितकर हो, ऐसी बात कहने वाले और सुनने वाले दुर्लभ

होते हैं। यह कह कर विभीषण उस स्थान पर आ

विराजमान थे।

गए जहाँ

राम

विभीषण ने आकाश में ही स्थित रहकर अपना परिचय देते हुए

अपने आने के कारण के बारे में बताया। राम ने उनके आने की बात को

लेकर सुग्रीव, जांबवान, हनुमान आदि सभी से बात की। सबकी बातें सुनने

के बाद हनुमान ने अपना मत व्यक्त करते हुए यही कहा कि उनका इस

समय यहाँ आना सर्वथथा उचित और उसकी उत्तम बुद्धि के अनुरूप है।

उनकी बात को सुनकर राम प्रसन्न हुए और उन्होंने यही कहा, ‘जो मित्र

भाव से मेरे पास आ गया हो, उसे मैं किसी तरह त्याग नहीं सकता।

संभव है, उसमें कुछ दोष हों, परंतु दोषी को आश्रय देना भी सत्पुरुषों के

लिए निंदित नहीं है। शरणागत की रक्षा करना हमारा धर्म है।

राम के अभय कर देने पर विभीषण नीचे उतर कर उनके चरणों में

गिर पड़े और बताया कि रावण ने उनका अपमान किया है। राम ने उन्हें

सांत्वना दी और उनसे रावण के बलाबल के बारे में पूछा। तब विभीषण ने

रावण के संपूर्ण बल के विषय में बताया। सारे राक्षसों के बारे में विचार

करने के बाद राम ने कहा कि रावण के मरने

के बाद वे उन्हें लंका का

राजा बनाएंगे। विभीषण ने भी युद्ध में राम की हर संभव सहायता करने

लिए कहा। राम ने लक्ष्मण को उनका अभिषेक करने की आज्ञा दी।

लक्ष्मण ने उनका राज्याभिषेक कर दिया।

रामकीर्ति के अनुसार

निस्संदेह, अग्निकांड ने लंका के सुंदर नगर को नष्ट कर दिया

था, किंतु जिसकी सेवा देवता करते हों और राक्षस पूजा करते हों, उसके

लिए हनुमान के आग्नेय प्रदर्शन से लगे काले निशानों को मिटाना बिल्कूल

भी कठिन नहीं था। अतः लंका पहले से भी अधिक सुंदर और आलंकारिक

ढंग से पुन्निमित की जा चुकी थी। अब दसकंठ इतना खुश और

अहंकारी हो गया जितना वह हो सकता था।

उसके बाद एक रात आई जब उसकी शांतिपुर्ण नींद में अचानक

एक भयानक स्वप्न लगातार बना रहा। दसकंठ ने स्वप्न में देिखा कि

आकाश के बीचोंबीच दो गिद्धों के मध्य एक भयंकर युद्ध छिड़ गया जिनमें

एक काला था जो पश्चिम से आया था और एक सफेद, जो दक्षिण से।

अंत में काला गिद्ध नीचे गिर कर मर गया और अपने आप ही एक विचित्र

राक्षस के रूप में बदल गया। उसके बाद एक दूसरा दृरश्य उसके स्वप्न में

आया। उसने सपना देखा कि उसने एक नारियल के खोल में कुछ तेल

डाला और उसमें बत्ती रख दी और उस अनोखे दीपक को अपनी हथेली

पर रख लिया। अचानक तेजी से एक औरत आई और उसने बत्ती को

जला दिया। लपट ने उस पूरे दीपक को जलाकर नष्ट कर दिया और

वह उसकी हथेली तक पहुँच गई। जलने की अनुभूति उसके संपूर्ण शरीर

में होने लगी। चौंककर और भयभीत होकर दसकंठ जाग गया। उसकी

बीसों ऑँखों में एक अज्ञात भय साफ-साफ दिखाई दे रहा था।

ज्योतिषीय

स्पष्टीकरण पूछा। बिभेक ने व्याख्या की कि काला गिद्ध दसकंठ का

प्रतीक और श्वेत राम का प्रतीक था। राम ने दसकंठ को हरा दिया।

नारियल के खोल का अर्थ था लंका, तेल का अर्थ था दसकंठ का वंश

और बत्ती का अर्थ था उसका जीवन। दीपक जलाने वाली स्त्री सम्मानखा

भयभीत दसकंठ ने बि

भेक को बुलाकर स्वप्न

का

थी और सीता लौ थी जिसने सबको नष्ट कर दिया। स्वप्न ने दसकंठ के

जीवन पर मैँडराती भीषण आपदा की भविष्यवाणी कर दी थी। ज्योतिष

विज्ञान इस दुष्प्रभाव का कोई भी निराकरण नहीं कर सकता। सीता को

राम को लौटा देना और उनसे क्षमा याचना करना ही इसका एकमात्र

उपाय था।

जैसे मरणासन्न दवाई को मना कर देता है वैसे ही सनकी सलाह

को। बिभेक की नेक सलाह ने केवल दसकंठ के कोध को भड़का दिया।

बिभेक की हिम्मत कैसे हुई कि वह राम की तुलना में उसे छोटा समझे?

उसके सामने दुश्मन की प्रशंसा करने का उसका साहस कैसे हुआ? कोध

से भरे दसकंठ ने बिभेक को लंका से निर्वासित कर दिया और उसकी

पत्नी त्रिजटा को सीता की सेवा में भेज दिया।

अपने देश और परिवार से निकाल दिये जाने पर बिभेक वानर

सेना में पहुँचे और राम से मित्रता कर ली। सुग्रीव की वानर सेना को

देखकर उन्हें लगा कि उनकी सेना दसकंठ की सेना के सामने कुछ भी

नहीं हैं। उन्होंने अपनी शंकाएं सुग्रीव के सामने व्यक्त कीं जिसने तुरंत

वानरों को अपनी- अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने का आदेश दिया।

तब वानरों की शक्ति का महाप्रदर्शन शुरु हुआ जिससे महान

शूरवीरों के दिल भी थम गए। कुछ ने पर्वतों को जोर से टक्कर मारी,

उन्हें जड़ से उखाड़ दिया और अपनी हथेलियों पर थाम लिया। कुछ ने

शीघ्रता से सूर्य को ढक दिया और संसार को अंधकार में डुबो दिया। कुछ

ने समुद्र के पानी को जल्दी से खींचकर उसे पूरी तरह सुखा दिया और

कुछ ने ऐसा प्रचण्ड तूफान ला दिया और ऐसी भीषण गर्जना की कि

मानो संसार के अंत की घोषणा कर रहे हों। उसे देख विभीषण को

संतुष्टि हुई ।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में रावण द्वरा विभीषण को निष्कासित करने का कारण

एक ही है-रावण को विनाश से बचाने के लि

ए सीता को वापस करने की

सलाह। किंतु इनकी घटनाएं भिन्न-भिन्न हैं। रा. में दसकंठ द्वारा किए

गए स्वप्न जैसी कोई घटना वा. नहीं है। रा. में सुग्रीव की सेना को

देखकर जिस प्रकार की शंका विभेक को होती है, वैसी किसी घटना का

उल्लेख वा. में नहीं है।

सेतु निर्माण

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

जब विभीषण राम के मित्र बन गए, तो हनुमान और सुग्रीव ने

उनसे उस अक्षोभ्य समुद्र को महाबली वानर सेनाओं के साथ पार करने

का उपाय पूछा। उन्होंने बताया कि राम सगर के वंशज हैं। अतः सगर के

वंशज होने के कारण समुद्र को उनकी सहायता अवश्य करनी चाहिए।

विभीषण की बात पर विचार करने के बाद सुग्रीव और लक्ष्मण ने राम से

कहा कि वे समुद्र से उनकी सहायता करने के लिए प्रार्थना करें। इन

दोनों के ऐसा कहने पर राम समुद्र के तट पर कुश बिछाकर समुद्र से

प्रार्थना करने लगे।

महासागर के समक्ष हाथ जोड़ पूर्वाभिमुख हो प्रार्थना करते-करते

जब राम को तीन दिन बीत गए और समुद्र ने अपने आधिदैविक रूप का

दर्शन नही कराया, तो वे कुपित हो लक्ष्मण से बोले,

ठानकर शंखों और सीपियों के समुदाय तथा मत्स्यों और मगरों सहित

समुद्र को मैं अभी सुखाए देता हूँ । यह कहकर उन्होंने लक्ष्मण से उनके

धनुष-बाण लाने का आदेश दि्या। उन्होंने अपनी प्रत्यंचा चढ़ाकर पृथ्वी

को कपित करते हुए बाण छोड़े जो समुद्र के जल में घुस गए। जब

पुनः बाण खींचने लगे, तब लक्ष्मण ने शीघ्रता से उन्हें ऐसा करने से

रोका। एक बार फिर राम ने समुद्र से कठोर शब्दों में उसे सुखा डालने

के लिए कहा। तब समुद्र के बीच से सागर स्वयं मूर्तिमान हुआ और हाथ

जोड़कर अपने सनातन स्वभाव के बारे में बताते हुए कहा, ‘मैं अबाध और

अथाह हूँ-कोई मेरे पार नहीं जा सकता। यदि मेरी थाह मिल

जाए तो

‘आज महान युद्ध

यह विकार-मेरे स्वभाव का व्यतिकम ही होगा। इसलिए मैं आपको पार

होने का उपाय बताता हूँ ।’ इसप्रकार सागर ने स्वयं प्रकट हो पुल निर्माण

के बारे में बताते हुए कहा, ‘आपकी सेना का नल नामक वानर मेरे ऊपर

पुल निर्माण करे

नल तथा अन्य वानरों की सहायता से समुद्र पर पुल निर्माण हुआ। अंगद

और हनुमान की पीठ पर सवार होकर राम और लक्ष्मण आगे-आगे चले

और देखते ही देखते सारी वानर सेना समुद्र पार कर गई।

इससे आपकी सारी सेना पार उतर जाएगी।’ तत्पश्चात्

रामकीर्ति के अनुसार

राम की सेना में इस बात पर सहमति बन चुर्की थी कि समुद्र पर

सेतु का निर्माण किया जाना चाहिए। तुरंत वानर निलाबद और हनुमान के

चारों तरफ एकत्रित हो गए और असीमित को सीमित करने का महान

कार्य शुरू हो गया। लेकिन इस समय निलाबद हनुमान से उसके चाचा

जम्बू के प्रति किए गए अन्याय का बदला लेना चाहता था। उसने बहुत

सारी चट्टानें एकत्रित कीं और उन्हें वह नीचे हनुमान के पास पकड़ने के

लिए फेंकने लगा। चूंकि निलाबद हनुमान से किसी तरह झगड़ा करना

चाहता था, इसलिए उसने चट्टानों को बहुत तेजी से फेंकना शुरु कर

दिया ताकि वे उसे पकड़ न पाएं। किंतु हनुमान शांत रहे, उस पल का

इंतजार करते हुए जब वे उसे एक अच्छा सबक सिखा सकं।

समय बाद उन्होंने आपने कार्य आपस में बदल लिए। अब

हनुमान ने अपने शरीर के हर एक बाल से एक विशाल चट्टान बाँधी और

उन्हें फुर्ती से पकड़ने के लिए निलाबद को पुकारा। किंतु यह उसकी

सामथ्य से बाहर था। परिणामस्वरूप कहासुनी के बाद वे आपस में बुरी

तरह से भिड़ गए। शोरगुल राम के पास पहुँचा। कितना उत्तेजक नजारा

था देखने में यह, दो सेनानायकों का आपस में ही लड़ना और सेना के

सामने एक गलत उदाहरण प्रस्तुत करना! उन्होंने दोनों को ही दण्डित

किया। निलाबद को सुग्रीव का प्रतिशासक बना कर और सेना के लिए

खाद्यसामग्री की पूर्ति करने का दायित्व सौप कर खिडकिन वापस जाने

का आदेश दिया, जबकि हनुमान को सात दिन के अंदर सेतु का काम

समाप्त करने की आज्ञा दी।

हनुमान द्वारा चट्टानों के समुद्र में फेंके जाने से जबरदस्त हलचल

और शोरगुल होने लगा। यह शोर दसकंठ के चिंताग्रस्त कानों तक

पहूँचा। उसने निर्माण कार्य को बाधित करने के लिए अपनी मत्स्य कन्या

सूवर्नमच्छा को अपनी सेना के साथ जाने और सेतु के निर्मण में प्रयुक्त

चटटानों को वहाँ से हटाने का आदेश दिया।

जागरुक हनुमान ने अपने द्वारा सावधानीपूर्वक रखी चट्टानों को

सागर की अथाह गहराई में लुप्त होते हुए देखा। तब दृढ़ निश्वय के

साथ वायुपुत्र ने नीचे डुबकी लगाई, सुवर्नमच्छा को काबू में किया, उसको

और उसकी सेना को चट्टानों को आअपनी जगह पुनः रखने के लिए विवश

किया। ‘नारी भक्त’ हनुमान ने इस अवसर का लाभ उठाकर उस सुंदर

मत्स्य कन्या के समक्ष प्रणय निवेदन किया जिसने अपनी तरफ से उनके

प्रेम का त्रंत उत्तर दिया। आतः जब वह अपने पिता के पास अपनी

असफलता की सूचना देने वापस लौटी, उससे पहले ही वह हनुमान के

मच्छानु

अपने गर्भाशय से उल्टी कर बाहर निकाला और देवताओं से उसकी

सुरक्षा की प्रार्थना कर दसकंठ के भय से उसे समुद्र के किनारे छोड़

49

नामक मत्स्य वानर बच्चे की माँ बन चुकी थी, जिसको उसने

दिया।

अब मजबूत और विशाल सेतु तैयार था जो अपनी मजबूत

चट्टानों से नीले पानी को बांधे हुए था। इस शुभ अवसर पर इंद्र ने

मातलि द्वारा संचालित अपना रथ राम को भेंट किया। तत्पश्चात् सारी

सेना ने समुद्र पार किया और लंका के किनारे पहूँच गई।

उल्लेखनीय बिंदू

यद्यपि दोनों ग्रंथों में सेतु निर्माण का प्रसंग मिलता है तथापि

उसके निर्माण के संदर्भ अलग-अलग हैं। सगर के वंशज राम द्वारा समुद्र

से की गई प्रार्थना और प्रार्थना स्वीकार न करने पर राम द्वारा समुद्र पर

49

वाल्मीकि रामायण में न तो सुवर्णमच्छा का और न ही मच्छानु का व

र्णन है।

रामकी्ति, पृ 75

आक्रमण का वर्णन रा. में नहीं है, जबकि हनुमान और निलाबद की लड़ाई

और राम द्वारा उन दोनों को दंडित करने की बात, सुवर्णमच्छा के हनुमान

द्वारा फेंकी गई चट्टानों को गायब करने, सुवर्णमच्छा के समक्ष हनुमान

द्वारा अपने प्रेम को प्रस्तुत करने, सुवर्णमच्छा द्वारा मच्छानु का जन्म जैसे

प्रसंग वा. में नहीं हैं।

लंका की किलाबंदी

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

अब नल द्वारा बनाए पुल से वानरों की सेना समुद्र के उस पार

जा चुकी थी। फल, मूल और जल की अधिकता देखकर सुग्रीव ने सागर

के तट पर ही सेना का पड़ाव डाल लिया। तभी राम ने आनुभव किया कि

यहाँ कहीं तो धूल भरी प्रचंड वायु चल रही है, तो कहीं मेघों की घटा

घिर आई है, कौए, बाज तथा अधम गीध चारों ओर दिखाई पड़ रहे हैं,

कहीं सियारिनें अशुभसूचक भयंकर वाणी बोल रही हैं अर्थात् राम को चारों

ओर अपशकुन ही अपशकुन दिखाई पड़ रहे थे। राम ने उन अपशकुनों

को अपने पक्ष में मानते हुए लक्ष्मण के साथ विचार कर कहा कि उन्हें

आज ही लंका पर धावा बोल देना चाहिए। लेकिन धावा करने से पूर्व

उन्होंने एक रणनीति तैयार की और इसके अनुसार उन्होंने सेना का

विभाजन किया

का सामना करें। वालिकुमार अंगद दक्षिण द्वार पर स्थित हो महापाश्व

तथा महोदर के कार्य में बाधा डालें। बहुत से वानरों के साथ हनुमान

लंका के पश्चिमी फाटक से प्रवेश करें, मैं स्वयं लक्ष्मण के साथ नगर के

उत्तर

वानरराज सुग्रीव,

आक्रमण करें । इसप्रकार अपने विजय रूपी प्रयोजन की सिद्धि के लिए

विभीषण से ऐसा कहकर वानरयूथों से युक्त सुग्रीव सहित राम सुवेल पर्वत

के सबसे ऊँचे शिखर पर जा चढ़े ।

राम ने कहा, ‘कपिश्रेष्ठ नील पूर्व द्वार पर जाकर प्रहस्त

आकमण करके उसके भीतर प्रवेश करॉगा तथा

जांबवान और विभीषण नगर के

बीच के मोर्चे पर

फाटक

पर

वहाँ पहुँचने पर जब सुग्रीव ने रावण को गोपुर की छत पर

देखा तो वे अकस्मात् शिखर से गोपुर की छत पर कूद गए। रावण और

सुग्रीव के बीच द्वंद्ध युद्ध होने लगा। जब सुग्रीव को ऐसा लगा कि अब

रावण मायावी शक्ति का प्रयोग करने वाला है, तब वे आकाशमार्ग से राम

के पास आ गए। राम को सुग्रीव द्वारा किया यह कृत्य अनुचित लगा और

उन्होंने उन्हें इस प्रकार का दुस्साहस दोबारा न करने के लिए समझाया।

उसके बाद वे सब नीचे उतर आए

बताए गए शुभ मुहुर्त में वानर सेना को युद्ध के लिए लंकापुरी में कूच

करने की आज्ञा दी।

राम ने ज्योतिषशास्त्र के अनुसार

राम तो लक्ष्मण के साथ उत्तर

द्वार पर ही रुक गए जहाँ रावण

खड़ा था और सभी वानरयूथपति पूर्वनिश्चित स्थानों पर जाकर खड़े हो

गए। लेकिन इस सबके बावजूद, राम ने एक बार फिर मंत्रियों से विचार

करने के बाद अंगद को दूत बनाकर रावण के पास भेजा।

अंगद तो पल भर में ही रावण के पास पहुँच कर खड़े हो गए।

उन्होंने उसे सबसे पहले अपना परिचय दिया और फिर राम का संदेश

सुनाया। उनका संदेश सुनकर कुद्ध हुए रावण ने उस दूत को पकड़ कर

मार डालने की आज्ञा दी। आत्मबल से संपन्न अंगद ने उस समय राक्षसों

को अपना बल दिखाने के लिए स्वयं ही कुछ राक्षसों से अपने को पकड़वा

लिया। फिर वे उन राक्षसों को झटका देकर उछले और महल की छत पर

चढ़ गए। फिर पैर पटकते हुए घूमने लगे। महल की छत तोड़ कर और

अपना नाम सुनाकर जोर से सिंहनाद करते हुए आकाश मार्ग से उड़ कर

अंगद राम के पास अ गए। इसी बीच सुषेण ने वानरों के साथ मिलकर

सभी दरवाजों पर काबू पा लिया और लंका चारों ओर से घेर ली गई ।

रामकीर्ति के अनुसार

सेना ने समुद्र पार करने के बाद एक वन में शिविर लगाने पर

विचार किया जहाँ घने वृक्ष और ताजे पानी के स्त्रोत थे। किंतु यह एक

मायाबी वन था, जो दसकंठ द्वारा भेजे गए एक विचित्र प्रकार के राक्षस

भान्राज के सिर पर टिका हुआ था। दस

कंठ ने उसे आज्ञा दी थी कि

जैसे ही सेना शिविर लगा ले, वह भूखंड को अपने सिर से लुढ़का दे

ताकि वे सब जमीन द्वारा निगल लिए जाएं। हनुमान को इस बात का

एहसास हो गया

दिया। सेना की सुरक्षा को पूरी तरह से सुनिश्चित कर लंका को घेर

लिया गया।

हनुमान जमीन के अंदर गए और उसका अंत कर

तब राम ने अंगद को दसकंठ के पास इस चेतावनी के साथ

भेजा कि या तो वह तुरंत सीता को उन्हें सौंप दे अथवा युद्ध करे। उसका

सामना करने वाले अनेक राक्षसों को मारता हुआ अंगद दसकंठ के दरबार

में पहुँचा। लेकिन दसकंठ के दरबार में राम के दूत के बैठने के लिए

कोई स्थान नहीं था। अविचलित अंगद ने अपनी पूंछ लम्बी की और तब

तक कुंडली बनाता रहा जब तक वह दसकंठ के सिंहासन जितनी ऊँची

न हो गई। इस विचित्र स्थान पर बैठने के बाद उसने तीखे शब्दों में

अपना सदेश सुनाया। इससे दसकठ का कृध इस हद तक भड़क गया

कि उसने अपने चार सेनानायकों को उरसे तूरंत मारने का अदेश दे

दिया

सबको मार दिया और दूत कार्य के परिणाम को सूचित करने के लिए

वापस शिविर में लौट आया।

लेकिन अंगद उनके लिए अकेला काफी था। उसने अकेले ही उन

क्रद्ध दसकंठ ने अब स्वयं सेना को भ्रमित कर उसके सर्वनाश

का निश्चय किया। उसके पास ब्रह्मा का दिया एक चमत्कारिक छाता था।

जब कभी यह छाता खोला गया, इसने सूर्य को आच्छादित कर लिया और

सारे संसार को अंधकार में डुबो दिया। इस छाते को खोलकर उससे

लंका के चारों ओर अंधकार का एक आवरण बना दिया तथा उसे राम

और उनकी वानर सेना की आँखों से ओझल कर दिया। किंतु सेना के

प्रमुख सुग्रीव को सरलता से बहकाया नहीं जा सकता था। उसने यह

देख आकाश में छलांग लगाई। जादुई छाते के टुकड़े-टुकड़े किए और

राक्षसों को आवरणरहित, स्पष्ट और प्रकाशमान कर दिया। अपने शिविर में

लौटने से पहले उसने अपने पैरों से दसकंठ के सिर के मुकुट को झपट

लिया और इसे अहंकारी और शक्तिशाली लंका के राजा से प्रथम मुकाबले

के स्मृति-चिन्ह के

रूप में राम को अर्पित कर दिया।

हतोत्साहित, किंतु विचारमग्न दसकंठ अपने महल वापस लौट

आया। वह अब समझ चुका था कि लंका की लगभग अभेद्य घेराबंदी हो

चुकी है।

उल्लेखनीय बिंदु

भानुराज का प्रसंग वा. में नहीं है। अंगद को दूत बनाकर लंका

में भेजने का प्रसंग दोनों ही ग्रंथों में है, किंतु अलग- अलग तरीके से

वर्णित हैं। दसकंठ के छाते वाला प्रसंग और अंगद द्वारा पूँछ की कुंडली

बनाकर बैठने की घटना भी वा. में नहीं मिलती।

कुभकर्ण क्ध

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

वानरों के साथ राम द्वारा लंकापुरी को चारों ओर से घेर लेने के

बाद उन्होंने तत्काल शत्रभूत राक्षसों का वध करने की आज्ञा दी। राम की

आज्ञा मिलते ही वे सभी वानर सिंहनाद करते हुए वृक्षों, पर्वत -शिखरों और

मुक्कों से असंख्य परकोटों और दरवाजों को तोड़ने लगे। इसी समय कू्ध

रावण ने अपनी सेना को भी बाहर निकलने की आज्ञा दी। ‘वानरराज

सुग्रीव की जय हो तथा ‘महाराज रावण की जय हो के घोष के साथ

दोनों ओर के महाबलियों के बीच भयंकर युद्ध होने लगा। युद्ध भूमि में

जब प्रहस्त मारा गया, इससे रावण बहुत दुखी और कूद्ध हुआ। इंद्रजित

अतिकाय, महोदर, पिशाच, त्रिशिरा, कुंभ, निकुंभ, नरांतक आदि के साथ

रावण स्वयं ही युद्धद करने के लिए आ गया। रावण को देखते ही राम का

चिर संचित कोध उग्र रूप धारण कर सामने आ गया और वे उत्तम बाण

निकाल कर उसके साथ युद्ध करने लगे। एक बार जब रावण धनुषहीन

हो गया तो स्वयं राम ने उसे लंका वापस जाकर विश्राम करने के लिए

कहा। राम के बाणों और भय से पीड़ित हो रावण जब लंका पहूुँचा, तब

उसका अभिमान चूर-चूर हो गया। अब उसने राक्षसों को कुभकरण को

जगाने का आदेश दिया।

रक्त-मांस का भोजन करने वाले वे राक्षस गंध,

खाने-पीने की बहुत-सी सामग्री लेकर एक गुफा में सोते हुए कुभकर्ण को

जगाने के लिए पहूुँचे । किसी प्रकार कुंभकर्ण को जगाया गया। उसके

द्वारा जगाने का कारण पूछने पर रावण के सचिव यूपाक्ष ने सारी बातें

बताई। तब वह रावण से मिलने उसके महल में गया। जब उसने रावण

की दुखित कर देने वाली बातों को सुना तो वह ठहाका लगा कर हँस

पड़ा। उसने रावण से कहा, ‘जब इस विषय पर कुछ समय पहले विभीषण

के साथ विचार किया था, तब इसी भयंकर परिणाम की आशंका व्यक्त की

गई थी और वही तुम्हें इस समय प्राप्त हुआ है। तुम्हें अपने दुष्कर्म का

फल मिलना अवश्यंभावी था। उसकी ऐसी बातें सुनकर रावण ने अपनी

भौंहें टेढ़ी कर लीं और कुपित होकर उससे उपदेश देने के स्थान पर

केवल युद्ध करने का आदेश दिया जिसे उसने मान लिया। कुभकर्ण युद्ध

करने चल पड़ा। उसके साथ बहुत से बलवान, भीषण गर्जना करने वाले

भयानक रूपधारी राक्षस भी

बढ़ाते ही चारों और घोर अपशकुन होने लगे।

गए। कुभकर्ण के रणभूमि की ओर कदम

माल्य ओर

कुंभकर्ण को आता देखकर सभी वानर भाग खड़े हुए, किंतु

समझाने पर उन्होंने धैर्य धारण किया। अब वानर मरने का

सुग्रीव के

निश्चय कर भयंकर युद्ध करने लगे । नील, अंगद, हनुमान और सुग्रीव के

साथ कुभकर्ण का भीषण युद्ध हुआ। सुग्रीव के साथ युद्ध करते हुए उसने

मलय पर्वत का शिखर उठाकर उन पर दे मारा। उसके प्रहार से मूच्छित

हुए सूग्रीव को कॉख में उठा कुभकर्ण लंका की ओर चल दिया। बगल में

दबे सुग्रीव ने होश में आने पर कुभकर्ण के नाक और कान काट लिए

जिससे कु्ध हुए कुंभकर्ण ने उन्हें जमीन पर पटक दिया और जमीन पर

रगड़ने लगा। तभी सूग्रीव गेंद की भाँति वेगपूर्वक आकाश में उछले और

राम से जा मिले।

सुग्रीव के निकल भागने पर कुभकर्ण फिर युद्ध के लिए दौड़ा

और वानर सेना को अपना आहार बनाने लगा। वह बहुत से वानरों को

अपनी भुजाओं में भर लेता और खाता हुआ युद्धभूमि में दौड़ता फिरता ।

तब लक्ष्मण कुपित होकर उससे युद्ध कर

ने लगे। लक्ष्मण के युद्ध की

प्रशंसा करते हुए कुंभकर्ण ने कहा, ‘तुमने अपने वीर्य, बल और उत्साह से

रणभूमि में मुझे संतोष प्रदान किया है; मैं केवल राम को मारना चाहता हूँ,

जिनके मारे जाने पर सारी शत्रु सेना स्वतः ही मर जाएगी।’ ऐसा कहकर

उसने लक्ष्मण को लॉघकर राम पर धावा बोल दिया

ने भी रौद्रास्त्र का प्रयोग कर अनेक तीखे बाण छोड़े जिससे घायल हुए

कुंभकर्ण के हाथ से गदा छूटकर धरती पर गिर पड़ी। अब उसने मुक्कों

से ही वार करके सेना का संहार करना आरंभ कर दिया। अपनी सेना को

विनष्ट होते देख राम ने वायव्य नामक अस्त्र से उसकी दाहिनी बॉँह,

ऐन्द्रास्त्र से उसकी दूसरी बाँह, दो तीखे अर्द्धवचंद्राकार बाण लेकर उसके

दोनों पैरों को तथा ब्रह्मदंड और विनाशकारी काल के समान भयंकर एवं

तीखे बाण से उसके अलंकृत मस्तक को ध़ से अलग कर दिया। राम के

बाणों से कटा उसका पर्वताकार मस्तक लंका में जा गिरा और उसका

धड़ समुद्र के बड़े-बड़े ग्राहों, मत्स्यों को पीसता हुआ धरती के भीतर समा

गया। कुंभकर्ण के वध से रावण और उसके मनस्वी बंधुओं को बहुत दुख

हुआ।

उसे आते देख राम

रामकीर्ति के अनुसार

कुंभकर्ण दसकंठ का छोटा भाई था जिसकी वीरता का कोई

मुकाबला न था। जब बड़े -बड़े योद्धा रणभूमि में मारे गए, तो दसकंठ भय

से कॉप गया। अतः उसने अपने अत्यंत बलवान भाई कुभकर्ण से राम का

सामना करने के लिए कहा। लेकिन वह एक धर्मपरायण राक्षस था।

उसको यह उचित नहीं लगा कि सीता को अपने पास रखा जाए और राम

से युद्ध किया जाए। उसे वह सब कहने में संकोच नहीं हुआ जो उसने

उचित समझा। लेकिन इससे राक्षसराज आग बबूला हो गया। उसने अपने

भाई की अनुचित व्यंग्यबाणों से घोर निंदा की। क्या वह राम के भय से

ऐसे सहम रहा है जैसे कोई हिरण शेर की गंध से सहम उठता है? क्या

वह अपने शत्रु से ऐसे भयभीत है जैसे कोई कौआ धनूष को देखते ही

फड़फड़ाता है? अभी तो मुश्किल से उसने शत्रु का आभास ही किया है

कि वह कायर की भांति सहमने लगा। इसप्रकार दसकंठ ने अन्यायपूर्वक

उस कुंभकर्ण की घोर निंदा की जो के

वल न्याय के आगे झुकता था।

प्राणघातक और अन्यायपूर्ण तरीके से अपमानित होने पर उस सदाचारी

राक्षस ने अपना दुर्जेय भाला लिया और अपने भाई का सम्मान पुनः

प्रतिष्ठित करने के लिए चल पड़ा।

बिभेक ने दूर से अपने भाई को बड़ी ही शूरवीरता से सेना का

नेतृत्व करते हुए देखा। बिभेक दोनों हाथ जोड़ते हुए उसके पास पहुँचे,

इस विश्वास के साथ कि सच्चाई के प्रति उनके प्रेम के सामने दसकंठ के

प्रति उसका प्रेम हार जाएगा। किंतु सदाचारी होते हुए भी वह अपने राजा

और देश के विरुद्ध कभी नहीं जा सकता था। उसने बिभेक को बुरी तरह

से डॉँटा जिसने अपने परिवार से अलग होने का केवल यह एक बहाना

बताया कि वह राम की सेवा करने में नारायण के अवतार की सेवा कर

रहा है। अपने हाथों से ताली बजाकर और उपहासपूर्ण तरीके से हूँसते

हुए उसने उसके बहाने को बेतुका बताया। क्या राम वास्तव में नारायण

के अवतार हैं? वह उस पर तभी विश्वास करेगा जब राम उसकी एक

पहेली को हल कर देंगे जो वह उनसे पूछेगा। ‘कौन सा तपस्वी मूर्ख है

और कौन सा सीधे दंत का हाथी है? कौन सी औरत धूर्त है और कौन

सा पुरुष दुष्ट है?”

राम और उनके वानरों से पहेली हल नहीं हो पाई। कोई और

उपाय न पाकर कुशल दूत अंगद को राक्षस के पास उस पहेली के अर्थ

को बहला-फुसला कर स्पष्ट करवाने के लिए भेजा गया। लेकिन कुभकर्ण

उससे बहुत अधिक बुद्धिमान था। राम की असफलता का उपहास उड़ाते

हुए राक्षस ने हल बता दिया। मूख्ख तपस्वी राम स्वयं हैं, जो इतने मूर्ख थे

कि उन्होंने अपनी प्रिय पत्नी को वन में अकेला छोड़ दिया था। सीधे दंत

वाला हाथी लंका का राजा है जो अपनी पत्नी के साथ संतुष्ट नहीं रह

पाया, दूसरे की पत्नी के पीछे पड़ गया। लज्जाजनक दिखावटी प्रेम करने

वाली सम्मानखा वह धूर्त स्त्री है और अपने राजा और देश से विश्वासघात

करने वाला विभेक वह दुष्ट व्यक्ति है।

इसके बाद सुग्रीव ने अपनी पूरी शक्त से उसका सामना किया।

राक्षस ने उसकी शक्ति को खत्म करने के लिए कुछ मायावी चालें चलने

की सोची। वह सुग्रीव की वीरता को कम करके आंकने लगा। क्या वह

इतना शकि्तिशाली है जितना उसने सोचा है

? क्या वह हिमवान पर्वत तक

‘रंग’ पेड़ को उखाड़ कर ला सकता है और

उड़ कर जा सकता है,

उसके साथ उससे युद्ध कर सकता है? सुग्रीव जो शारीरिक बल में बुद्धि

बल से श्रेष्ठ था, सीधा पर्वत की ओर उड़ गया और पलक झपकते ही

एक पेड़ को जड़ से उखाड़ कर वापस लौटा। उसके बाद उन दोनों वीरों

में युद्ध हुआ। लेकिन पहले से ही थका सुग्रीव उसका मुकाबला नहीं कर

सका

की ओर चल दिया। हनुमान वानरराज की इस दयनीय दशा को देख उसे

बचाने के लिए दौड़े। हनूमान को रोक पाने में असमर्थ कुंभकर्ण को सुग्रीव

को आजाद करना पड़ा और खून से लथपथ कटे हुए नाक और कानों के

साथ उसे लंका वापस लौटना पड़ा

बहुत जल्दी कुभकर्ण ने उसे अपनी बगल में दबा लिया और लंका

विजय के द्वार पर हारने के बाद कुंभकर्ण ने अपने खोए सम्मान

निश्चय किया। इस

को

पुनः प्राप्त

करने

मय उसके पास

मोक्खशक्त नामक एक विशेष भाला था, जो अपने शिकार को निश्चित

तौर पर मेौत की नींद सुला देता था। किंतु इस अस्त्र का प्रयोग करने से

पहले इसकी शक्ति को जाग्रत करने के लिए देवताओं का आहवान करना

पड़ता था। इसलिए एक शुभ दिन वह नदी के किनारे गया और आवश्यक

अनुष्ठान करने लगा। बहुत जल्दी जलते हुए लोबान और रखिले हुए फूलों

की सुगंध पूरे वातावरण में फैल गई । भाले को सामने रखकर, गहरे ध्यान

में डूबा हुआ कुभकर्ण देवताओं का आहवान कर रहा था।

अचानक नदी की ओर से बहने वाली मंद हवा के साथ एक जी

मितलाने वाली दुर्गध ने उसका ध्यान भंग कर दिया। उसने अपनी आँखें

खोलीं। उसकी दृष्टि के सामने एक कुत्ते का सड़ा हुआ शरीर था जो

उसके यज्ञमंडप के सामने तैर रहा था। एक भूखा कौआ उस शव को

खुशी से खा रहा था और उसके प्रत्येक चंचु प्रहार से हर बार एक नई

दुर्गध कुंभकर्ण के सिकुड़े नासिका छिद्रों में भर जाती थी।

लेकिन यह एक छलावापूर्ण दृश्य था जिसने अनुष्ठान को भंग

कर दिया। बिभेक ने अपने किस्टल से वानर सेना का अंत करने के लिए

अपने भाई द्वारा अपनाई जाने वाली कार्यविधि को देख लिया था। कहीं

बहुत देर न हो जाए, इससे पहले

इसे बाधित किया जाना आवश्यक था।

तदनुसार हनुमान ने एक कुत्ते के शव का रूप धारण किया और अंगद ने

एक कौए का, दोनों धारा के प्रवाह के साथ बहते हुए कुंभकण्ण के

यज्ञमंडप के सामने पहुँच गए और उसके अनुष्ठान में विघ्न डाल दिया।

इसप्रकार बाधित किए जाने से भाले की विनाशकारी शक्ति निष्क्रिय ही

रही और उसके पास सरल और निश्चित विजय का कोई अवसर न रहा।

परंतु कुंभकर्ण अभी भी निरुत्साहित नहीं था। अगली सुबह, उस

विशाल राक्षस ने अपनी मोक्खशक्त उठाई, यहद्यपि वह प्रसुप्त थी और

सेना पर टूट पड़ा। लक्षण ने उसका सामना कि्या। तुरंत

मोक्खशक्ति समुद्रजा की खुशी का अंत करने के लिए हवा में उड़ी।

लक्षण मूर्छित हो गिर गए और उनके साथ ही राम के किले और वानरों

की आशा के टुकडे-टुकड़े हो गए।

ही वह

किंत् ढहे हुए किले के पुनर्निमाण और टूटी हुई आशाओं

पुनर्जीवित करने लिए अभी बिभेक वहाँ थे। उनके निर्देश पर हनुमान तुरंत

सरबाय पर्वत की ओर चल पड़े जहाँ वे जड़ी-बूटियाँ थीं जो लक्षण को

पुनर्जीवित कर सकती थीं। लेकिन ये सूर्योदय से पहले ले कर आनी थीं

अन्यथा सूर्य की पहली किरण के साथ ही लक्षण के पुनर्जीवन की आशा

समाप्त हो जाती।

हवा की तेज गति के समान हनुमान आकाश मार्ग से उड़ कर

चले गए। आकाश के बीचोंबीच उनकी श्वेत आकृति अचानक गहरे लाल

रंग में डूब गई। चौंकन्ने हो उन्होंने सूर्यदेव आदित्य के स्व्िम रथ को

देखा जिन्होंने नये दिन के आगमन की घोषणा करने के लिए तभी प्रवेश

किया था। लेकिन वह एक ऐसा दिन होता जो आशा के स्थान पर

निराशा की सूचना देता। इसलिए वायुपुत्र उस और तुरंत तेजी से दौड़े

जहाँ वह स्वर्णिम रथ दिखाई दे रहा था और उसे रोकने की कोशिश की,

किंतु वे उसकी तीव्र किरणों से झुलस गए। अगले ही क्षण आदित्य को

पश्चाताप हुआ जब उसे पता चला कि उनकी किरणों ने, राक्षसों के

विनाश में राम का साथ देने वाले उनके प्रिय सहायक को जला दिया है।

अतः आदित्य ने वानर के जले हुए शरीर का कायाकल्प कर दिया और

उसे चेतना में ले आया। हनुमान ने उस

से उस रास्ते पर न चलने की

प्रार्थना की जिस रास्ते पर वह चल रहा था। लेकिन मनुष्य के दुख और

संताप प्रकृति की दिशा को नहीं बदल सकते। फिर भी, आदित्य ने यहाँ

तक अपनी सहमति दी कि वह बादलों के आवरण के पीछे अपनी यात्रा

करेगा ताकि दिन रात्रि के समान दिखाई दे

संतुष्ट होने पर, हनुमान ने अपनी उड्डान दोबारा शुरु की और

शीघ्र ही सरबाय पर्वत की चोटी पर चढ़ गए। फिर उन्होंने जड़ी-बूटी के

लिए पुकारा, तुरंत नीचे से आवाज आई, “मैं यहाँ हूँ । हनुमान नीचे चले

गए और दोबारा पुकारा लेकिन इस बार चोटी से आवाज आई ‘मैं यहाँ

हँ, हनुमान ऊपर गए और फिर नीचे आए। इसप्रकार जड़ी-बूटियों की

भ्रमित करने वाली आवाज का अनुसरण करते हुए हनुमान ऊपर और

नीचे, नीचे और ऊपर, दौड़ते रहे।

भ्रमित होने पर उन्होंने अपने शरीर को पर्वत जितना बड़ा किया

और इसे अपनी पूँछ से चारों ओर से लपेट लिया। तब, जहाँ कहीं से और

जब कभी उन्होंने जड़ी-बूटी की जबाबी आवाज सुनी, तभी एकदम उसे

जड़ से उखाड़ लिया। कुछ ही समय में उन्हंोंने अपनी संतुष्टि लायक

जड़ी-बूटियॉँ एकत्रित कर लीं । फिर भी एक चीज बाकी बची थी- अयुध्या

में बरत की निगरानी में रखा हुआ पाँच नदियों का जल। लेकिन

असंभाव्यता हनुमान को कभी पराजित नहीं कर पाई। वे तुरंत अयुध्या की

ओर उड़ चले और बड़ी जल्दी वांछित जल लेकर वापस लौट आए। तब

दवा भलीभाँति तैयार की गई और दे दी गई जिससे लक्षण का समाप्त

होता हुआ जीवन लौट आया और इसने राम और उसकी सेना में नई

खुशी और आशा का संचार कर दिया

वानरों की खुशी का शोर कुंभकर्ण तक पहुँच गया जिसने उसे

और अधिक कृतसंकल्प कर दिया। अब उसने पूरी सेना को बिना किसी

को छोड़े मारने का दृढ़ निश्वय किया ताकि बाद में कोई किसी मृत को

जीवित करने के लिए न बच सके । इसप्रकार कृतसंकल्प हो उसने अपने

शरीर को ब्रह्मा के शरीर जितना बड़ा कर लिया और पर्वत से शत्रु के

शिविर की ओर बहने वाली नदी पर लेटकर उसके मा

र्ग को अवरुद्ध कर

दिया।

सात दिन तक वह जीवित बाँध की तरह वहाँ लेटा रहा। नदी

का पानी पूरी तरह से अवरुद्ध हो गया और वानर शिविर में प्यास के

कारण मौत का आधिपत्य हों गया। बिभेक जानता था कि यह सब

कुभकर्ण के कारण है, लेकिन उसे यह मालुम नहीं था कि वह राक्षस कहाँ

पर लेटा हुआ है? उस र्थान का पता केवल मालिनों को ही था। इसलिए

हनुमान ने एक बाज का रूप धारण किया, उड़ते हुए नीचे बगीचे में चले

गए, उन मालिनों में से एक को मार दिया और उसका रूप धारण कर

लिया। अन्य मालिनों के बीच में मिलकर वे आसानी से वहाँ पहुँच गए

जहाँ वह राक्षस पानी के प्रवाह को अवरुद्ध किए हुए लेटा था। जैसे ही वे

वहाँ पहुँचे, वे अपने स्वरूप में वापस आ गए और उनके एक भारी प्रहार

ने कुभकर्ण को अपने पैरों पर खड़ा कर दिया। तुरंत पानी अपनी दिशा में

बहने लगा और मंडराती हुई मौत को अपने साथ बहा ले गया। हनुमान

का मुकाबला करने में असमर्थ राक्षस बच कर भाग खड़ा हुआ।

अगले दिन उसने फिर वानर सेना पर अपने विशाल भाले से

आकृमण किया। राम ने उसका सामना किया। नारायण के अवतार राम

का ब्रह्मास्त्र पराक्रमी राक्षस का खून पीने के लिए निकल पड़ा और प्रहार

कर उसे धराशायी कर दिया। इसप्रकार वह अदम्य कुंभकर्ण फिर कभी न

उठने के लिए धरती पर गिर पड़ा और ऑँख बंद होने से पहले उसके

सामने चारों हाथों में शंख, चक्, गदा और त्रेशूल

राक्षस के लिए स्वग का द्वार खोलते हुए राम नारायण के रूप में प्रकट

हुए

लिए और पश्चातापी

उल्लेखनीय बिंदु

यद्यपि दोनों रामायणों के अनुसार, कुभकर्ण का वध राम के छ्वारा

किया गया है तथापि कुभकर्ण के आकृमण का तरीका दोनों में

अलग-अलग वर्णित है। वा. में कुंभकर्ण जागने के बाद जब युद्ध क्षेत्र में

गया, वह तब तक वहाँ बना रहा, जब तक उसकी मृत्यु नहीं हो गई।

किंतु रामर्ीर्ति में तो वह कई बार युद्धक्षेत्र को छोड़ कर चला गया।

रामकीर्ति में वर्णित कुंभकर्ण द्वारा पूछी गई पहेली, कुंभकर्ण द्वारा अनुष्ठान

करना, लक्षण को मूर्च्छित करना और नदी

पर बाँध की तरह लेट जाने

वाले प्रसंग वा. में नहीं हैं। कुभकर्ण द्वारा सुग्रीव को काख में दबाने की

घटना दोनों में है, परंतु सुग्रीव के आजाद होने का वर्णन भिन्न है।

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

‘महाबली कुंभकर्ण मारा गया’, यह सुनकर रावण शोक से संतप्त

और मूरच्छित हो गया। देवांतक, नरांतिक, त्रिशिरा आदि भी फूट-फूट कर

रोने लगे। थोड़ी देर बाद त्रिशिरा ने रावण को सांत्वना देते हुए स्वयं युद्ध

में जाने की बात कही जिसे सुन रावण को ऐसा लगा कि मानो उसे नया

जन्म मिल गया हो। त्रिशिरा की बात को सुनकर देवांतक, नरांतक और

तेजस्वी अतिकाय भी समर भूमि को जाने के लिए उत्साहित हो गए। वे

सभी महाकाय निशाचर गर्जते, सिंहनाद करते और बाण हाथों में लेकर

युद्ध क्षेत्र में जा पहुँचे । राक्षसों और वानरों में भयंकर यु्ध हुआ। नरांतक

और त्रिशिरा का वध हनुमान द्वारा, महोदर का नील द्वारा, महापाश्र्व का

ऋषभ द्वारा और अतिकाय का वध लक्ष्मण द्वारा कर दिया गया। उन सभी

की मृत्यु का समाचार पाकर रावण बड़ा ही हतोत्साहित हो गया। रावण

को शोक के समुद्र में निमग्न एवं दीन हुआ देख इंद्रजित ने कहा, ‘तात!

राक्षसराज! जब तक इंद्रजित जीवित है, तब तक आप चिंता और मोह में

न पड़िए। इस इंद्रशत्रु के बाण से घायतल होकर कोई भी समरांगण में

अपने प्राणों की रक्षा नहीं कर सकता। ऐसा कहकर अपने पिता से आज्ञा

लेकर उसने युद्धभूमि के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में उतरकर अग्नि में

आहूति देकर उसने ब्रह्मास्त्र का आवाहन किया और अपने रथ, धनुष

आदि सब वस्तुओं को वहाँ सिद्ध मंत्र से अभिमोंत्रित करके रणभूमि में प्रवेश

किया। युद्ध में वानरों को नष्ट करते हुए उसने राम-लक्ष्मण पर चमकीले

बाणों की वर्षा की। जब राम और लक्ष्मण दोनों इंद्रजित के बाणों से

घायल हो गए तो उसने हर्ष से गर्जना

की और लंका लौट गया।

राम-लक्ष्मण तथा अनेक वानरों के निश्चेष्ट हो जाने पर वानर

सेनापति किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए। तब विभीषण ने उनके मूर्छित होने का

कारण ब्रह्मास्त्र को बताया। जांबवान ने उन सब की मूच्छो को दूर करने

के लिए हनुमान से ऋषभ पर्वत और कैलास पर्वत के बीच में उत्पन्न हुई

मृत संजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्ण किरण और संधानी नाम की औषधियों

को लाने के लिए कहा। जांबवान की बात सुनकर हनुमान असीम बल से

भर गए और उन पर्वतशिखरों की ओर उड़

प्रकाशित होने वाले पर्वत को देखकर हनुमान आश्चर्यचकित रह गए।

पर्वत पर विद्यमान औषधियाँ यह जानकर कि कोई उन्हें लेने आ रहा है,

तत्काल वहाँ से अदृश्य हो गई। यह देख हनुमान ने कुद्ध होकर पूरा

पर्वत ही उखाड़ लिया और त्रिकूट पर्वत पर लौट आए । औषधियों की

सुगंध मात्र से ही वे दोनों भाई स्वस्थ हो गए, उनके शरीर से बाण निकल

गए और घाव भर गए। इसीप्रकार अन्य दूसरे प्रमुख वानर वीर क्षण भर में

नीरोगी होकर उठ खड़े हुए।

गए। अग्नि

समान

तदंतर सुग्रीव ने हनुमान के साथ मिलकर युद्ध की आगे की

रणनीति तैयार की और लंका पर मशाल लेकर धावा बोलने की आज्ञा दी।

आदेश मिलते ही वानरों ने मशाल लेकर लंकापुरी में आग लगा दी।

पर्वताकार प्रासाद धू- धू कर जलने लगे। दोनों ओर से भयंकर युद्ध होने

लगा। अंगद द्वारा कंप और प्रजंघ का, विभीषण द्वारा शोणिताक्ष का और

हनुमान द्वारा निकुंभ का वध कर दिया गया। इस समाचार को सुनकर

रावण ने खर पुत्र मकराक्ष को युद्ध के लिए भेजा जो राम के द्वारा मार

फिर कुद्ध रावण ने इंद्रजित को युद्ध की आज्ञा देते हुए कहा,

‘वीर! तुम महापराक्रमी राम और लक्ष्मण दोनों भाईयों को छिपकर या

प्रत्यक्ष रूप से मार डालो; क्योंकि तुम बल में सर्वथा बढ़े-चढ़े हो। । आज्ञा

पाकर इंद्रजित ने हवन किया और रथ में बैठकर युद्धक्षेत्र के लिए प्रस्थान

किया। उसका रथ आकाश में था और वहीं से वह राम-लक्ष्मण को पैने

बाणों से बींधने लगा। इंद्रजित ने माया से धूम्रजनित अंधकार की सृष्टि

की जिस कारण वह किसी को दिखाई नहीं दे रहा था और उस

वातावरण में वह उनके ऊपर नाराच बा्णों की वृष्टि करने लगा। तब वे

दोनों वीर भी उस पर तीखे बाण छोड़ने लगे चूंकि

अंतर्धान शक्ति से

दिया गया

उसका रथ छिपा हुआ था, इस कारण उस कूरकमा राक्षस का वध करने

के लिए राम इधर -उधर दृष्टिपात करने लगे।

राम के मनोभावों को समझकर इंद्रजित एक बार तो लंकापुरी

चला गया लेकिन अनेक राक्षसों के वध का समरण आते ही वह पुनः

रणभूमि में आ गया। राम-लक्ष्मण को युद्ध के लिए तैयार देख उसने उस

समय अपनी माया प्रकट की। उसने उससे मायामयी सीता का निम्माण

कर अपने रथ पर बैठा लिया। हनुमान ने उसके रथ पर जब सीता को

बैठे देखा, तो वे मुख्य-मुरख्य वानरों के साथ उस रावणपुत्र की ओर दौड़े।

उन वानरों को अपनी ओर आते देख इंद्रजित बहुत कुद्ध हुआ और वह

सीता के केशों को पकड़कर उन्हें घसीटने लगा। सीता की ऐसी अवस्था

देख हनुमान कुपित होकर आयुध धारण करने वाले वानर वीरों के साथ

उस पर टूट पड़े । इंद्रजित ने कुपित होकर सीता को मार डालने के लिए

कहा और स्वयं ही तेज धार वाली तलवार से उन पर घातक प्रहार किया

जिससे वह नीचे गिर पड़ीं। तत्पश्चात इंद्रजित हर्ष के साथ जोर -जोर से

सिंहनाद करने लगा।

सीता पर इंद्रजित के द्वारा किए गए प्रहार से हनुमान बहुत कुद्ध

हो रहे थे। उन्होंने इंद्रजित पर एक शिला पफेंकी जिससे उसे बड़ी पीड़ा

हुई। हनुमान ने वानरों से युद्ध न करने के लिए कहा क्योंकि जिनके लिए

युद्ध हो रहा था, वह सीता तो मारी जा चुरकी थीं। हनुमान को राम के

पास जाते देख वह भी होम करने की इच्छा से निकुंभिला देवी के मंदिर

चला गया। जब सीता को मारे जाने का यह समाचार राम को सुनाया

गया तो राम मूर्च्छित हो कर नीचे गिर गए। होश आने पर लक्ष्मण ने उन्हें

समझाया

इसे इंद्रजित की माया बताया और यह भी बताया कि इस समय वह

निकृंभिला देवी के मंदिर में होम करने के लिए गया है। उन्हें उसके

होम-कर्म में विघ्न डालना चाहिए। राम के समक्ष जब यह बात आई तो

उन्होंने लक्ष्मण को महामना विभीषण तथा वानरराज सूग्रीव की सेना को

साथ लेकर इंद्रजित का वध करने की आज्ञा दी। विभीषण हनुमान के

साथ उस स्थल पर चले गए जहाँ इंद्रजित हवन कर रहा था।

विभीषण को जब सीता वाले

समाचार का पता चला तो उन्होंने

विभीषण ने हवन-कर्म की समाप्ति से पहले ही मोर्चा बाँधे खड़ी

उस राक्षसपुत्र की सेना पर वज्जतुल्य बाणों से धावा बोलने के लिए कहा।

अचानक हुए धावे से इंद्रजित कोध में भर गया और अनुष्ठान छोड़ युद्ध

के लिए उठ खड़ा हुआ। लक्ष्मण और इंद्जित के बीच वाक्युद्ध के

साथ-साथ भयंकर अस्त्र युद्ध भी होने लगा। इंद्रजित ने एक बार तो

लक्ष्मण को घायल कर दिया। इस पर अत्यंत कूद्ध होकर उन्होने उस पर

पाँच नाराच बाण छोड़े जिनसे आहत हुआ वह आगबबूला हो गया। उसने

भी अपने द्वारा छोड़े गए तीन बाणों से उन्हें घायल कर दिया और इस

प्रकार अपना बदला चुका लिया। एक ओर पुरुरषसिंह लक्ष्मण थे तो दूसरी

ओर राक्षससिंह इंद्रजित। दोनों का वह संग्राम भयंकर था। लक्ष्मण के

द्वारा इंद्रजित के सारथि का वध कर दिया गया। वानरों द्वारा उसके घोडों

का वध कर दिया गया। इससे कुपित हुए इंद्रजित ने राक्षसों से दूसरा

रथ लाने के लिए कहा। दूसरे रथ पर सवार इंद्रजित ने अपने बाणसमूहों

द्वारा सैंकडों और हजारों युथपतियों को मार गिराना आरंभ कर दिया जिसे

देख लक्ष्मण के कोध की सीमा न रही। उन्होंने फु्ती दिखाते हुए उसके

धनुष को काट डाला और पाँच भयंकर बाणों से इंद्रजित की छाती में

गहरी चोट पहुँचाई। इस प्रकार वे दोनों रोष में भरकर एक-दूसरे को

बाणों की वर्षा कर घायल करने लगे। अंत में लक्ष्मण ने आअपने धनुष पर

ऐंद्रास्त्र रखकर उसे खींचते हुए अपने अभिप्राय को सिद्ध करने वाली बात

कही, ‘यदि दशरथनंदन भगवान श्री राम धर्मात्मा और सत्यप्रतिज्ञ हैं तथा

पुरुषार्थ में उनकी समानता करने वाला दूसरा वीर नहीं है तो हे अस्त्र!

तुम इस रावणपुत्र का वध कर डालो। ऐसा कह कर उन्होंने उस बाण

को इंद्रजित पर छोड़ दिया जिससे इंद्रजित का मस्तक धड़ से कटकर

धरती पर गिर गया। महाबाहू इंद्रजित निष्प्राण हो कर शांत किरणों वाले

सूर्य के समान निस्तेज हो गया जिसे देख वानरों से युद्ध करते राक्षस

अपनी सुध-बुध खो बैठे और अस्त्र -शरस्त्र छोड़कर तेजी से लंका की ओर

भाग गए। राक्षस का कध हुआ देख वानर किलकिलाे, कूदते और गर्जते

हुए हर्ष का अनुभव करने ल

गे।

रामकीर्ति के अनुसार

मृत्यु के

पश्चात् राक्षसी

सेना का नेतृत्व अब

इंद्रजित पर आ गया। उसका जन्म मंडो से हुआ था। पहले वह रणबक्त्र

नाम से पुकारा जाता था। उसके पास तीन दुर्जेय अस्त्र थे-ईस्वर से

मिला ब्रह्मास्त्र, ब्रह्मा से मिला नागपाश और विष्णु से मिला विष्णूपनाम।

एक बार उसने इंद्र की दिव्य प्रतिष्ठा को लज्जास्पद बना दिया था उसी

के कारण उसका नाम इंद्रजित पड़ गया। ऐसा अदम्य था इंद्रजित जिसने

शेरों द्वारा खींचे जाने वाले रथ पर सबवार हो, अब राम और उसकी सेना

को ललकारा।

लक्षण उसका सामना करने के लिए आगे आए। इंद्रजित के

धनुष ने अविराम और बिना किसी बाधा के मौत की वर्षा करनी शुरु कर

दी। वानरों ने बड़े जोश से उसका सामना किया किंतु वे उसके अचूक

बाणों के सामने वैसे ही बह गए जैसे कि भयंकर तूफान के साथ सूखी

पत्तियाँ। जमीन पर पड़े हुए वानरों को गिना नहीं जा सकता था। उन्हीं

के साथ हनुमान और सुग्रीव भी अशक्त और मूच्छित पड़े हुए थे। तब

लक्षण वहाँ आए और उन्होंने उसके उस विनाशकारी वेग को रोक दिया।

दोनों शूरवीरों में युद्ध हुआ, उनके बाण तब तक अग्नि और जल की वर्षा

करते रहे जब तक कि वे आगे युद्ध करने लायक न रहे। तब उन्होंने युद्ध

विराम किया किंतु विजय किसी को न मिली।

अपने संपूर्ण युद्ध-जीवन में पहली बार युद्ध में बराबरी पर रहे

इंद्रजित ने वापस आने के बाद, अपने बाणों की निष्क्िय शक्ति को जाग्रत

करने के लिए कुंभनीय देवी का यज्ञ करने का निश्चय किया। तदनुसार

वह एकांतवास के लिए आकाशगिरि पर्वत पर चला गया और अनुष्ठान

आरंभ कर दिया।

लेकिन अब एक समस्या उत्पन्न हो गई। वानर सेना इंद्रजित

की अनुपसिथिति का लाभ उठा कर नगर पर धावा बोल सकती थी।

इसलिए दसकंठ ने खर के पुत्र मकरकंठ को बूलवाया और आदेश दिया

कि वह शत्रू सेना को उलझाए रखे और आगे बढ़ने से रोके रखे। किंतु

मकरकंठ को युद्ध के लिए भेजने का मतलब था उसकी निश्चित मौत।

चूंकि अपने पहले जन्म में वह दराबी था

इसलिए उसका राम के द्वारा

मारा जाना नियतिबद्ध था। इसके बावजूद उस राक्षस ने बहादुरी से युद्ध

किया और एक सीमा तक उसने वानर सेना को आतंकित कर दिया।

अपने आप को अनगिनत रूपों में बदलते हुए उसने संपूर्ण आकाश पर

कब्जा कर लिया, और फिर अग्नि की वर्षा करने लगा जिसने संपूर्ण सेना

को भय से विह्ल कर दिया। किंतु अंत में राम के ब्रह्मास्त्र ने उसकी

विनाशकारी शक्ति का अंत कर दिया और उसे उसके शाप से मुक्त कर

दिया

अब युद्धस्थल से इंद्रजित की लंबी अनुपस्थिति ने राम की सेना

में शंकाओं और विचार -विमर्श को जन्म दिया। लेकिन बिभेक जानता था

कि वह कहाँ पर है और वह किस कारण अनुपस्थित है। उन्होंने राम को

बताया कि उसके अनुष्ठान में किस तरह से बाधा डाली जा सकती है।

यह काम केवल एक भालू के द्वारा ही किया जा सकता था जो उस पेड़

को तोड़ दे जिसके नीचे इंद्रजीत अनुष्ठान कर रहा था। जंबुवान ने इस

कार्य के लिए स्वयं को स्वेच्छा से प्रस्तुत किया और भालू का रूप धारण

कर वह तुरंत हवाई मार्ग से वांछित पेड़ की ओर चल दिया।

इंद्रजित उस समय गहन ध्यान में लीन था। उसके वैदिक मंत्रों

के उच्चारण की शक्त ने सृष्टि के समस्त सर्पों को वहाँ इकट्ठा कर

दिया था और उन सभी ने नागपाश को जहर से स्नान कराने के लिए

अपने जहर को उगलना शुरु किया ही था कि तभी अचानक पेड़ गिर कर

दो भागों में टूट गया। अचंभित सर्पों ने इसे गरुड के पंखों की

फड़फड़ाहट समझा और जितना जल्दी हो सकता था, वे सभी जमीन के

नीचे चले गए । इससे पहले कि राक्षस जंबुवान के बच निकलने का रास्ता

बंद करता, वह आकाश में उड़ गया और शिविर में पहुँच गया। परेशान

हो इंद्रजित ने अपने बाणों को उठाया, यद्यपि वे निष्क्रिय थे और अपनी

सेना का नेतृत्व करते हुए शत्रु का सामना करने के लिए चल दिया।

रास्ते में जाते हुए वह विरुनामुख से मिला जो सेना की एक

का नायक था। इसप्रकार अचानक सेना में वृद्धि हो जाने से

इंद्रजित ने वानर सेना पर आकृमण कर दिया। लेकिन लक्षण के सामने

राक्षस बुरी तरह से भयभीत हो गए। एक भयंकर यु

द्ध के पश्चात् भी

टुकड़ी

विजय दोनों पक्षों के बीच झूल रही थी। तब इंद्रजित ने विरुनामुख को

सलाह दी कि वह लक्षण और उनकी सेना को चकमा देने के लिए उसके

स्वरूप को धारण कर ले, ताकि वह स्वयं ऊपर अआकाश में चला जाए और

नागपाश छोड़ दे

लक्षण और उनकी सेना का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया। असली

इंद्रजित इस अवसर

नागपाश छोड़ दिया। उसी समय वह बाण असंख्य सपों में बदल गया जो

आकाश मार्ग से रेंगते हुए नीचे आए और वानरों पर जहर उगलने लगे।

वे सभी मुर्चछत हो कर गिर पड़े और सर्पों की कुंडली में उलझ गए और

उनके साथ ही उनके सेनानायक लक्षण भी गिर गए

मूर्च्छित शरीर को रणक्षेत्र के खूनी दलदल में छोड़कर विजयी होकर लौट

गया।

तत्क्षण विरुनामुख ने इंद्रजित का स्वरूप धारण कर

लाभ उठा कर आकाश

में चला

गया और

इंद्रजित लक्षण के

तब राम वहाँ आए, जहाँ लक्षण निरज्जीव वानरों के बीच मूर्च्छत

पड़े थे। बिभेक के कहने पर उन्होंने ब्लैवट बाण को आकाश में छोड़ा

जिससे क्षण भर में गरुड़ नीचे आ गया और उसके चंचुप्रहार से सर्प ऊपर

उड़ गए। लक्षण और सभी वानर होश में आ गए।

इंद्रजित बहुत आश्चर्यचकित हुआ, ‘”किस प्रकार के शत्रु हैं ये जो

मृत्यु के द्वार से वापस लौट आये! फिर भी वह उन सभी को मौत के मुँह

में वहाँ पहुँचाएगा जहाँ से कोई भी वापस नहीं लौट सकता।’ इसलिए वह

समुद्र के तट पर गया और ब्रह्मास्त्र की निषकिय शक्ति को जाग्रत करने

के लिए ईस्वर का आहवान करने लगा। लेकिन पूर्ण दृढ़ संकल्प के साथ

किए गए अनुष्ठान का कोई परिणाम न निकला, क्योंकि दसकंठ ने उसके

पास कंपन की मौत की खबर भेज दी थी, जिसका उसी समय हनुमान

द्वारा वध किया गया था। अनुष्ठान के समय इस दुखद समाचार को प्राप्त

करना उसकी असफलता की पूर्व सूचना थी। इसका एकमात्र उपाय एक

काली गाय का बलिदान था जिसे इंद्रजित ने एकदम कर दिया और

इसप्रकार इंद्रजीत के बाण की निष्कृय शक्ति जाग्रत हो गई।

अतः अजेय ब्रह्मास्त्र को धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ाकर इंद्रजित

शत्रु का सामना करने लगा। फिर अपनी

चमत्कारिक शक्तियों के द्वारा

उसने अनेक देवताओं से धिरे रहने वाले इंद्र के दिव्य स्वरूप को धारण

कर युद्धक्षेत्र को अचानक कांतियुक्त दिव्य आश्रम में बदल दिया। वानरों

का नेतृत्व कर रहे लक्षण दिव्य आश्रम को देख कर यह भूल गए कि इस

समय वे जिंदगी और मौत के बीच खड़े हैं।

इंद्रजित ने लक्षण की इस विस्मरणशीलता का फायदा उठाया

और उन पर अजेय ब्ह्मास्त्र छोड़ दिया और पूरी सेना को धराशायी कर

दिया। लेकिन हनुमान अब भी जीवित थे। उन्होंने देख लिया था कि उस

प्राणांतक बाण को चलाने वाला कौन था। उन्होंने तुरंत आकाश में छलांग

लगाई और नकली ऐरावन की गरदन तोड़ दी जिस पर नकली इंद्र बैठा

हुआ था। लेकिन इंद्रजित के एक प्रहार ने उनको मूच्छित कर जमीन पर

पटक दिया। इसप्रकार इंद्रजित ने चहेते विजयी बालक की तरह रणक्षेत्र

से प्रस्थान किया।

यह समाचार राम तक पहुँच गया और वे शीघ्रता से घोर

पराजय वाले घटनास्थल की ओर दौड़े। जैसे ही वह दृश्य उनकी आँखों

के सामने आया, वे मूर्च्िछत होकर ऐसे गिर पड़े जैसे कोई वृक्ष जड़ से

काटने पर गिर जाता है। । इसप्रकार राम अपने छोटे प्रिय भाई लक्षण के

पास मूच्छित अवस्था में पड़े थे, मानो मर चुके हों और हमेशा के लिए

चले गए हों और उनके चारों तरफ वानर भी निर्जीव पड़े थे। उस क्षेत्र में

जहाँ उन्होंने कभी अपनी अत्यंत चमत्कारिक शक्तियों का प्रदर्शन किया

था, अब वहाँ उनके मृत शरीरों से एक विशाल श्मशानघाट बन चुका था।

समाचार लंका के प्रमुदित राजा के पास पहुँचा। खुशी और

संतोष से चमकती हुई बीस आँखों वाले राजा ने एक राक्षस को उस

बगीचे में भेजा जहाँ सीता उत्सुकता से अपने पति की विजय की आस में

रात और दिन बिता रही थीं। फिर अचानक हुए वज्धपात के समान बुरा

समाचार उस राक्षस के कूर होंठों से फूट पड़ा कि उनके पति संपूर्ण वानर

इसने उनकी अंतिम आशा

सेना के साथ अपनी मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं

50

सं ऐरावत, इंद्र

का हाथी

रामकी्ति पू 92

को भी चूर -चूर कर दिया। इस में अब कोई संदेह नहीं था, पर सीता ने

इसे अपनी आँखों से देख स्वयं सुनिश्चित करना चाहा।

इसलिए

सीता

त्रिजटा के

साथ पुष्पक विमान में बैठकर

युद्धस्थल के लिए चल दीं । जैसे ही वह दृश्य उनकी आँखों के सामने

आया, उनकी आशा की धूमिल किरण भी बुझ गई। निश्चत रूप से ही

राम वहाँ पर पड़े थे, कभी न उठने के लिए, अपने प्यार भरे शब्दों से

कभी न लाड़ लड़ाने के लिए तथा उनके आँसू कभी न पोछने के लिए।

निस्संदेह, अयुध्या के राजकुमार मृतकों के बीच पड़े थे। उनके गालों पर

अश्रुधारा प्रवाहित होने लगी और उनका दिल दुख और निराशा से

टुकड़े-दुकड़े हो गया।

तब अचानक त्रिजटा ने उनमें आशा और सांत्वना की

एक

धुंधली सी किरण जगाई। क्या राम वास्तव में मर गए हैं अथवा केवल

बेहोश हैं? पुष्पक ही इसका सबसे बड़ा निर्णायक होगा क्योंकि जब कोई

विधवा स्त्री उस पर बैठेगी, वह ऊपर नहीं उड़ेगा। इस तथ्य की जॉँच

बार मंडो द्वारा की जा चुकी है और इसकी दोबारा जाँच की जा

सकती है। अतः सीता पुष्पक में बैठ गई। उनको अत्यंत हर्ष हुआ कि वह

रत्नजटित पुष्पक विमान चमकते हुए आकाश में उड़ गया और उन्हें उनके

तुच्छ निवास पर सुरक्षित पहुँचा दिया। राम अब भी जीवित थे, किंतु

बेहोश, वह दिन अवश्य आएगा जब उनका पराक्रम उनके अंधकारयुक्त

जीवन को सूर्य के प्रकाश समान जगमगा देगा।

इसी बीच बिभेक लौटे जो खाद्यसामग्री की वितरण व्यवस्था में

कहीं और व्यस्त थे। उन्होंने सेना की दुर्दशा देखी। लेकिन उन्हें इससे

कोई निराशा नहीं हुई। वह जानते थे कि कोई भी हनुमान को नहीं मार

सकता क्योंकि वे ईस्वर की अनुकंपा से अमर थे। उन्होंने वैदिक मंत्रों का

उच्चारण करते हुए हनुमान पर फूंक मारी। उस विशाल वानर ने अपनी

ऑँखें

एकाएक वह पूरा मामला समझ गए और तेजी से उठ खड़े हुए।

खोलीं और धीरे-धीरे व्याकु

लता से पलकें झपकने

लगे। फिर

रात का समय था। ताजी- ताजी औस की बूंदें मृतकों के शरीर

पर दिव्य मलहम के समान पड़ रही थीं और उनकी पीड़ा को कम कर

रही थीं। एक -एक करके राम के संगी-साथी अचेतावस्था से उठने लगे।

लेकिन ब्रह्मास्त्र के शिकार लक्षण और दूसरे अब भी मुचिछत पड़े हुए थे।

केवल पब्बाविदेह द्वीप के अवुध पर्वत पर लगी जड़ीबृट्ियों से निर्मित

मलहम ही ब्रह्मास्त्र द्वारा दिए गए कष्ट को कम कर सकता था और

उनके जीवन को लौटा सकता था। इन जड़ीबूटियों का पता केवल

जंबुवान को ही था जिसके बारे में उसे तब पता चला जब वह ईस्वर की

सेवा करता था। किंतु वह जड़ीबूटी एक घूमते हुए चक्र के पहरे में थी।

जो भी उस जड़ीबूटी को पाने की कोशिश करता, वह टुकड़े-दुकड़े हो

मृत्यु को प्राप्त हो जाता। केवल एक ही व्यक्ति था जिसके लिए उस तक

पहुँचना अआसान था और वे थे हनुमान। इसलिए पवन पुत्र ने तुरंत

आकाश में छलांग लगा दी और पर्वत की औओर उड़ चले।

कुछ ही क्षणों में एक विशाल आकृति की काली छाया ने अर्द्धचंद्र

को ढक लिया जो सेना के ऊपर चॉदनी बिखेर रहा था। उन सभी ने

ऊपर देखा और सोचा कि हनुमान पर्वत को लेकर लौट आए हैं। पर्वत

को उत्तर दिशा में रखा गया

जो जड़ीबूटियों की जीवनदायक सुगंध को साथ लिए थी और यह उस

समस्त विनाशकारी युद्धभूमि में फैल गई। यह ब्रह्मास्त्र -पीड़ितों पर पड़े

मौत के भय को अपने साथ बहा ले गई और उनको नूतन और ओजस्वी

जीवन प्रदान किया। इसप्रकार लक्षण अपनी मूच्छा से जाग गए और वैसे

ही उनके भाग्य के साथी सभी वानर भी।

तभी वहाँ एकाएक मंद -मंद हवा बहने लगी

अपनी चाल के विफल हो जाने पर इंद्रजित इस बार कुछ दूसरी

कपटभरी चालों के बारे में सोचने लगा जो राम और उसकी सेना को

लंका से बाहर निकाल दें । यह सीता ही थी जिसके लिए राम ने इस द्वीप

पर आकृमण किया था। इसलिए यदि सीता का अंत कर दिया जाए, युद्ध

स्वयं ही समाप्त हो जाएगा। लेकिन इसमें दसकंठ एक दुभेद्य व्यवधान

बना हुआ था। अतः उसके पास केवल एक मायावी सीता का सहारा लेने

के

और कोई दूसरा रास्ता न था।

उसी समय अपने पद का दुरुपयोग करने का अपराधी होने के

कारण शुकसार को मृत्युदंड दिया गया था। इंद्रजित द्वारा सूचित की गई

नई योजना के अनुसार दसकंठ ने उसे आदेश दिया कि वह सीता का

वेश धारण करे और इंद्रजित के साथ उसके रथ में जाए। अपने रथ में

मायावी सीता के साथ इंद्रजित युद्वस्थल की ओर चल दिया और शीघ्र ही

उसका मुकाबला लक्षण के साथ हुआ।

इस बार लक्षण के बाण उसके धनुष में ही रह गए और शन्र पर

अपना तीखापन दिखाने के लिए नहीं चल पाए इंद्रजित के र्थ में सीता

की उपस्थिति ने लक्षण से उनकी फुर्तीली शक्ति का हरण कर लिया था

और वे उनके दयनीय रूप को विस्मित से देखते रह गये

तभी एकाएक

वे इंद्रजित की गरजती हुई आवाज को सुनकर चौंकन्ने हो गए। क्या

लक्षण आगे आयेगा और सभी मुसीबतों की जड़ सीता को ले जायेगा और

लंका को शांत रहने के लिए छोड़ देगा? लक्षण ने उसके प्रस्ताव पर

अपनी सहमति जताई और उससे उन्हें भेजने के लिए कहा। पर हमेशा

विजयी रहने वाला इंद्रजित उनके सम्मान को ठेस पहुँचाए बिना स्वयं ही

सीता को कैसे भेज सकता था? इसलिए एक व्यंग्यात्मक अट्ठाहस के

साथ उसने सीता का सिर काट दिया और उसे पूर्णतया व्याकुल लक्षण

पर फेंक दिया। उसी समय फिर इंद्रजित की धमकी भरी गर्जना दोबारा

गूँजी कि वह अब आयुध्या शहर की ओर कूच करेगा, उनके महल पर

धावा बोलेगा और उनके सिंहासन के टुकड़े-टुरकड़े कर देगा। तत्पश्चात्

वह उनके सामने ग्वपूर्वक विजयी ध्वज फहराते हुए युद्धक्षेत्र से चला

गया।

लेकिन यह एक काल्पनिक विजय थी जो इंद्रजित के साथ जा

रही थी क्योंकि बिभेक जानता था कि असली सीता अब भी दसकंठ के

शाही बगीचे में बंधक हैं और जो सिर लक्षण के ऊपर फेंका गया था, वह

एक मायावी सिर था, शुक्कसार का सिर। और वह यह भी जानता था कि

इंद्रजित अपनी सेना लेकर अयुध्या पर आकृ

मण करने नहीं जा रहा था

बल्कि वह कुंभनीय के यज्ञ के आयोजन की तैयारी करने जा रहा था

जिससे वह अदृश्य होने की चमत्कारिक शक्ति प्राप्त कर लेगा तथा इससे

उसे और साथ ही उसकी सेना को भी किसी शस्त्र के प्रहार से बचने की

प्रतिरोधक क्षमता प्राप्त हो जाएगी।

इसलिए बिभेक लक्षण को उधर ले गए जहाँ इंद्रजित अपने

अनुष्ठान कर रहा था। अचानक

सुरक्षित समझे जाने वाले स्थान पर

विघ्न पड़ने पर वह राक्षस अपने स्थान से उठ खड़ा हुआ और घुसपैठिए

का सामना करने लगा। उसने जान लिया था कि अब वह दिन आ गया

है जब उसका अंत निश्चित है। उसका ह्ृदय अपने दुखी माता-पिता के

लिए तड़पने लगा, जिनका उसकी मृत्यु पर कोई धीरज भी नहीं बंधाएगा।

वह उनसे अंतिम विदा लेने के लिए तरसने लगा। इसलिए उसने काले

घने बादलों का निर्माण किया और उसकी आड़ में वह दसकंठ और मंडो

से विदा लेने के लिए भाग् गया।

उसी समय लक्षण अपनी विजय के प्रति इतने आश्वस्त हो गए

अलग करने के लिए

कि वह इंद्रजित के सिर को उसके धड़ से

लालायित हो उठे। लेकिन वे ऐसा नहीं कर सकते थे क्योंकि राक्षस को

ब्रह्मा से वरदान मिला हुआ था कि जब कभी उसका सिर उसके धड़ से

अलग होगा, एक भयंकर अग्निकांड संपूर्ण सृष्टि को खत्म कर देगा।

इसलिए तत्क्षण अंगद ब्रह्मा के निवास पर दौड़ कर पहुँचा और इंद्रजित

के सिर को ग्रहण करने के लिए उनका पात्र ले आया। जैसे ही वह

वापस लौटा, लक्षण ने अपना ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया जिसने उस राक्षस के

सिर को धड़ से अलग कर नीचे गिरा दिया और उसे ब्रह्मा के पात्र में

रख दिया। तब राम ने एक प्रक्षेपास्त्र छोड़ा, उससे आग की एक लपट

पैदा हुई जिसने उसके सिर को राख में बदल दिया। इससे सारा संसार

जलकर अंगार बनने से बच गया।

उल्लेखनीय बिंद्

51

सं

निकुभिला रामकीर्ति पृ 97

दोनों ग्रंथों के अनुसार, इंद्रजित का वध लक्ष्मण द्वारा ही किया

निकुभिला देवी की पूजा तथा मायावी सीता का निर्ाण दोनों में

गया है

ही है। लेकिन रा. में इस संदर्भ में कई ऐसी घटनाओं का वर्र्णन हुआ है,

जो वा. में देखने को नहीं मिलतीं जैसे इंद्रजित का रास्ते में विरुनामुख से

मिलना, इंद्रजित का इंद्र के समान दिव्य स्वरूप धारण कर दिव्य आश्रम

का निर्माण करना, सीता का त्रिजटा के साथ पुष्पक विमान में युद्धस्थल

पर जाना, अंतिम समय आता हुआ देख इंद्रजित का अपने माता-पिता से

मिलने के लिए तड़पना और घने बादलों की आड़ में उनसे मिलने के लिए

भाग जाना, इंद्रजित के सिर को रखने के लिए ब्रह्मा के निवास स्थान से

अंगद द्वारा पात्र को लेकर आना और इंद्रजित के सिर को धड़ से अलग

कर दिए जाने पर उसे पात्र में रखना, राम द्वारा प्रक्षेपास्त्र छोड़कर उस

सिर को जला देना। वा. में वर्णित घटनाओं जैसे वानरों द्वारा लंकापुरी का

दोबारा जलाया जाना, लक्ष्मण के द्वारा ऐंद्रास्त्र के प्रहार से इंद्रजित की

मृत्यु होना, का वर्णन रा. में नहीं है ।

रावण वध

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

रावण के मंत्रियों ने जब इंद्रजित की मृत्यु का समाचार सुना, तो

उन्होंने स्वयं भी उसे प्रत्यक्ष देखकर सुनिश्चित किया। इसके बाद उन्होंने

रावण से सारा हाल कह सुनाया जिसे सुनकर वह मूच्छित हो गया।

चेतना लोटने पर वह भारी विलाप करने लगा। किंतु उसकी मृत्यु का

स्मरण

सोच-विचार कर सीता को मार डालने का निश्चय किया। वह कूपित हो

उस स्थान पर जा पहुँचा जहाँ सीता विद्यमान थीं। वह कोधावेग में उनका

वध करने के लिए दौड़ा। तब उसके सुशील एवं शुद्ध आचार वाले मंत्री ने

उसे स्त्री-वध से रोक कर राम पर ही अपना कोध उतारने के लिए

समझाया। उसके इन धर्मानुकूल वचनों को सुनकर रावण महल में लौट आया।

रावण ने सिंहासन पर आरूढ हो अपने सेनापतियों से राम को

मार डालने के लिए कहा। रावण की आज्ञा से सभी राक्षस रणभूमि के

लिए प्रस्थित हुए। वानर सेना और राक्षस सेना के बीच भयंकर युद्ध होने

लगा। सुग्रव द्वारा मारे गए विरुपाक्ष के कारण रावण का कोध और भी

बढ़ गया। उसने महोदर को भेजा,

तदनंतर काल, मृत्यु और यमराज के समान भयंकर राबण धनुष हाथ में ले

राक्षसों की सेना से घिरकर युद्ध के लिए आगे बढ़ा। उस समय सूर्य की

प्रभा फीकी पड़ गई। समस्त दिशाओं में अंधकार छा गया, भयंकर पक्षी

अशुभ वाणी में बोलने लगे और धरती डोलने लगी। इन भयंकर उत्पातों

की परवाह न करता हुआ, काल से प्रेरित हो वह अपने ही वध के लिए

निकल पड़ा। उसने तामस नामक अस्त्र के प्रहार से वानरों को नष्ट

करना आरंभ कर दिया। वानरों को तितर-बितर होता देख राम युद्ध के

लिए उद्यत हो सुस्थर भाव से खड़े रहे। रावण लक्षमण को लॉँघकर राम

के पास पहुँचा और तब उन दोनों में भीषण युद्ध होने लगा।

वह भी सुग्रीव द्वारा मारा गया।

जब रावण का आसुरास्त्र नष्ट हो गया, तो उसने राम के ऊपर

दूसरे भयंकर अस्त्र का प्रयोग कर उनके मर्मस्थलों पर प्रहार किया लेकिन

वे विचलित नहीं हुए। उन्होंने भी अत्यंत कुपित होकर रावण के सारे अंगों

में घाव कर दिए। तदनन्तर विभीषण ने उछलकर अपनी गदा से रावण के

घोड़ों को मार गिराया जिस कारण अत्यंत कुद्ध हुए रावण ने विभीषण को

मारने के लिए एक वज़् के समान प्रज्ज्वलित शक्ति चलाई जिसे लक्ष्मण

ने अपने उऊपर ले लिया और उन्हें बचा लिया। फिर रावण ने लक्ष्मण के

ऊपर ही प्राणघातिनी शक्ति का प्रयोग किया जो उनकी छाती में ही प्रवेश

कर गई जिससे वे पृथ्वी पर गिर पड़े । यह देख राम पहले तो विषाद में

डूब गए किंतु बाद में संयमित हो उन्होंने शक्ति को लक्ष्मण के शरीर से

निकाल दिया। यद्यपि राम ने लक्ष्मण के शरीर से शक्ति निकाल दी थी

तथापि उनके शरीर से खून काफी बह रहा था। उस बहते हुए रक्त को

देखकर राम दुख से व्याकुल हो, चिंता और शोक में डूब गए। उन्होंने

सुषेण से लक्ष्मण का उपचार करने के लिए कहा। सुषेण द्वारा बताई

विशल्यकरणी, सावण्र्यकरणी. संजीवकरणी और संधानी औषधियाँ

हनूमानजी द्वारा लाई गई जिन्हें कूट-पीस

कर लक्ष्मण की नाक में डाल

दिया गया जिससे वे नीरोगी हो शीघ्र ही भूतल से उठकर खड़े हो गए।

राम ने उन्हें गाढ़ आलिंगन में भर लिया।

इसके बाद राम ने रावण पर लक्ष्यबद्ध बाणों का संधान करना

आरंभ कर दिया और रावण भी र्थ पर बैठा हुआ वज्ञोपम बाणों द्वारा राम

को बींधने लगा। रावण को रथ पर सवार देख इंद्र ने राम के लिए भी

सारथि मातलि के साथ रथ भेजा जिस पर राम सवार हो गए। अब राम

और रावण में द्वैरथ युद्ध आरंभ हुआ जो बड़ा ही अद्भुत तथा भयावह था।

रावण ने परम भयानक राक्षसास्त्र का प्रयोग किया जिससे छोड़े गए

सुवर्णभूषित बाण सर्प बन कर राम की ओर आने लगे। यु्धस्थल में उन

स्पों को आते देख राम ने गरुड़ास्त्र को प्रकट किया जिससे उनके द्वारा

छोड़े गए बाण गरुड़ बनकर चवारों ओर विचरने लगे। अपने अस्त्र के

प्रतिहत हो जाने पर कुद्ध हुए रावण ने उनके सारथि मातलि और इंद्र के

घोड़ों को घायल कर दिया। इसे देख देवता, गंधर्व, चारण, सिद्ध, महर्षिं

और विभीषण भी बहुत दुखी हुए। रावण के बाणों से बारंबार आहत होने

के कारण राम अपने बाणों का संधान नहीं कर पा रहे थे। तदनंतर राम ने

अपने कोध का भाव प्रकट किया जिसे देखकर रावण में भी भय समा

गया। इसी समय राम को मारने की इच्छा से रावण ने ‘शूल’ नामक

हथियार उठाया। राम ने उस हथियार का प्रतिरोध देवेंद्र द्वारा दी गई

शक्ति से किया। अपने पैने बाणों द्वारा राम ने राबण के घोड़ों को घायल

करके तीन तीखे तीरों से उसकी छाती छेद डाली। उसने भी राम की

छाती में सैंकड़ों बाण मारे। इसप्रकार उन दोनों के बीच हुए भीषण युद्ध

के कारण जब रावण में उनके प्रहारों को सहने की क्षमता नहीं रही तब

उसका सारथि उसे युद्धक्षेत्र से बाहर ले गया तथा थोड़ा ठीक हो जाने

पर उसका विशाल रथ युद्ध के मुहाने पर राम के समीप आ पहुँचा।

उधर राम युद्ध से थककर चिंता करते हुए रण भूमि में खड़े थे।

इतने में रावण भी उनके सामने युद्ध के लिए उपस्थित हो गया। यह देख

अगस्त्य तऋषि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आए थे, राम के

पास जाकर बोले, ‘राम! तुम सनातन गोपनीय ‘आदित्यहदय’ को सुनो।

यह परम पवित्र और संपूर्ण शत्रुओं का नाश

करने वाला है। इसके जप से

सदा विजय की प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षर और परम कल्याणमय

स्तोत्र है। संपूर्ण मंगलों का भी मंगल है। इससे सब पापों का नाश हो

जाता है। यह चिंता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने वाला

उत्तम साधन है। उनका उपदेश सुनकर राम का शोक दूर हो गया।

उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्ध चित्त से ‘आदित्यहदय को धारण किया। फिर

परम पराकृमी राम ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक

विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े ।

युद्ध भूमि में पहुँचने पर राम ने राक्षसराज रावण के रथ को

देखा। उसे आता देख राम ने बड़े वेग से अपने धनुष पर टंकार दी तथा

मातलि से सावधान होने के लिए कहा। आमने-सामने आ जाने पर दोनों

महारथियों में भयंकर युद्ध होने लगा। राम को अपनी जीत और रावण को

अपनी मृत्यु का अनुभव हो गया था, अतः वे दोनों ही निर्भयतापूर्वक जिस

तरह से युद्ध कर रहे थे, उसे देख सबके हदय उन्हीं की ओर खिंच गए।

रावण ने राम के ध्वज को लक्ष्य करके बाण छोड़े तो राम ने उसके ध्वज

को काटकर नीचे गिरा दिया। दोनों ने एक-दूसरे के घोड़ों को घायल

कर दिया। तदनंतर कुपित होकर राम ने अपने धनुष पर एक विषधर सर्प

के समान बाण का संधान किया जिससे रावण का सिर कट गया और वह

कटा हुआ सिर धरती पर गिर पड़ा। किंतु उसकी जगह तुरंत ही दूसरा

सिर निकल आया। उन्होंने दूसरा सिर भी काट डाला। उसके कटते ही

पुनः नया सिर उत्पन्न हो गया। इसप्रकार उसके मस्तकों का अंत होता

हुआ दिखाई नही दे रहा था।

युद्ध का अंत न होता देख मातलि ने राम को कुछ याद दिलाते

हुए कहा,’वीरवर! आप अनजान की तरह क्यों इस राक्षस का अनुसरण

कर रहे हैं? प्रभो! आप इसके वध के लिए ब्रह्माजी के अस्त्र का प्रयोग

कीजिए। देवताओं ने इसके विनाश का जो समय बताया है, वह आ पहुँचा

है। तब राम ने वेदोक्त विधि से अभिमंत्रित करके ब्रह्मास्त्र को अपने धनुष

पर रखा और उसका संधान कर रावण पर चला दिया। काल के समान

वह अस्त्र रावण का हृदय विदीर्ण करके पुनः सेवक की भाति उनके

तरकस में लौट आया। रावण के प्राण निकल

ने के साथ ही उसके हाथ से

सायकसहित धनुष भी छूटकर गिर पड़ा। रावण को पृथ्वी पर पड़ा देख

बचे हुए राक्षस भी भाग गए। सुग्रीव, विभीषण, अंगद तथा लक्ष्मण अपने

सुहदों के साथ युद्ध में राम की विजय से बहुत प्रसन्न हुए। शत्रु को

मारकर अपनी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के पश्चात् स्वजनोंसहित सेना से धिरे

हुए राम देवताओं से घिरे हुए इंद्र के समान शोभा पाने लगे।

रामकीर्ति के अनुसार

रामकीर्ति में राम और दसकंठ के बीच युद्ध शुरू होने से लेकर

समाप्त होने तक कई प्रसंग वर्णित हैं, जो इस प्रकार हैं।

(क) दसकंठ और उसके मित्रों से सामना

जब दसकंठ ने अपने पत्र की मृत्यु का समाचार सुना तो दुख

भाले की तरह उसके दिल को वेध गया। अंततः वह भी इस अंत तक

पहुँच गया,

परिवर्तन के लिए जिम्मेदार है? और उसके कुल के गौरव इंद्रजित की

मृत्यु के लिए भी सीता ही उत्तरदायी है? क्या उसे मारना अधिक अच्छा

नहीं होगा जो अप्रत्यक्ष रूप से उसके पुत्र की मृत्यु का कारण बनी?’

इसलिए वह शीघ्रता से सीता की कुटिया की ओर चल दिया और उसने

उसे मार दिया होता, यदि पाओवनासुर ने उसे इस कायरतापूर्ण कृत्य

करने से यह कह कर नहीं रोक लिया होता कि यह उसके पुत्र के जीवन

को वापस नहीं ला सकता। अपने पुत्र की मृत्यु का बदला लेने का

वीरोचित मार्ग यही है कि वह स्वयं राम को ललकारे और उसके पराक्रम

को चुनौती दे।

और कोई नहीं बल्कि सीता ही उसके भाग्य के इस दुखद

इसलिए दसकंठ अपने दस सेनानायकों और दस पुत्रों, जो

हवा, अग्नि, सूर्य और इंद्र को पराजित कर चुके थे, को लेकर युद्धभूमि

की ओर चल दिया। उधर वानरों में सम्मिलित थे-वायुपुत्र हनुमान,

अग्निपुत्र निलानन, सूर्यपुत्र सुग्रीव, और इंद्र के पौत्र अंगद। शीघ्र ही वे,

जिन्होंने उन देवताओं को पराजित किया था, उनके पुत्रों के हाथों अपनी

मृत्यु को प्राप्त हो गए।

दसकंठ ने अपनी दस भुजाओं से युद्ध किया और अन्य दस

भुजाओं से उसने अपनी रक्षा की। किंतु फिर भी वह विजय का कृपा पात्र

न बन सका।

उसने

अपने मित्र, पंग्ताल के युवराज मुलाबालम को बुलवाया। मुलाबालम अपने

बड़े भाई सहस्सतेज को साथ लेकर आया जो हजार मुखों तथा दो हजार

भुजाओं वाला था तथा जिसके सामने ईस्वर के आशीर्वाद से सभी दुश्मन

भाग खड़े होते थे। इसके अतिरिक्त, उस अपरराजेय राक्षस के पास एक

त्कारिक गदा भी थी जिसका नकीला सिरा उसके शिकार लोगों के

लिए मौत का सूचक था और उसका नुकीला अधोभाग मृतक को जीवन

न तो विजयी और न ही पराजित, वह वापस लौट आया

प्रदान करने वाला था।

जोश और गर्व के साथ दोनों भाईयों ने युद्धक्षेत्र की ओर प्रस्थान

किया। सहस्सतेज के भयंकर आकार ने वानरों को ऐसे भगा दिया जैसे

भेड़िए के सामने भेड़ों का झुंड। फिर भी लक्षण के तीक्ष्ण बाणों के प्रहार ने

मुलाबालम को धराशायी कर दिया जबकि हनुमान के चातुर्य- कौशल ने

सहस्सतेज के बढ़ते हुए प्रतिशोधी कदमों को रोक दिया।

वायु पुत्र ने उसको उसकी चमत्कारिक गदा से वंचित करने

का निश्चय किया। वे एक छोटे वानर के रूप में सिकुड गए और

जानबूझकर उसके रथ से टकरा कर उसके सामने गिर पड़े । कोधी तेवरों

से राक्षस ने अपने शक्तिशाली वाहन का परीक्षण किया और उस अपराधी

को पकड़ लिया जिसने अपना परिचय बाली के सेवक के रूप में दिया

और बताया कि वह अपने मालिक का बदला लेने आया है। प्रसन्न होकर

सहज ही विश्वास करने वाले उस राक्षस ने उसको अपना मित्र बना

लिया। वानर के चापलूसी भरे शब्दों से अत्यंत प्रसन्न होकर, उसे उसने

अपनी गदा अपने स्वामी का बदला लेने के लिए दे दी। जैसे ही गदा

उसके हाथों में पहुँची, हनुमान अपने विशाल आकार में वापस आ गए और

राक्षस को अपनी लंबी पूंछ में बांध कर, राम को स्मृति चिन्ह के रूप में

भेंट करने के लिए उसके हजार मु

ख वाले सिर को काट दिया।

सहस्सतेज की मृत्यु के बाद मकरकंठ का भाई सेंग आदित्य

उस राक्षस के पास एक चमत्कारिक शीशा था जिसके प्रतिबिंब से

आया

उसके दायरे में आई हर चीज जल जाती थी। लेकिन खुर्शी की बात थी

कि यह ब्रह्मा की देखरेख में रखा था। अतः अंगद तुरंत सेंग अदित्य के

एक शासक का रूप धारण कर ब्रह्मा के निवास की ओर दौड़ कर पहुँचा

और उसने शीशे को प्राप्त कर

चमत्कारिक अस्त्र से वंचित हो जाने के कारण, प्रवंचित राक्षस आसानी से

राम के घातक अस्त्र का शिकार हो गया।

अपने संरक्षण में ले लिया। अपने

इसप्रकार एक एक करके वे सभी राक्षस मृत्यु को प्राप्त होते गए

जिनसे दसकंठ ने आशा बांध रखी थी। अब वह नई आशा और नई संधि

कहाँ

कारनामों तथा अपने भतीजे, त्रिशिरा के पूत्र त्रिमिघ की याद आई।

दसकंठ ने उनसे सहायता मांगी तथा उन राक्षस राजाओं ने तुरंत ही

उसकी प्रार्थना का आनुकूल उत्तर दिया।

खोजे? तभी एकाएक उसे चक्वाल के राजा सत्लुंग के बहादुर

अपने नेतृत्व में विशाल सेना को लेकर सत्लुंग लंका की ओर

चल दिया। रास्ते में त्रिमेघ के नेतृत्व वाली सेना से उसकी भेंट हुई।

तत्पश्चात् संयुक्त सेनाओं ने राम को उनकी सेना सहित पराजित करने

के लिए कृच किया। लेकिन, दुख की बात! वे बड़े उत्साह से अपने अंत

की ओर बढ़ रहे थे। राम के बाण ने सत्लूंग को मौत के मुँह में पहुँचा

दिया और त्रिमेघ चक्वाल पर्वत के नीचे भाग गया और रेत में धूल के

कण के रूप छिप गया। परंतु अप्रतिरोध्य वायूपुत्र ने उसका पीछा किया

और उसे अपने मित्र के भाग्य का साझीदार बना दिया।

मित्रों से वियुक्त दसकंठ ने अब अपने संसाधनों का सहारा

लिया। किससे वह डरा हुआ था? कौन उसके शरीर को वज्ञ बना सकता

था और कौन उसकी अंगुली को मौत से सराबोर कर सकता था जैसे कि

उसने एकबार पहले भी किया था जब वह नंदक के रूप में ईस्वर की

सेवा किया करता था? लेकिन इसप्रकार की चमत्कारिक शक्ति से संपन्न

होने के लिए एक यज्ञ करने की आवश्यकता थी। इसको पूर्ण करने के

लिए केवल एक आवश्यक शर्त यह थी

कि वह अपने मस्तिष्क को पूरी

तरह सात दिन तक वैसे ही शांत रखे जैसे कि शीतकाल का शांत समुद्र ।

अगर एक बार उसके दिमाग का संतुलन टूट गया और वह गुस्से से

भड़क गया, तो उसके यज्ञ का परिणाम निराशाजनक होगा। इसलिए वह

निलाकल पर्वत की एक एकांत गुफा में चला गया और पूरे संयम के साथ

उसने यज्ञ प्रारंभ कर दिया।

दसकंठ ने हनुमान की उस चमत्कारिक क्षमता

को

समझने में भूल कर दी जो शूल बनकर उसके शरीर में निरंतर चुभ रही

थी। बिभेक के निर्देशानुसार वह विशाल वानर निलानंद और अंगद के

साथ राक्षसराज के पूजास्थल पर गया, किंतु उसे अत्यंत आश्चर्य हुआ

जब उसने द्वार को दसकंठ की अलौकिक शक्ति के द्वारा मजबूती से

अवरुद्ध पाया। वह अवरोध औरत के पैरों को धोने से अपवित्र हुए पानी

को छिड़ककर दूर किया जा सकता था। इसलिए हनुमान शीघ्रता से

अपनी राक्षस पत्नी बेनजाकया के पास गए और उस पानी को लेकर आए

जिसका उपयोग उसने अपने पैरों को धोने के लिए किया था। उसे उस

चमत्कारिक अवरोध पर छिड़क दिया जिससे उन्हें तुरंत रास्ता मिल गया।

तीनों वानर उस गुफा के अंदर दौड़े और आपस में काटते और पीटते हुए

दसकंठ के मन की शांति को भंग करने लगे। किंतु राक्षसराज अपने

स्थान पर अडिग बना रहा और अपने मन को स्थिर बनाए रखा।

असफल होने पर चातुर्य- कुशल हनुमान ने कोई दूसरी युक्ति

सोची। कुछ समय के लिए उन्होंने पूजास्थल को छोड़ दिया और वहाँ

उड़ कर चले गये जहाँ स्वर्णिम पलंग पर मंडो गहरी नींद में सो रही थी,

उसके गुलाबी खुले होंठों के बीच छाई हुई प्रसन्नतापूर्ण मुस्कान कुछ ऐसी

दिख रही थी कि जैसे चमकते हुए मोतियों का हार। अपने मंत्र द्वारा उसे

बेहोश कर, हनुमान ने उसे अपनी बांहों में उठा लिया और दसकंठ के

पूजास्थल पर वापस लौट आए।

लंका की महारानी एक वानर की बांहों में ! उसके दिल की रानी

का हरण एक पशु द्वारा किया जाने वाला है! भयंकर कोध से गरजते हुए

राक्षस ने हनुमान का पीछा किया। वानर ने तुरंत राक्षस रानी को छोड़

दिया और संतुष्ट मन से अपने शिवि

र की ओर चले गए। दसकंठ को

मूर्ख बनाया जा चुका था। कोधाग्नि ने उसके मन की शांति को भंग कर

दिया था और इसके साथ ही मौत और विनाश का साकार रूप बनने के

उसके सारे अवसर जलकर राख हो चुके थे।

घबराए हुए दसकठ ने अष्टाग के राजा सद्धासुर तथा दूषन के

जताई। दोनों राक्षस

पुत्र विरुनचंबांग के साथ संधि करने की इच्छा

उसकी मदद के लिए तुरंत आ गए। सद्धासुर अपने सभी दिव्य अस्त्रों को

अपनी सहायता के लिए आहवान करने की चमत्कारिक शक्त के साथ

आया और विरुनचंबांग अपने अदृश्य शरीर और अदृश्य घोड़े के साथ।

हनुमान ने सद्धासुर का मुकाबला किया। उसको दिव्य असत्रों से

वंचित कर देने के विचार से हनुमान ने वानरों को अपने आपको ऊनदार

बादलों के बीच छिपा लेने की सलाह दी ताकि जैसे ही सद्धासुर द्वारा

आहवान करने पर देवता अपने अस्त्रों को नीचे फेंकें, वे उन्हें राक्षस के

पास पहुँचने से पहले बीच रास्ते में ही लपक लें। तब एक जंगली वानर

के रूप में उन्होंने सद्धासुर को उसकी चमत्कारिक शक्ति के लिए चुनौती

दी। राक्षस ने दिव्यास्त्रों का आहवान किया लेकिन वे उसके हाथ में नहीं

आ पाए क्योंकि वे चालाक वानरों द्वारा आकाश के बीच रास्ते में ही लपक

लिए गए थ। अपनी चमत्कारिक शक्ति में विश्वास खो देने पर उसने

हनुमान का पूरी शक्ति के साथ सामना तो किया, किंतु वानर ने उसका

सिर काट कर राम को स्मृति चिन्ह के रूप में भेंट कर दिया।

सद्धासुर की मृत्यु के बाद विरुनचंबांग कोधावेश में आया। अपने

अदृश्य घोड़े पर बैठकर, अदृश्य राक्षस वानर सेना पर मौत की वर्षा करने

लगा और राम को किंकर्तव्यविमूढ़ता की इस स्थिति में छोड़ दिया कि

अदृश्य शत्रु से कैसे लड़ा जाए। अंत में उन्होंने मौत से भरा बाण मारा

और इसने विरुनचंबांग के साथ आए सभी राक्षसों को मार दिया और

उसके घोड़े को भी मौत के घाट उतार दिया, यद्यपि वह अदृश्य था।

अकेला पड़ने पर वह इतना भयभीत हो गया किे वह शत्रू सेना का

मुकाबला नहीं कर सकता था। इसलिए उसने अपने दुपट्टे को उतारा

और वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ दुपट्टे से अपनी हूबहू प्रति

कृति का

निर्माण कर दिया।

जीवनी-शक्त से संचारित हो जाने पर, उसकी प्रतिकृति अब

युद्ध करने लगी और असली विरुनचंबांग आकाश पर्वत की ओर भाग

गया। वहाँ पर वह पतित अप्सरा वनारिन से मिला जिसने उसे समुद्र के

फेन में छिपने की सलाह दी।

अभी तक वह हनुमान की पकड़ से बाहर नहीं हो सका था।

वानर ने आकाश प्वत तक उसका पीछा किया जहाँ उनकी मुलाकात

वनारिन से हुई। वास्तव में वह पतित अप्सरा बेचैनी से एक लंबे समय से

हनुमान का इंतजार कर रही थी। एक बार अपने मित्र के साथ रुचिकर

बातचीत में लीन होने पर, वह ईस्वर के आदेश का पालन करना भूल

इस पर उसने देवता के शाप को अपने लिए आमंत्रित कर लिया,

जिससे वह केवल तभी मुक्त हो सकती थी जब वह विरुनचंबांग को

खोजने में हनुमान की सहायता करती। हनुमान एक युवा व्यक्ति के रूप

में, सुंदरता में कामदेव से भी उत्कृष्ट हो, उस अप्सरा के पास पहुँचे और

मुँह फाड़कर चंद्रमा और नक्षत्रमंडल के समूह को दिखाते हुए, अपनी

पहचान से आश्वस्त कर, उसे अपना बना लिया और उसके शापित जीवन

का अंत कर दिया। फिर वे अप्सरा के द्वारा दिखाए मार्ग का अनुसरण

करते हुए उस स्थान पर पहुँचे जहाँ विरुनचंबांग फेन के रूप में छिपा

हुआ था। हनुमान की विशाल पकड़ से बाल-बाल बचते हुए उसने मत्रों

के उच्चारण से समुद्र में एक दरार बनाई और उसकी तलहटी में चला

गया। कितु वानर की लंबी पूंछ ने उसका पीछा किया तथा उसका अंत

करने और उसे दंडित करने के लिए बाहर खींच लिया।

(ख) मालिवग्गब्रह्म का निर्णय

सद्धासुर और विरुनचंबांग की मृत्यु ने दसकंठ को पहले से कहीं

अधिक प्रतिशोधी बना दिया। शत्रु की अभेद्यता ने अस्त्रों के प्रति उसके

विश्वास को खत्म कर दिया। इसलिए राक्षसराज ने अब अस्त्रों के स्थान

पर ऐसी किसी दूसरी योजना पर विचार किया जो राम के अस्तित्व

को

इस धरा से मिटा दे।

तब उसे अपने नाना ब्रह्म मालिवराज की याद आई जो देवताओं,

गंधर्वों, नागों और सभी अलौकिक प्राणियों के स्वामी थे। वे एक ब्रह्म थे

जिनके शब्दध कभी भी असत्य नहीं होते थे। दसकंठ ने सोचा, ‘यदि उन्हें

राम की हार और मृत्यु के लिए शाप देने को राजी कर लिया जाए तब

लंका और उसके राजा की सारी परेशानियों का सुखद अंत हो जाएगा।

इस विचार को ध्यान में रखकर,

दसकंठ ने नन्याविक और

वायुवेक नाम के दो राक्षसों को इस विनम्र निमंत्रण के साथ यह आग्रह

करते हुए स्वर्ग में भेजा कि वे लंका में पधार कर अपनी करुणामयी

उपस्थिति में उसके और राम के बीच हुए झगड़े का निर्णय करें, जिसने

पहले आकृरमण कर उसके देश को चारों ओर से घेर रखा है।

मालिवराज राम के दादा राजा अजपाल के मित्र थे। इसलिए

उन्होंने झगड़े के निपटारे के लिए सहर्ष स्वीकृति दे दी। अतः

देवी-देवताओं को लेकर वे स्वर्ग से नीचे लंका में आए। अगर वे नगर में

प्रवेश करते तो राम के मन में उनकी निष्पक्षता को लेकर संदेह होता

अथवा किसी वानर शिविर में उतरते तो दसकंठ उससे अप्रसन्न होता,

इसलिए वे सीधे युद्धस्थल पर उतरे जो कि न तो राम से संबद्ध था और

न ही दसकंठ से।

तत्क्षण दसकंठ स्वर्ग के स्वामी के पास पहुँचा और राम को

आकृमण के लिए दोषी ठहराया यह आशा करते हुए कि देवता उसकी

मुसीबत के कारण को एकदम सही मान लेंगे। लेकिन निष्पक्ष मालिवराज

इतने नीतिपरायण थे कि वे ऐसा नहीं कर सकते थे। इससे पहले कि वह

इस विषय में कोई निर्णय देते, उन्होंने सभी देवताओं को अपनी मध्यस्थता

का साक्ष्य बनाने के लिए बुलाना उचित समझा और राम को आरोपों का

जबाब देने के लिए बुलवाया क्षण भर में ही मौत की घाटी देवताओं की

सभार्थली में बदल गई और निराशा की चीखें खुशी के ठहाकों में बदल

गई

राम अपने वफादार साथियों के साथ आए। मालिवराज जानना

चाहते थे कि झगड़े को भडकाने वाला कौन

था। दसकंठ ने तुरंत जबाब

दिया कि इसके लिए पूरी तरह राम जिम्मेदार है जिसने एक स्त्री के लिए

व्यर्थ ही लंका पर घेरा डाल रखा है।

अथवा पुत्र के जंगल में अकेला पाया था और उस पर तरस खाकर वह

उसे अपने महल में ले आया था।

इस स्त्री को उसने बिना पति

कितु राम ने उसके आरापों को चुनौती दी और बताया कि कैरसे

सीता दसकंठ द्वारा अपहत की गई और किस तरह वे उसका पीछा

-करते इतनी दूर लंका द्वीप तक पहुँचे ।

अंत में सीता वानरों और राक्षसों दोनों की पूरी चौकसी में वहाँ

लाई गई ताकि कोई भी पक्ष संदेह न कर सके कि सीता को दूसरे पक्ष ने

सिखा दिया है। सीता की गवाही और सभी देवताओं की गवाही ने राम

की बात का समर्थन किया। दसकंठ ने अपने आपको उन गवाहियों की

सच्चाई को चुनौती देने में किंकर्तव्यविमूढ़ पाया। वह अपनी सफाई में

केबल यही कह सका कि चूकि देवता उसके द्वारा बार-बार हराये गये थे

और दास बनाये गएथे, इसलिए, निस्संदेह, वे इस अवसर का लाभ

उठाकर अपने वैमनस्य के गुबार को निकाल रहे हैं।

लेकिन अब तक दसकंठ की सच्चाई पर मालिवराज का विश्वास

पूरी तरह से लड़खड़ा गया था और अंतिम सहारे के रूप में उसकी

असंतोषजनक सफाई ने इसे पूर्ण रूप से तोड़ दिया। अतः देवता ने राक्षस

को आदेश दिया कि वह सीता को उसके स्वामी को वापस करे और इस

अन्यायपूर्ण झगड़े को खत्म करे। लेकिन दसकंठ अड़ा हुआ था । सच्चाई

और न्याय के सामने हार मान लेने के लिए उसे प्रेरित करने वाली धमकी

भरी सलाह व्यर्थ सिद्ध हुई। उसने आज्ञा मानने से मना कर दिया।

नीतिपरायण मालिवराज ने कूद्ध होकर उसे राम के अस्त्र से मारे जाने का

शाप दे दिया और अपने दिव्य साथियों के साथ स्वर्ग के लिए प्रस्थान

किया।

सीता आने वाले परम सुख की कल्पना में अपनी कुटिया में

वापस चली गई, राम मालिवराज के निर्णय से उत्साहित हो अपने शिविर

में और अहंकार से चूर दसकं

ठ अपने महल में चला गया।

(ग) विशाल भाला, कपिलाबद

इसप्रकार अपनी अंतिम चाल से निराश होने पर, दसकंठ ने अब

ईस्वर के द्वारा उसे दिये गये अपने विशाल भाले कपिलाबद की सुष्प्त

शक्ति को जाग्रत करने और मालिवराज सहित सभी देवताओं को अग्नि

की लपटों के हवाले करने के बारे में सोचा ।

इसलिए अपनी आदत के अनुरूप उसने एक तपस्वी का वेश

धारण कर लिया तथा सुमेरु पर्वत की तलहटी में चला गया और वहॉँ एक

यज्ञाग्नि प्रज्ज्वलित की । फिर उसने देवताओं की मिट्टी की मूर्तियाँ बनाई

और वैदिक मंत्रों का उच्चारण करने लगा। आग से तेज लपटें निकलने

लगीं। एक-एक करके वह मूर्तियों को विनाशकारी लपटों के हवाले करने

लगा। जैसे -जैसे वे मूर्तियाँ आग की भेंट होती गई वैसे-वैसे सारे दिव्य

संसार में असहनीय ज्वलन-पीड़ा फैलने लगी। देवताओं के अधिपति ने

परेशान होकर नीचे दृष्टि डाली और दसकंठ को विध्वंसक यज्ञ करते

देखा

देवता तुरंत ईस्वर के पास दौड़े और उनसे शरण मांगी।

दयालु ईस्वर ने बाली, जो उस समय तक देवता के रूप में

जन्म ले चुका था, से नीचे जाने, मेरु पर्वत को तोड़ने और उसे यज्ञ की

अग्नि में फेंकने के लिए कहा।

आग के सामने शांत भाव से बैठे दसकंठ ने बाली को देखा।

लेकिन राक्षस दसकंठ की देवता बाली से कोई बराबरी न थी। पराजित

और निराश हो राजा लंका की ओर भाग गया।

दसकंठ को दुख भी हुआ और अप्रसन्नता भी, जब उसने ईस्वर

को अपने शत्रु की सहायता करते हुए पाया क्योंकि उसने उसे पराजित

करने के लिए बाली को पुनर्जीवित कर दिया था। लेकिन मंडो ने उसे

सांत्वना देते हुए कहा कि शायद यह हनुमान था जिसने बिभेक के

निर्देश पर बाली के रूप में उसे पराजित कर दिया था। शत्रूपक्ष का

सलाहकार और सभी योजनाओं को विफल कर

देने वाला, बिभेक ही इन

सारी विपत्तयों की जड़ है। उसको मारने का मतलब है शत्रु की हिम्मत

तोड़ना। मंडो ने ऐसी सलाह दी और राजा ने उसको मान लिया।

तदनुसार, अगली सुबह वह अपने विशाल भाले कपिलाबद को

हाथ में लेकर, बिभेक के विश्वासघाती जीवन का अंत करने के लिए चल

दिया। जैसे ही वह युद्धस्थल पर पहुँचा, उसका सामना राम, लक्षण और

बिभेक से हुआ। कपिलाबद बिभेक को मारने के तलिए तीव्र गति से निकल

पड़ा। लेकिन सौभाग्यशाली राक्षस मौत के वाहक से स्वयं को बचाने में

काफी कुशल था, जबकि लक्षण ने उस पर पलटवार करने का प्रयास

किया। लक्षण के बाण द्वारा प्रहार किए जाने पर, कपिलाबद ने केवल

अपनी दिशा बदल दी और उस पराक्रमी पुरुष पर प्रहार कर दिया जिसने

इसकी गति को रोकने का साहस किया था। दसकंठ के तीक्ष्ण बाण का

प्रहार अपने वक्षस्थल पर लिए जाने के कारण लक्षण मूच्छित होकर गिर

पड़े

लक्षण के गिरने ने राम के कोध को भड़का दिया। उनके धनुष

ने मौत की ऐसी वर्षा करनी शुरु कर दी जो राक्षसों ने न कभी देखी थी

और न ही उसकी कल्पना की थी। दसकंठ के अलावा सभी राक्षस

धराशायी हो गए और कोई भी अस्त्र, सिवाय खाली तरकस के उसके

पास न बचा। निरंतर बढते हुए कोधावेग से प्रति क्षण मौत की वर्षा इतनी

तीब्र गति से होने लगी कि दसकंठ को भी अपने पैरों पर वापस भागना

पड़ा और अपने महल की सूरक्षित दीवारों में शरण लेनी पड़ी।

ज्यों ही युद्ध का ज्वार शांत होता दिखाई दिया, तभी कृतज्ञ

बिभेक अपने जीवन को बचाने वाले को पुनर्जीवित करने के प्रयासों में

जुट गए। उस समय केवल तीन जड़ी-बूटियाँ थीं, ‘तू-तुआ, संकरनी और

त्रिजावा’ जो कपिलाबद द्वारा दिए गए कष्ट को कम कर सकती थीं और

जीवन को बचा सकती थीं। लेकिन वे जड़ी-बूटियाँ उत्तराकुरु द्वीप के

संजिबसंजि पर्वत पर ही उगती थीं। उन जड़ी-बूटियों को इंदाकल पर्वत

की गुफा में रहने वाली ईस्वर की गाय के गोबर में मिलाना था। उनको

और कोई नहीं बल्कि वही ला सकता था जो अपना मुख फाड़कर चंद्रमा

और तारों को अपने अंदर ले ले। इसलिए हनु

मान तुरंत उन पर्वतों की

ओर उड़ गए और पलक झपकते ही सभी आवश्यक दवाओं को लेकर

लौट आए। अब उन दवाओं को देने से पहले उनको पीसना बहुत

आवश्यक था। चू्ण बनाने की सिल्ली पाताल के राजा कालनाग के पास

थी और उसका बेलन दसकंठ के पास था जिसका प्रयोग वह अपने

तकिए के रूप में करता था। इसलिए हनुमान ने तूरंत पाताल की ओर

प्रस्थान किया और बहुत जल्दी वे सिल्ली लेकर वापस आ गए। तब वे

बेलन के लिए दसकंठ के महल में गए।

उन्होंने सभी को तंत्र – मंत्र से गहरी नींद में सुला दिया और बड़ी

ही सावधानी से वहाँ प्रवेश किया जहाँ दसकंठ सुंदर मंडो को अपनी बॉहों

में प्यार से लिटाए सो रहा था

के नीचे से बेलन खींच लिया और वे लौटने ही वाले थे कि उनके

शरारतपूर्ण दिमाग में एक विचित्र विचार आया। अपने होठों पर

नटखट मुस्कान के साथ उन्होंने राजा के बाल लिए और उन्हें रानी के

बालों से बॉँध दिया। पफिर उन्होंने शाप दिया कि ये गांठें तभी खुलेंगी जब

उसकी रानी उसके सिर पर तीन थप्पड़ लगाएगी। तब वानर महल से

शिविर के लिए चल दिया। लेकिन चलने से पहले उसने दसकंठ के माथे

पर अपना शाप और उससे मुक्ति का उपाय लिख दिया।

हनुमान ने राक्षस के दस मुँह वाले सिर

एक

इसप्रकार सभी आवश्यकताएं पूरी कर लेने पर दवाई आसानी से

लक्षण मृत्यु शैया से उठ गए और

तैयार कर ली गई और दे दी गई

दुख आनंदोत्सव में बदल गया।

उसी बीच दसकंठ भी अपनी सम्मोहक नींद से उठा। निःशंक

अपना सिर उठाया। लेकिन अचानक

झटके के साथ उसे बालों की जड़ में दर्द महसूस हुआ। गुस्से में आकर

उसने अपने सिर को घुमाया, परंतु दूसरे झटके से उसे फिर दर्द हुआ।

किंतु इसने उसकी दुखपूर्ण हालत को स्पष्ट कर दिया। अधीरता से उसने

उसने अपने

राक्षस सेवकों को पुकारा और अपने गुरु गोपुत्र को बुलवाया। ऋषि

अविलंब अपने शिष्य की मदद के लिए आ गए। उनकी खोजी आँखें राजा

के मस्तक पर पड़ीं। लेकिन उसके उपचार के लिए जो उपाय बताया

राक्षस ने उठते समय सबसे पहले

गांठ को खोलने की कोशिश

की किंतु वह व्यर्थ सिद्ध हुई

गया था, वह अत्यधिक अधम था। कैसे अपने शक्तिशाली शिष्य को वह

एक औरत से थप्पड़ खाने के लिए कहता, एक ऐसा काम जो न केवल

उसके सम्मान को आहत करता वरन् अशुभ और अनिष्ट का भी सूचक

था? इसलिए गोपूत्र ने उस उपचार को नकार दिया और अपनी

चमत्कारिक शक्ति का प्रयोग करने लगा। लेकिन उसका अपनी शक्ति का

प्रयोग करना व्यर्थ ही रहा। गांठ वैसी ही उलझी रही जैसी वह थी और

दोनों सिरों के बीच खींचतान होने लगी जिसने उनके दर्द को और अधिक

बढ़ा दिया। अब केवल उस अधम उपचार को अपनाने के अलावा क्या

किया जा सकता था जो उस शैतान वानर के द्वारा बताया गया था।

महान और शक्तिशाली राजा होते हुए भी उसने अपने शाही सिर को

अपनी पत्नी से तीन बार थप्पड़ खाने के लिए झुका दिया।

कितने विनाशक हैं ये वानर! उन्होंने न केवल उसके प्रभाव और

प्रतिष्ठा को क्षति पहुँचाई वरन् उसके घाव पर नमक भी छिड़क दिया।

उन सबका पूरी तरह से विनाश कर दिया जाना चाहिए।

इसलिए प्रतिशोध लेने का निश्चय कर दसकंठ ने अपने भाई

चक्ृवाल के राजा दसबानासुर को बुलवाया। जैसे ही उसने राक्षसराज पर

पड़ी महान आपदा के बारे में सुना, वह तुरंत युद्धस्थल की ओर दौड़ा,

अपने शरीर को ब्रह्मा के शरीर के समान विस्तृत किया और अपनी वृहद

जीभ से सूर्य को ढक दिया। उसका भार सहने में असमर्थ पृथ्वी धँस गई

और उसका आधा शरीर ड्बकर उसके बीचोंबीच चला गया। तब उसने

दो बड़ी दीवारों की तरह अपनी दोनों भुजाएं बाहर निकालीं और वानर

सेना को घेर लिया। बेचारे जानवर घोर अंधेरे से ढक गए, वे उसके गुफा

के समान मुख में लडखड़ाते गिरते गए। राक्षस उन्हें बिना चबाए निगलता

चला गया। निराशाजनक चीखें शिविर में चारों तरफ सुनाई पड़ने लगीं ।

किंतु राम के मन में न तो भय था और न ही निराशा।

उनके आदेश से सुग्रीव ने राक्षस की दोनों भुजाएं काट दीं। उस

तीक्ष्ण दुख को सहने में असमर्थ वह राक्षस तुरंत सिकुड़ कर अपने असली

स्वरूप में आ गया। तत्षण सारे क्षेत्र में चकाचौंध कर देने वाला प्रकाश

फैल गया। फिर राम ने घातक प्रक्षेपास्त्र छो

ड़ा। यह राक्षस को मारता

हुआ उसके पेट को फाड़ कर बाहर निकल गया। जिन वानरों को उसने

निगल लिया था, जमीन पर गिर गए जो अभी तक अनपचे, पर निर्जीव

थे। इसलिए राम ने एक बाण छोड़ा। यह इंद्र के निवास पर पहुँचा और

उसे युद्ध क्षेत्र में आने के लिए आमंत्रित किया दयालु देवता ने उन सभी

मृत शरीरों पर पवित्र जल छिड़का और एक बार उन्हें पुनः जीवन दान

दिया

सारा शिविर खुशी और जय-जयकार से गुंजायमान हो उठा।

(घ) जीवन का अमृत

अब मंडो अपने पति की सहायता के लिए आई। वह मौत को

उसकी विनाशकारी शक्त से वंचित करने और मृत को जीवित करने का

उपाय जानती थी। यह जीवन का अमृत था जो उसने उमा से सीखा था।

एक बार अमृत तैयार किया गया था और मृत्यु -क्षेत्र में इसे छिड़का गया

था, उसके पति के सभी सेनापति अपनी कब्रों से जीवित हो बाहर आ गए

थे और उसके लिए लड़े थे। राम और उसकी सेना के अस्त्र अमृत के

उस अपराजेय कवच के विरुद्ध क्या कर सकते थे? यदि राक्षस मारे भी

गए तो भी वे नई शक्ति के साथ शत्रु का सामना करने के लिए फिर से

खड़े हो जाएंगे। इसलिए मंडो ने संजीव अनुष्ठान को संपन्न करने के

लिए शीघ्रता की जो उसे जीवन- अमृत प्रदान करता ।

इसप्रकार अचानक उत्साहित हुए दसकंठ ने युद्धक्षेत्र के लिए

अपने दो पुत्रों, दसगिरिवन और दसगिरिधर के साथ प्रस्थान किया। लक्षण

के बाणों ने दोनों भाईयों को मृत्यु के मुँह में पहुँचा दिया, जबकि राम के

पराक्रम ने पिता को पीछे हटने के लिए विवश कर दिया।

ऐसी चिंताजनक स्थिति में मंडो का जीवन- अमृत पहुँच गया।

तुरंत राक्षस ने उसे मौत की घाटी पर छिड़क दिया। उसी क्षण राक्षसों की

कुभकर्ण

अपने अजेय भाले के साथ उठ खड़ा हुआ, सहस्सतेज अपने एक हजार

मुखों के साथ, सेंग आदित्य अपने चमत्कारिक शीशे के साथ, और उन

सबके साथ अन्य दूसरे राक्षस भी अपनी भयंकरता के साथ उठ खड़े हुए।

युद्ध एक बार फिर से शुरू हो गया। बल्कि यह एक ऐसा युद्ध था जिसके

सारी सेना जीवित हो उठी औ

र शत्रु का सामना करने लगी

अंत का पता न था क्योंकि मृतकों को जीवन प्रदान करने तथा उन्हें

दोबारा युद्ध क्षेत्र में वापस लाने के लिए वहाँ अमृत था।

भाग्य के इस अनर्थकारी परिवत्तन से बचने का कोई रास्ता न

था केवल इसके कि मंडो द्वारा किए जाने वाले अनुष्ठान में बाधा डाली

जाए। लेकिन यह तभी संभव हो सकता था जब उसके हृदय में वासना

उत्तेजित की जाए क्योंकि कामोत्तजक मनोदशा से मुक्त होने पर ही

अनुष्ठानकता इसमें सपफलता पा सकता था।

इसलिए, सभी युक्तियों के स्वामी हनुमान ने दसकंठ का

स्वरूप धारण कर लिया, निलानन ने उसक हाथी का, जंबुवान ने उसके

महावत का, जबकि बहुत से वानरों ने स्वयं को राक्षसों के रूप में बदल

लिया। फिर नकली दसकंठ ने विजयी जुलूस के साथ लंका के लिए

प्रस्थान किया। जुलूस लंका की गलियों में से धीरे -धीरे आगे बढ़ता गया

और रानी मंडो के पूजास्थल पर पहुँच गया जहाँ वह जीवन-अमृत को

प्राप्त करने वाले अनुष्ठान में लीन थी ।

अब जीवन का अमृत किस काम का? राम अब अपने भाई के

निर्जीव शरीर तथा अपनी निर्जीव सेना के साथ मृत पड़े हुए हैं। इसप्रकार

नकली दसकंठ ने रानी मंडो से झूठ बोला। अपनी आँखों से खुशी की

चमक बिखेरते हुए वह अनुष्ठान वाले आसन से उठ गई और नकली

दसकंठ की बाहों में आकर समा गई। एक अपवित्र चुंबन की छाप उसके

गुलाबी होठों पर छोड़ दी गई और एक अपवित्र आलिंगन ने उसके

कोमल शरीर को जकड़ लिया। इस प्रकार चतुर हनुमान ने सीधी-सादी

रानी की पवित्रता भंग कर दी। अनुष्ठान को बाधित कर देने के बाद, वह

मंडो को यह बहाना बनाकर छोड़ गए कि बिभेक अभी भी जीवित है और

वह उसके विश्वासघाती जीवन का अंत कर अवश्य वापस लौटेगा।

उसी समय दसकंठ वहाँ अधीरता से अमृत की प्रतीक्षा कर रहा

था। सभी पुनर्जीवित राक्षस दोबारा से मारे जा चुके थे, और अब उन्हें

पुनर्जीवन देने वाला अमृत नहीं था। घंटों पर घंटे बीतते गए, लेकिन

उसकी कोई ताजी आपूर्ति नहीं हो रही थी। पु

नर्जीवित राक्षस घमंड से

भरे हुए थे, परंतु अमृत से रहित होने के कारण वे सब आकाश में वापस

चले गए। अब दसकंठ फिर अकेला रह गया । बार-बार वह पीछे मुड़ कर

देखता रहा, इस आशा में कि आमृत लाने वाला दिखाई दे जाए लेकिन

उसके सामने रास्ता सुना पड़ा था। अंत में वह ज्यादा प्रतीक्षा न कर

सका

किया।

अधीरता और शीघ्रता से उसने मंडो के पूजास्थल की ओर प्रस्थान

वहाँ सत्य अपने आप स्पष्ट हो गया। हनुमान की निर्लज्जता से

भौँचक्का, कोधोन्मत्त राजा शर्मसार हो गया और दुखी रानी अपनी पवित्रता

के भंग किये जाने पर श्मिदा हो, मूरचछित होकर गिर पड़ी।

वे दोनों यद्यपि उनकी युक्तियों से परेशान थे, फिर भी किसी

प्रकार के मनोमालिन्य ने उनके प्रेम पर बुरी छाया नहीं डाली, वह सदा

की तरह जीवंत और निर्मल था।

(डो) जीवात्मा का पात्र

अपनी सारी कार्यविधियों और अपनी प्रिय पत्नी के अपमान से

निराश होकर, दसकंठ अब पूरी शक्ति से विनाश करने के लिए कोधोन्मत्त

हो गया। उसकी बीसों ऑखें कोध की लपट्टें बरसाने लगीं, लगता था कि

मानो वे समस्त सृष्टि को अग्निकांड में भस्म करना चाहती हों। वह

दुनिया से शत्रू को मिटाने के संकल्प के साथ युद्धक्षेत्र की ओर चल पड़ा।

दोनों सेनाएं आमने-सामने आ गई और राम ने दसकंठ का

सामना किया। सारा आकाश बाणों की बौछारों से भर गया, जिन्हें उनके

पराक्ृमी धनुष निरंतर बरसा रहे थे। राम ऐसे पराक्ृम से लड़े जो इससे

पहले न देखा गया और न सुना गया। लेकिन दसकंठ सभी अस्त्रों से

प्रतिरक्षित था। उसका मस्तक कट गया, किंतु पुनजीवित हो गया, उसकी

भुजाएं कट गई, किंतु दोबारा जुड़ गई। कोई भी हथियार, चाहे कितना ही

विनाशक क्यों न हो, उस अभेद्य राक्षस का कुछ भी

नुकसान न कर

सकता था।

अंत में बिभेक राम की सहायता के लिए आए। उन्होंने उन्हें

बताया कि दसकंठ की आत्मा उसके शरीर से बाहर निकाली जा चुकी है।

और उसे उसके गुरु गोपुत्र के संरक्षण में एक पात्र में रखा गया है।

दसकंठ केवल तभी मर सकता है जब पात्र में रखी आत्मा को कुचल कर

मार दिया जाए।

हनुमान ने झस काम को करने की इच्छा व्यक्त की किंतु उन्होंने

राम को सचेत किया कि वे किसी भी प्रकार के छल-कपट का सहारा ले

सकते हैं, इसलिए उन्हें अपने निष्ठावान सेवक पर न तो कोई संदेह होना

चाहिए और न ही आश्चर्य, यदि वे उन्हें शत्रु के शिविर में देखें। राम को

सतर्क करके, पवन पुत्र ने गोपुत्र के आश्रम की ओर प्रस्थान किया जिसे

वे मूढ़ गुरु के रूप में जानते थे। उनके साथ सहकमी के रूप में इंद्र का

पौत्र अंगद भी गया।

दोनों वानर आश्रम में पहुँच गए। उनके गालों पर ऑँसू बह रहे

थे। राम द्वारा उनके साथ दुर्वहार किया गया जिनकी उन्होंने बड़ी

निष्ठापूर्वक सेवा की थी और जिनके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित

कर दिया था। इसप्रकार हनुमान ने ऐसी शब्दावली में गोपुत्र से झूठ बोला

जिससे उनकी उनके प्रति सहानुभूति जाग्रत हो गई । अब उनसे घृणा होने

पर उन्होंने उन्हें छोड़ दिया है, ताकि वे उनसे महान लंका के राजा की

सेवा कर सकें जो यह जानता है कि निष्ठावान सेवक को कैसे पुरस्कृत

किया जाता है। चूंकि उन्होंने तो उसके साथ बुरा किया था, उसके पुत्रों

और सेनानायकों को मार दिया था, वे अब उसके पास अकेले जाने से डर

रहे हैं कि कहीं उन्हें देखते ही राजा इतना अधिक कूद्ध न हो जाए कि

उन्हें अपनी याचिका प्रस्तुत करने का अवसर दिए बिना ही वह उन्हें मार

दे। ‘क्या दयालु गुरु उन्हें राजा के पास ले जा सकेंगे और उनके पक्ष में

बोल सकेंगे?’ इसप्रकार चतुर हनुमान ने अश्रुपूर्ण शब्दों में उनसे

अनुनय-विनय की।

गोपुत्र ने उन पर विश्वास कर लिया और उनको अपने साथ

राजा के पास ले जाने के लिए तथा उनका पक्ष रखने के लिए सहमत हो

गए। अतः वे राजमहल जाने के लिए तैयार

हो गए। लेकिन वे उस पात्र

शुभचिंतक हनुमान ने

का क्या करें जिसमें राजा की आत्मा रखी हुई थी?

कहा कि राम पात्र को चुराने की उसुकता के कारण हर अवसर का लाभ

उठाने की तैयारी में हैं । इसलिए उन्होंने ऋषि से प्रार्थना की कि वे उस

पात्र को अपने साथ ले चलें। मूर्ख ऋषि ने किसी प्रकार के संदेह को

अपने मन में न पनपने देते हुए वैसा ही किया जैसा उनसे कहा गया था।

लंका के गांवों के घुमावदार रास्तों से होते हुए वे चलते गए।

हनुमान को देखते ही सारे राक्षस बड़ी ही भयाकुलता से भागने लगे-कुछ

अपने छोटों को बाहों में उठाए, कुछ अपनी माँओं को ले जाते हुए और

कुछ अपनी पत्नियों को। लंका के गांवों की गलियों में उस विशाल वानर

को अचानक देखते ही एक भयानक कोलाहल हो गया।

अंत में वे शहर के द्वार पर पहुँचे । एक नई परेशानी वहाँ आ

खड़ी हुई। पात्र शहर के अंदर नहीं ले जाया जा सकता था क्योंकि

आत्मा दसकंठ की ओर उड़ जाती, जैसे एक छोटा पक्षी अपनी माँ से

मिलने के लिए उसकी ओर दौड़ता है जब प्रतीक्षा कर रहे उसके नन्हें

कानों में माँ के पंखों की फड़फड़ाहट पहँचती है। हनुमान ने सुझाव दिया

कि पात्र को अंगद की देखरेख में रख देना चाहिए जो द्वार पर ऋषि की

प्रतीक्षा करेगा। अतः वैसा ही किया गया। अंगद को पात्र की देखरेख के

लिए छोड़ दिया गया और हनुमान गोपुत्र के पथ प्रदर्शन में लंका में

प्रविष्ट हो गए।

यह कैसा अप्रत्याशित सुनहरा अवसर था कि पात्र अंगद की

देखरेख में छोड़ दिया गया! हनुमान स्वयं इस अवसर को पाने में सफल

न हो सके। इसलिए उन्होंने ऋषि से इस बहाने के साथ थोड़ी देर के

लिए अनुमति मांगी कि अंगद अकेला छोड़ दिया गया है, इसलिए उसे

आवश्यक निर्देश देने हैं ताकि वह राक्षसों द्वारा शत्रु समझ कर मार दिए

जाने से अपना बचाव कर सके। इसप्रकार उनसे अनुमति लेकर वे ऋषि

को छोड़ कर अंगद के पास आ गए। तब अपनी चमत्कारिक शक्तियों की

सहायता से उन्होंने पात्र की एक प्रतिकृति का निर्माण किया और अंगद

को उस वास्तविक पात्र को समूद्र के किनारे ले जाने और वहाँ जमीन में

गाड़ देने की सलाह दी। इसके बाद

वह द्वार की ओर लौट आए और

ऋषि के पहुँचने की प्रतीक्षा करे जिनको उसे उस प्रतिकृति को लौटाना

है। तत्पश्चात् वह फिर वापस उस समूद्र के किनारे चला जाए और

उनकी प्रतीक्षा करे। जब कभी वह उन्हें आकाश में चंद्रमा और तारों को

मुँह फाड़कर अंदर लेते हुए दिखे, बह पात्र के साथ आकाश में छलांग

लगाए और उस पात्र को उन्हें दे दे।

इसप्रकार प्रत्येक चीज का अपनी संतुष्टि के अनुसार प्रबंध करके

वे ऋषि के पास लौट गए और बहुत शीघ्र उन्होंने स्वयं को लंका के

राजा के सामने पाया।

कभी चुपचाप रोते हुए और कभी आंसुओं से गला अवरुद्ध करते

हुए, किंतु सदैव गोपुत्र के द्वारा सॅभाले जाते हुए, वानर ने राम द्वारा

उसके प्रति दुरव्यवहार किए जाने की एक झूठी कहानी गढ़ी और राजसी

सहानुभूति प्राप्त कर ली। इससे अधिक दुखद और हास्यास्पद बात क्या

हो सकती है कि लंका जलाने का जोखिम उठाने के लिए उसे केवल एक

नहाने वाली तौलिया देकर पुरस्कृत किया गया? वानर ने झूठ बोला। इस

निर्णय पर अपने हाथों से उसे थपथपाते हुए लंका के राजा ने वानर

अपने पोष्य पुत्र की तरह स्वीकार किया और उसे अपना सच्चा प्रेम और

सहानुभूति प्रदान की, जो केवल उसे धोखा देने और उसकी मौत में वृद्धि

करने आया था।

अगले दिन हनुमान ने स्वेच्छा से अकेले लड़ने की इच्छा व्यक्त

की क्योंकि जैसा उसने कहा था कि उन दोनों नगण्य से व्यक्तियों को

पकड़ना उसके लिए मुश्कल काम नहीं है। हनुमान को विरोधी पाले में

देखकर वानर भाग खड़े हुए और लक्षण को किसी समय उनके सेनापति

रहे हनुमान का सामना करने के लिए अकेला छोड़ दिया। लक्षण हनुमान

की तात्कालिक गतिविधियों से अपरिचित होने के कारण उनको शत्रु रूप

में सामने खड़ा देख आश्चर्यचकित हो गए। फिर भी उन्होंने वानर के साथ

युद्ध किया। वानर उनके साथ केवल एक नाटकीय युद्ध करता रहा जब

तक अंधेरे के कारण युद्ध बंद हो

ने की घोषणा नहीं हो गई

हनुमान लंका वापस लौट आए जहाँ राक्षसराज उनकी बड़ी ही

बेसब्री से प्रतीक्षा कर रहा था। राक्षसों ने राजा को बताया कि किस तरह

वानर युद्धक्षेत्र को हनुमान के नियंत्रण में छोड़कर भाग गए। यदि अंधेरा

नहीं हुआ होता तो वह राम और लक्षण को बंदी बनाकर ले आता।

दसकंठ यह सुनकर बहुत खुश हुआ और उसने पुरस्कारस्वरूप

उसे इंद्रजित के सारे खजाने के साथ-साथ उसकी चंचल मति वाली

पत्नी भी दे दी जो वानर के आलिंगन में आते ही सब कुछ भूल गई-

अपना सम्मान, पूर्व पति के प्रति अपना प्रेम, अपनी स्वामीभक्ति-अंत में

उसने केवल एक ही बात याद रखी कि प्रेम से वीरान उसके हृदय ने एक

ऐसे व्यक्ति को पा लिया है जो उससे खुश है और उसकी कामवासना की

पुकार का उत्तर देने के लिए तैयार है।

सुबह होने पर दूसरे दिन का युद्ध आरंभ होने का बिगुल बज

गया। इस बार राजा भी हनुमान के साथ गया। यह निश्चित हुआ कि

हनुमान तो आकाश में छलांग लगाकर सूर्य को ढक देगा और इन दोनों

व्यक्तियों को पकड़ लेगा, जबकि दसकंठ सेना पर हमला बोल देगा और

उन सभी को मार देगा। किंतु अपने सच्चे मन से हनुमान उसी दिन से

ही उस राक्षस से बदला लेने की सोच रहे थे।

ज्योंही वायुपुत्र आकाश के बीचोंबीच पहुँचे, उन्होंने चंद्रमा और

तारों को मुँह फाड़कर अंदर लेना शुरू कर दिया। समुद्र के किनारे

चौंकन्ने बैठे अंगद ने चमत्कारिक प्रदर्शन देखा और उसने तुरंत आकाश

में छलांग लगाई और उस विशाल वानर को पात्र दे दिया।

हनुमान ने पात्र ले लिया और इसे राम के पास लेकर आए।

उनकी प्रसन्नता और कुतज्ञता का कोई ठिकाना न रहा। ‘असंख्य तारों

को तो एक बार गिना जा सकता है, अगाध गहराई को भी एक बार मापा

जा सकता है, किंतु हनुमान की समझ की कोई थाह नहीं है अथवा

उनकी बुद्धिमत्ता को मापा नहीं जा सकता है। यह कहकर लक्षण ने

उनकी प्रशंसा की। ‘रत्नों में से एक रत्न हैं हनुमान, उनके जैसा दूसरा

तीनों लोकों में भी नहीं पा

या जा सकता। राम ने कहा।

इसके बाद इस बात पर सहमति हुई कि अब राम को अपना

ब्रह्मास्त्र छोड़ देना चाहिए जबकि हनुमान उसकी आत्मा के पात्र को

कुचल कर टुकड़े-टुकड़े कर देंगे। उसके बाद हनुमान युद्धक्षत्र में लौटे

जहाँ दसकंठ वानर सेना को अपने मौत के जाल में समेट रहा था।

हनुमान को देखकर उसके मन में खुशी की लहर दौड़ गई और उल्लास

में उसने आपने हाथों से ताली बजाई। लेकिन अचानक उसकी उल्लासभरी

आँखों ने अपनी चमक खो दी और उनसे निराशा झलकने लगी। उसने

वानर की उपहासभरी आवाज को सुन लिया था जो व्यंग्यात्मक टिप्पणियों

साथ उसकी आत्मा के पात्र को घुमा रहा था। उसका दिल एक

अज्ञात भय से काँप गया और घोर निराशा में उसकी हिम्मत ने जबाब दे

दिया। एक जीवित मृत की भावना ने उस पर आधिपत्य कर उसे गतिहीन

बना दिया। अंततः उसके मुँह से कुछ शब्द हल्के से निकले। क्या यह

उसका निष्ठावान हनुमान है, उसका प्रिय पोष्य-पुत्र! उसने उसे एक पिता

का प्रेम प्रदान किया, क्या उसे केवल फॉसी के तख्ते तक घसीटने के

लिए? उसने

उस पर मित्र के समान विश्वास किया, क्या केवल

विश्वासघात करके उसे मौत तक पहुँचाने के लिए! क्या इस संसार में

कृतज्ञता नाम की कोई चीज नहीं रही? क्या अब विश्वास को विश्वासघात

से पुरस्कृत किया जाता है, प्रेम को घृणा से और उपकार को अकृतज्ञता

से? लेकिन कुछ भी हनुमान को बेचारे राजा के प्रति दया से प्रेरित न कर

सका-न तो कोई प्रतिवाद, न कोई पाप का भय। अब केवल एक ही चीज

उसे पात्र वापस लौटाने के लिए प्रेरित कर सकती थी। वह थी, सीता को

उसके स्वामी को समर्पित कर देना। किंतु वह राजा अपनी बात पर अड़ा

हुआ था। उसे सीता को वापस करने के स्थान पर मौत के मुँह में जाना

मंजूर था। प्रेम के लिए वह लड़ा और प्रेम के लिए ही वह मर जाएगा।

अपने प्रेम के लिए लड़ने से मिलने वाले सम्मान को छोडने के स्थान पर

वह मौत का आलिंगन करेगा। इस जीवन में उसका प्रेमातुर ह्ृदय, यद्यपि

सीता के प्रेम को प्राप्त नहीं कर सका, लेकिन आने वाले जीवन में, ईश्वर

की इच्छा से, वह उसके हृदय में स्थान अवश्य बना लेगा और जिस चित्र

को उसने अपने हृदय में एक लंबे समय से धारण किया हुआ है, उसे

जीवित रूप में अवश्य प्राप्त करेगा और उससे वह परमसुख प्राप्त करेगा

जिससे उसे इस दुखित

जीवन में वंचित रखा गया है।

यह कहते हुए अभागे राजा ने, जिसके सिर पर मौत का साया

मेंडरा रहा था, युद्धक्षेत्र छोड़कर लंका के लिए यह प्रतिज्ञा करते हुए

प्रस्थान किया कि अपनी रानी मंडो से अंतिम विदाई लेने के बाद वह

अगले दिन अपने प्रारब्ध का सामना करेगा।

(च) दसकठ का वध

हमेशा की तरह प्रकाशमान और सुनहरा दिन निकल आया, नई

आशा, नए जीवन और नई ऊर्जा का संचार करते हुए। लेकिन लंका के

महल में उत्साह की कोई हलचल नहीं थी, आशा की कोई किरण नहीं

थी। आशाओं को गलाती हुई और अभिलाषाओं को विस्फोट से उड़ाती

हुई प्रलय और मौत विजय की धरती पर चारों ओर फैली हुई थी।

यह दसकंठ के जीवन का अंतिम दिन था। इसके बाद, यह

आकर्षक दुनिया उसकी आँखों के सामने से सदा के लिए ओझल हो

जाएगी। इसके बाद कोई भोर उसके जीवन की दिनचर्या का स्वागत नहीं

करेगी, शाम को चलने वाली कोई मंद पवन उसे आराम से सुलाने के

लिए नहीं बुलाएगी। उसके सामने चारों तरफ अंधकार का साम्राज्य था

जहाँ संसार की सारी स्मृति स्वयं ही विस्मृति में खो जाती है और खुशी

दिलाने वाली कोई पुरानी मधुर याद नहीं आती । आज, उसे इस संसार से

और इसकी मधुर यादों से निश्चित ही विदा लेनी है। इसलिए वह एक

दिन का युद्ध-विराम होने पर, विपत्ति की साथी और दुख में सदा

सहभागी, मंडो से विदाई का निवेदन करने के लिए वापस आया था।

जिस कमरे में उसने मंडो के साथ अनेक रातें सुखपूर्वक बिताई

थीं, वही राजा अब उससे विदा ले रहा था। अभागी रानी अब उसके

कदमों में पड़ी थी-मुरझाई दृष्टि से, यद्यपि वह अभी यौवनावस्था में थी।

दुख आंसुओं की निरंतर बहती धाराओं में द्रवित होने लगा और उसके

उदास गालों पर बहने लगा। आज से उसकी तलाशती आँखों के सामने

अपने स्वामी के बिना महल का सुनापन होगा। विजय की भूमि लंका अब

अपने विजेता के बिना रहेगी। प्रकाश जो कभी क्षीण होना नहीं जानता

था, अब हमेशा के लिए समाप्त होने जा र

हा था। उसका पराकृमी पति

जिसका सामना करने से देवता भी डरते थे, अब एक मनुष्य के हाथों वह

अपनी मौत से मिलने वाला था। उसका स्नेही पति, जिसने उसे शीतलता

देने वाले छाते के समान संसार के आघातों से एक लंबे समय तक बचाए

रखा, अब अपने को मृत्यु के हवाले करने जा रहा था। अब से वह अकेली

ही रहेगी जिसका कोई मित्र नहीं होगा, उसकी खुशियों को पूरा करने के

लिए अथवा उसके दुख में सहभागी बनने के लिए उसके पति के अलावा

और कोई उसके हृदय की शून्यता को नहीं भर सकता। इसलिए उसने

हाथ जोड़कर उससे प्रार्थना की कि वह सीता को वापस लौटा दे और

उस विपत्ति से बचे जो सारी लंका और उसके स्वामी को निगलने के

लिए तैयार है। लेकिन राक्षसराज अपनी बात पर अडिग रहा। कोई भी

उसे सीता को वापस करने के लिए प्रेरित नहीं कर सकता था। जिसके

लिए उसके पराकरमी पुत्र और समर्पित सैनिक मौत को गले लगा चुके थे,

उनके बलिदान के कोध से उसका सदा सामना होता रहेगा और वह

देवताओं के लिए हँसी का पात्र भी बन जाएगा। इसलिए सीता को लौटाने

का तो प्रश्न ही नहीं था। अब चाहे जो हो, वह बहादुरी से शत्रु का

सामना करेगा और सम्मानपूर्वक

बलिदान करेगा। अत्यंत दुख से भरे, किंतु दृढ़ संकल्प के साथ अंत में

स्वयं को उसने मंडो से अलग कर लिया जैसेकि सूर्य ने स्वयं ही अपने

को अपनी तेजस्विता से खाली कर लिया हो और युद्धक्षेत्र के लिए चल

पड़ा जहाँ से उसे कभी नहीं लौटना था।

प्रेम की वेदी

पर अपने जीवन का

किंतु जब उसे इस सुंदर संसार से निश्चित रूप से जाना है तो

क्यों न वह सराहनीय और गौरवपूर्ण तरीके से जाए?

इसलिए उसने

सुंदर देवताओं के सुंदर राजा इंद्र का स्वरूप धारण किया और शेरों द्वारा

खींचे जाने वाले अपने र्थ पर स्वयं को विराजमान किया। महल के गेट

से बाहर निकलने पर एक बार पुरानी स्मृतियों ने उसे वापस लौटा लिया।

उसने अपनी उदास आँखों से पीछे देखा, वहाँ महल था और उसकी

मजबूत चहारदीवारी में वह छूट गयी थी जिसे वह सबसे ज्यादा प्यार

करता था और जो उसके लिए सबसे महत्व की थी। उसकी जीवनरहित

दीवारों के बीच उसने जीवन को जाना था और प्रेम की अनुभूति की थी

लेकिन अब उससे बाहर जाकर

वह मौत को जानेगा और नफरत का

स्वाद चखेगा। महल, जो एक समय उसके लिए शांति का स्वर्ग था,

उसका घर अथवा विश्रामस्थल था, अब घर वापसी पर उसका स्वागत

नहीं करेगा।

वहीं एक बगीचा था -एक आनंददायक बगीचा, उसकी मीठी-मीठी

यादों से भरा हुआ। बगीचा अब भी वहाँ था, फूलों से सजा हुआ और

फलों से लदा हुआ। उसके अहाते में सीता थी जिसके लिए उसने अपना

सब कुछ दाब पर लगा दिया था, पर सब कुछ हार गया था। निस्संदेह

वह उसे प्रेम करता था, अन्यथा उसके प्रेम के बदले में नफरत देने पर

वह उस पर कभी कूद्ध क्यों नहीं हो सका? क्या वह उसे अंतिम बार

देखने जाएगा? नहीं ऐसा नहीं हो सकता! सीता ने छीन लिया था उसकी

खुशियों को, उसके जीवन को, उसके वंश को, और उसके देश को ।

लेकिन जिसे वह नहीं लूट सकी, वह था उसका सम्मान, जो उसके लिए

सर्वोपरि था। निश्चित मृत्यु के इस द्वार पर आकर, वह उसे उसकी इस

बहुमूल्य अंतिम धरोहर को लूटने की अनुमति नहीं देगा। वह किसी को भी

हँसी उड़ाने का मौका नहीं देगा कि वह मृत्यू का सामना करने से पीछे

हट गया। सीता की एक काल्पनिक मूर्ति उसने एक लंबे समय से अपने

हृदय में संजो रखी थी और इसके साथ ही वह प्रेम की वेदी पर चढेगा

और बिना डगमगाए और बिना पीछे देखे अपने जीवन का बलिदान कर

देगा।

इस प्रकार दुखी राजा आगे बढ़ गया। एक मौन अकेलेपन ने

उसके हृदय पर दबाब बना दिया और उसने जीवित मौत की सिहरन

अनुभूत की। क्या अतिम क्षण इतना अकेला! क्या मौत शून्यता का आवरण

ओढ़े थी! यदि ऐसा नहीं, तो क्या अपनी विशाल सेना के बीच में खड़ा

वह अपने को एकाकी और अकेला महसूस कर रहा है? किंतु सेना भी

अपना उत्साह खो चुकी थी। उसके आगे बढ़ने में कोई उत्साह नहीं था

और उसके नगाड़ों में भी पराकम को जगाने के लिए कोई शक्ति नहीं

थी। और इसकी ध्वजा, जो कभी आकाश में बड़े गर्व से फहराया करती

थी, म्लान होकर ऐसे झुकी हुई थी कि मानो यह विजयी सेना के

आगे-आगे फिर कभी नहीं चलेगी। चीत्का

र करते हुए उल्लू उसके रथ

पर झपट्टा मार रहे थे, जबकि चहकने वाली चिड़ियाँ अपने आअभिनन्दित

स्वर खो चुकी थीं। सैनिकों के जयघोष जो शत्रुओं के साहसी हृदयों में

कॅपकपी भर देते थे, अब भूत-प्रेतों जैसी चीत्कारों से वातावरण को गुँजा

रहे थे। यहाँ तक कि उसका रथ, जो आअपनी डरावनी चरमराने वाली

आवाज से भय पैदा कर दिया करता था, अब मातमी मौन के साथ अआगे

बढ़ रहा था। काले घने बादलों ने दिन की चमक को खत्म कर दिया था

और बिजली की गर्जना उसके सर्वनाश की घोषणा कर रही थी। वास्तव

में, यह उसका निर्जीव प्रयाण था जिसका नेतृत्व वह स्वयं ऐसे र्थ पर

बैठकर कर रहा था, जो अब उत्साहहीन शेरों के द्वारा खींचा जा रहा था।

दसकंठ अब और लंबे समय तक उन अपशकूनों की कोपद्ष्टि

को नहीं सह सकता था जिन्होंने उसकी मृत्यु की पूर्व सूचना दे दी थी।

उसने सेना को तेजी से आगे बढ़ाया। यदि सर्वनाश ही उसका लक्ष्य है,

तब वह जितनी जल्दी हो सके, आए। मौत की सुलगती चिता में पल-पल

जीवित मरने से तत्क्षण मर जाना ज्यादा अच्छा होता है।

युद्धक्षेत्र में राम से उसका सामना हुआ। दसकंठ ने घातक अस्त्र

छोड़ा। लेकिन आज वह एक शत्र् से नहीं लड़ रहा था, वरन् अपने

उद्धारक की आराधना कर रहा था जो उसे उसके सांसारिक जीवन और

राक्षसी आत्मा से मुक्तित दिलाएगा। इसलिए जैसे ही उसके धनुष की

प्रत्यंचा से बाण छूटा, वह अपने आप ही भुने हुए दानों और खिले फूलों में

बदल गया और वे राम के रथ के सामने नीचे गिर कर बिखर गए।

अयुध्या के विस्मित राजकुमार ने ऊपर देखा और दसकंठ के स्थान पर

स्वयं को इंद्र से सामना करते हुए पाया। उत्कृष्ट सौंदर्य से चमकती हुई

राक्षस की आकृति को देखकर वे हक्के-बक्के रह गए और उनके हृदय ने

ऐसे सुंदर रूप को मार गिराने के लिए गवाही नहीं दी। लेकिन वायुपुत्र,

जिन्हें स्त्री की सुंदरता के अतिरिक्त और कोई सुंदरता आकृष्ट न कर

सकती थी, ने उन्हें सलाह दी कि वे किसी भी मिथ्या रूप, स्वाद, वाणी

अथवा संगीत से प्रभावित न हों।

राम तुरंत सचेत हो गए। उन्होंने अपना ब्रह्मास्त्र उठाया और

अचूक निशाने के साथ अपने धनुष से उसे

राक्षसराज पर छोड दिया।

घातक बिजली के समान वह बाण दसकंठ की छाती में घुस गया

अपने राक्षसी स्वरूप में आ गिरा। जिसने समस्त सुष्ट पर मौत का

आतंक मचा रखा था, आज वह स्वये ही उसका शिकार हुआ पड़ा था।

राक्षस

अंततः सबसे बड़ा दुश्मन

मारा

चुका था-एक बहादुर

प्रतिद्वंद्वी मारा जा चुका था, न कि पराजित किया गया था। मरते हुए

राजा ने धीरे से अपनी आँखें खोलीं। उसकी दृष्टि बिभेक पर पड़ी, उसने

सोचा कि अपने सगे भाई का जीवन लेकर उसने अपना बदला ले लिया

है। मरते हुए, उसके मन में विभिन्न प्रकार के भाव उठने लगे। मौत की

छाया से निस्तेज हुई उसकी ऑँखें भावावेश, दुख, पश्चाताप और वेदना से

जलने लगीं। उसके मुखों में से एक मुख से कुछ क्षीण शब्द निकले।

बिभेक अपने भाई को कैसे मार सकता है? क्या उनकी शिराओं में एक

जैसा रक्त प्रवाहित नहीं होता? उसके दूसरे मुख ने उलाहना मारते हुए

कहा। अपने भाई को मारकर उसने केवल अपना ही रक्त बहाया है।

अपने भाई के खून से रंगा अब वह लंका के सिंहासन पर आरूढ़ होगा।

फिर भी, यह सोच कर प्रसन्नता होती है कि देश की स्वतंत्रता को कोई

खतरा नहीं होगा।

इसके बाद मंडो का विचार उसके मन में आया और उसके प्रति

फिक से भरे शब्द बिभेक से प्रार्थना करते हुए, उसके तीसरे मुख से

लड़खडाते हुए बाहर आने लगे कि जैसे वह अपने राज्य की देखभाल

वैसे ही वह उसकी शोकसंतप्त रानी की भी देखभाल करे। फिर मरता

हुआ राजा अपने राजवंश के बारे में सोचने लगा जो उन्हें भगवान ब्रह्मा से

उत्तराधिकार में प्राप्त हुआ था और उनके चौथे मुख ने बिभेक से निवेदन

किया कि वे अपना स्नेहमय संरक्षण उसके राजवंश को प्रदान करे।

तब उसने सोचा कि वह कैसे अपने सच्चाई के रास्ते से भटक

गया और यहाँ तक कि उसने स्वयं ही अपने लिए मौत के खूनी पंजों को

आमंत्रित कर लिया। उसकी आँखें वेदना से जलने लगी थीं और पांचवें

मुख ने अपने भाई को लड़खड़ाते शब्दों

में चेतावनी देते हुए कहा।

पारलौकिक जीवन के द्वार पर खड़े राजा ने देखा कि उसका

सूर्य अब अस्त होने को है। क्या उसके अपने ही मोहभ्रम से उत्पन्न इस

स्थिति के लिए बिभेक के तीव्र रोष को ही जिम्मेदार बनाया जाए? वह

ऑँख बंद करते समय क्यों न उस भाई को देखे जिसने उसे प्यार किया,

न कि उसे जिसने उससे घृणा की? इसलिए पश्चाताप से भरे शब्दों में

उसके छठे मुख ने बिभेक से माफी मांगी।

फिर जाते हुए शक्तिशाली राजा के मन में अपने सिंहासन,

अपनी प्रजा का विचार कौंधा। अपने राजा की अनुस्थिति में प्रजा विद्रोह

कर सकती है और उसके पूर्वजों के सिंहासन को हड़प सकती है।

इसलिए उसके सातवें मुख ने भावी राजा को देश पर दृढ़ता और प्रेम से

शासन करने के लिए चेताया।

अब उस शक्तिशाली राजा का अभिनय समाप्त होने वाला था

और उसके जीवन पर पर्दा गिरने से पहले ही वह सब कुछ भूल गया।

वह भूल गया कि वह एक राजा था जिसके पास कभी अपार शक्त हुआ

करती थी। वह भूल गया कि उसके पास उसका भाई बिभेक था जिसने

अपने भाई और

विनाशकारियों की सेवा की। उसे केवल यह याद था कि वह बिभेक का

बड़ा भाई था जिसे उसने अपनी बांहों में लेकर दुलारा था, जिसे उसने

सदा प्रेम और सुरक्षा प्रदान की थी, न के घूणा और बदला। फिर से

पश्चाताप से भरे शब्द उसके आठवें मुख से हकला-हकला कर निकलने

लगे और राक्षस प्रायश्चित करने लगा कि यह उसकी अपनी दूष्टता थी

जिसने उसके भाई को उससे विमुख कर दिया था।

देश

साथ विश्वासघात किया था और इसके

इसी क्षण उसके जीवन की आखिरी लौ टिमटिमाई और उसकी

मंद पड़ती चमक में राजा ने अनुभव किया कि वह समय आ चुका है जब

उसे अपना यह पार्थिव शरीर छोड़ना है। उसने इसको भ्रातृत्व संरक्षण में

बिभेक को सौंपने की इच्छा जताई और इससे पहले कि सूर्य भोर की

सूचना दे, वह इसे अग्न को सुपूर्द कर दे ताकि उसके अंतिम अवशेषों के

समक्ष संसार को बुरा

ई करने का अवसर ही न मिले।

तभी अचानक शरीर शक्तिहीन हो गया और उसके मन के सब

विचार खत्म हो गए। उसके दसवें मुख से फुसफसाहट भी बाहर नहीं

आई। लंका का शक्तिशाली राजा अब अपनी अंतिम विश्रामावस्था में था।

उसी समय हनुमान ने उसकी आत्मा के पात्र को कुचल दिया।

इसप्रकार देवताओं और मनुष्यों के लिए आतंक बने दसकंठ के राक्षसी

जीवन का अंत हो गया। स्वर्ग से फूलों की वर्षा होने लगी, दिव्य संगीत

पूरे आकाश में गूँजने लगा और मंद-मंद पवन शाश्वत शांति और खुशी

के संदेश को प्रसारित करती हुई सम्पूर्ण सृष्टि में बहने लगी। संकटपूर्ण

समय का अंत हो चुका था और एक खिला हुआ और सुस्पष्ट नया दिन

संसार के लिए खुशियाँ लेकर आया था।

उल्लेखनीय बिंदु

इस प्रसंग में समानता की दृष्टि से सीता को मारने की घटना

दोनों ग्रंथों में एक सी है। रावण की मृत्यु का वर्णन दोनों ग्रंथों में

अलग-अलग है

बताई गई आदित्यहदय की बात रा. में नहीं है। वा. में रावण युद्धक्षेत्र से

लौटकर मंदोदरी से मिलने नहीं आया और जब उसकी मुत्यु हुई, उस

समय उसने विभीषण से कुछ नहीं कहा। रा. में वरणित ‘राम का दसकंठ

और उसके मित्रों से सामना ‘मालिवग्ग का निर्णय विशाल भाला,

कपिलाबद’ ‘जीवन का अमृत’ तथा ‘जीवात्मा का पात्र’ जैसी घटनाएं वा.

में देखने को नहीं मिलतीं। रा. में जिस तरह से दसकंठ के दार्शनिक रूप

का वर्णन मिलता है, जब उसके प्रत्येक मुख ने कोई न कोई बात कही,

वह भी वा. में नहीं है। रा. में युद्ध के अंतिम समय में रावण को राम

प्रतिद्वंद्वी के स्थान पर अपने उद्धारक के रूप दिखाई देने लगे।

रावण वध के समय वा. में वणित ऋषि अगस्त्य द्वारा

सीता की अग्नि परीक्षा

वाल्मी

कि रामायण के अनुसार

पराजित भाई रावण को पृथ्वी पर मृत पड़ा देख विभीषण

शोकावेग से व्याकुल हो रोने लगे। रावण के मारे जाने का समाचार

सुनकर मंदोदरी सहित उसकी पत्नियाँ भी शोक से व्याकुल हो अंतःपुर से

निकल पड़ीं और युद्धभूमि में पड़े महाकाय, महापराक्रमी और महातेजस्वी

रावण को देख शोक से विलाप करने लगीं तब राम ने विभीषण से उन

स्त्रियों का धैर्य बँधाने और रावण का दाहसंस्कार करने के लिए कहा।

वेदोक्त विधि और महर्षियों द्वारा रचित कल्पसूत्रों में बताई गई प्रणाली से

सारा कार्य हुआ।

तब राम ने लक्ष्मण से विभीषण का राज्याभिषेक करने को कहा।

अभिषेक के पश्ात् राम ने हनुमान को सीता की कुशलता पूछने के लिए

भेजा। विभीषण से आज्ञा लेकर वे अशोकवाटिका में सीता के पास गए

और राम की विजय की पूरी कथा सुनाई। हनुमान द्वारा सीता से राम के

लिए कोई संदेश मॉंगने पर उन्होंने कहा कि वे अपने स्वामी का दर्शन

करना चाहती हैं। हनुमान द्वारा वह संदेश जब राम को सुनाया गया तो

उनकी आँें भर आई और राम ने विभीषण से उन्हें बुलवाने के लिए

कहा। विभीषण सबसे पहले अपने अंतः पुर में गए, अपनी स्त्रियों को सीता

के पास यह कहने के लिए भेजा कि वे उनसे मिलना चाहते है।

उसके

बाद विभीषण वहाँ गए और सीता से राम की बात कही। विभीषण की

बात सुनकर वे स्नान कर वस्त्राभूषणों को पहन चलने के लिए तैयार हुई।

जब वे वहाँ पहुँची, विभीषण ने राम से सीता के आने का समाचार बताया।

“राक्षस के घर में बहुत दिनों तक निवास करने के बाद आज सीता आई

हैं। यह सोच कर और फिर सीता को देख राम को हर्ष, कोध और दुख

का एक साथ अनुभव हुआ। उन्होंने विभीषण से कहा कि वे पालकी

छोड़कर मेरे पास आएं

सभी वानर एक साथ उनका दर्शन करें। सीता ने

भी सौम्य भाव से राम का दर्शन किया।

सीता के विनयपूर्वक पास आने पर राम ने अपना हार्दिक

अभिप्राय बताते हुए उनसे कहा, ‘जब तुम आश्रम में अकेली थीं, उस समय

यह चंचल चित्त वाला राक्षस तुम्हें हर कर ले गया। यह दोष मेरे ऊपर

दैववश प्राप्त हुआ था, जिसका मैंने मानवसाध्य

पुरुषार्थ के द्वारा मार्जन

कर दिया।… सदाचार की रक्षा, सब ओर फैले हुए अपवाद का निवारण

तथा अपने सुविख्यात वंश पर लगे हुए कलंक का परिमार्जन करने के

लिए ही यह सब मैंने किया है। तुम्हारे चरित्र में संदेह का अवसर

उपस्थित है.अतः जनककुमारी ! तुम्हारी जहाँ इच्छा हो, चली जाओ ।..

कौन ऐसा कुलीन पुरुष होगा, जो तेजस्वी होकर भी दूसरे के घर में रही

स्त्री को, केवल इस लोभ से कि यह मेरे साथ बहुत दिनों तक रहकर

सौहार्द स्थापित कर चुकी है, मन से भी ग्रहण कर सकेगा ।’ अपने प्रियतम

के मुख से ऐसे वचन सुन कर, हाथी की सूँड से आहत हुई लता के

समान सीता आँसू बहाने लगीं। फिर नेत्रों के जल को अंचल से पौछती

हुई वह धीरे -धीरे गदगद वाणी में इसप्रकार बोलीं, ‘वीर! आप ऐसी कठोर,

अनुचित कर्णकटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हो?..महाबाहो! आप

मुझे जैसा समझते हैं, वैसी मैं नहीं हूँ। मुझ पर आप विश्वास कीजिए।

दिया आपके प्रति मेरे हृदय में जो भक्ति है और मुझमें जो शील है, वह

बाल्यावस्था में आपने मेरा पाणिग्रहण किया था, इसकी ओर भी ध्यान नहीं

सब आपने पीछे ढकेल दिया-एक साथ ही भुला दिया। उन्होंने लक्ष्मण से

अपने लिए यह कहते हुए चिता तैयार करने को कहा कि उनके स्वामी

उनके गुणों से प्रसन्न नहीं हैं। उन्होंने भरी सभा में उनका परित्याग कर

दिया है। ऐसी दशा में उनके लिए जो मार्ग उचित है, उस पर जाने के

लिए वे अग्नि में प्रवेश करेंगी। सीता के ऐसे वचनों को सुन लक्ष्मण ने

कोध में भरकर राम की ओर देखा। किंतु राम के संकेत से सूचित होने

वाले हार्दिक अभिप्राय को जानकर पराकृमी लक्ष्मण ने उनकी सहमति से

ही चिता तैयार कर दी। राम सिर झुकाए वहाँ खड़े थे। सीता ने आअग्नि

की परिकृमा की और यह कहते हुए अग्नि में प्रवेश किया, ‘यदि मैंने मन,

वाणी और किया द्वारा कभी संपूर्ण धर्मों के ज्ञाता श्री रघुनाथ जी का

अतिक्रमण न किया हो तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें । उनके अग्नि में प्रवेश

करते समय राक्षस और वानर जोर-जोर से हाहाकार करने लगे। राम भी

स स्थिति में बहुत दुखी हुए। ऐसे में कुबेर, यमराज, इंद् , महादेव और

ब्रह्मा जी उनके पास गए और राम को उनके स्वरूप से परिचित कराया।

बह्मा जी के वचनों को सुनकर अग्नदेव मूर्तिमान होकर पिता की भाँति

सीता को गोद में लेकर प्रकट हुए और सीता की पवित्रता को प्रमाणित

करते हुए कहा, ‘उत्तम आचार वाली इस

शुभलक्षणा सती ने मन, वाणी,

बुद्धि अथवा नेत्रों द्वारा भी आपके सिवा किसी दूसरे पुरुष का आश्रय नहीं

लिया।.इसका भाव सर्वथा शुद्ध है, कृपया आप इसे सादर स्वीकार करें।

उनकी बात को सुनकर राम की ऑँखों में ऑस् छलक आए और आग्नि

देव से उन्होंने यही कहा, ‘लोगों में सीता की पवित्रता का विश्वास दिलाने

के लिए

दीर्घकाल तक रावण के अंतःपुर में रहना पड़ा है। यदि मैं ऐसा न करता

तो लोग यही कहते कि राम बड़ा ही मूर्ख और कामी है।’ ऐसा कहकर

राम अपनी प्राणवल्लभा सीता से मिले ।

इनकी यह शुद्धिविषयक परीक्षा आवश्यक थी क्योंकि इन्हें

रामकीर्ति के अनुसार

अपने स्वामी की मृत्यू के बाद लंका में शोक का वातावरण छा

गया। बिभेक अपने भाई के लिए विलाप कर रहे थे और मंडो अपने पति

के लिए। लेकिन आँसू अब उसे वापस नहीं ला सकते थे जिसे मौत के

झौंके ने अपने अंधकारमय सीने में समेट लिया हो। इसलिए उन्होंने अपने

दुख को छिपा लिया और अपने राजा के शव का वीरोचित दाह संस्कार

किया।

उसके बाद लंका का शोकाकुल वातावरण उल्लास में बदल

गया। दुख विस्मृति में समा गया और सारा नगर लंका के खाली सिंहासन

पर बैठे अपने नए राजा और साथ में उनके दाँयी तरफ रानी त्रिजटा तथा

बायी तरफ रानी मंडो के स्वागत के लिए सौभाग्यशाली वैभव से चमकने

लगा।

अब दसकंठ की मृत्यु और उसके दाह-संस्कार के संपन्न होने

के बाद राम का हृदय स्वाभाविक रूप से सीता के लिए व्याकुल हो गया।

इसीलिए बिभेक तेजी से सीता के पास गए और उन्हें उनके स्वामी के

सामने ले आए। यद्यपि राम उन्हें सबसे अधिक प्रेम करते थे, तथापि वे

समाज द्वारा की जाने वाली निंदा से भयभीत थे, यदि उन्होंने लंबे समय

से खोई सीता को अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया तो। इस निंदा

को सुनने के लिए वे तैयार नहीं थे। उन्होंने चुपचाप पास आती हुई सीता

को देखा। उनके उत्सुक हृदय की प्रस

न्नता बाहर झलक रही थी जो

उनके गालों पर पहले से छाई लाली को और उद्दीप्त कर रही थी।

लेकिन सीता के मन में राम द्वारा उन्हें स्वीकार करने की बात को लेकर

तरह-तरह की शंकाएं घुमड़ रही थीं। इस कारण एक अनजाना भय

उनकी खुशी में मिश्रित हो गया और अचानक उनके मुखमंडल की लाली

पर पीलापन छा गया। झिझकते हुए कदमों से वह अपने पति के पास

पहँचीं और अस्वीकार करने के भय से कुछ दूरी पर जाकर बैठ गई।

राम उनके प्रेम को पाने के लिए तड़प रहे थे। लेकिन सीता के

लिए उनका प्रेम इतना दृढ़ नहीं था कि वह सामाजिक भत्त्सना को सह

सके। इसलिए राम सीता को स्वीकार करने से पहले समाज के अनुमोदन

को सुनिश्चित कर लेना चाहते थे। कैरसे वे सीता की पवित्रता के बारे में

समाज का संदेह दूर करें? अचानक एक अच्छा विचार उनके मस्तष्क में

कोंधा। वे सीता से उन उपहारों के बारे में पूछें जो संभवतः दसकंठ ने

उन्हें दिए होंगे ताकि सीता उनके इशारे को समझते हुए आअपनी अक्षत

पवित्रता का प्रमाण दे सकें।

स्वागत भरी मुस्कान से राम ने सीता से उन बहुमूल्य उपहारों के

बारे में पूछा जो संभवतः दसकंठ से उन्होंने प्राप्त किए हों। उन्होंने उन

उपहारों को दिखाने के बारे में भी कहा। उनके प्रिय पति द्वारा किए गए

इस निष्ठुर प्रश्न ने उनके ऊपर वज्पात किया। दसकंठ अपने सभी प्रकार

के अनैतिक प्रणय निविदन से उसे इतनी यंत्रणा नहीं दे पाया जितनी राम

के इस निष्ठुर प्रश्न ने दे दी। वह प्रेम कैसे खुशी दे सकता है जो संदेह

से घिरा हो? अतः उन्होंने अपनी पवित्रता का एक ऐसा प्रमाण प्रस्तुत

करने का संकल्प किया जो संदेही ह्ृदयों को आश्चर्यचकित कर देगा तथा

उसे एक आदर्श स्त्रीत्व के सिंहासन पर सुशोभित करेगा। देवताओं के

समक्ष वह अग्नि में प्रवेश करेगी और सिद्ध करेगी कि उसकी पवित्रता की

तेजस्विता आग की कू्ध लपटों को भी ठंडा कर सकती है।

तत्पश्चात् राम ने आकाश में बाण छोड़ा और पवित्रता की शक्ति

का साक्षी बनने के लिए सभी देवताओं को आमंत्रित किया। एक ही पल

में राक्षसों का नगर देवताओं के नगर में बदल गया। सुग्रीव ने चिता

तैयार की और राम के बाण ने इसमें अग्नि प्र

ज्ज्वलित की। तब वह कार्य

शुरु हुआ जिसने देवताओं की आँखों को भी विस्मित कर दिया धीरे-धीरे

किंतु दृढ़ता से, प्रेम से भरी आँखों और पवित्रता से भरे हृदय से सीता ने

कदम बढ़ाए और भस्म कर देने वाली लपटों में प्रवेश कर गई। तब सभी

चमत्कारों से ऊपर एक चमत्कार घटित हुआ। सीता की पवित्रता के

सामने प्रकृति भी अपनी दिशा का अनुसरण करना भूल गई। चारों ओर से

घिरी हुई सुनहरी आग की लपटों में से नारायण की दुखी पत्नी प्रकट हुई

और उनके ऊपर ताजा जल छिड़क कर शीतलता प्रदान की। जलती हुई

लकड़ियों की शुष्कता ने खिले हुए कमलों की कोमलता को जगह दी जो

उनके कोमल कदमों को ग्रहण करने के लिए खिल गए और सारे

वातावरण में एक हल्की सुगंध फैल गई। सोने की एक जीवित प्रतिमा,

सीता अग्नि की लपटों के बीच में खड़ी थी और उन्होंने संदिग्ध संसार

को दिखा दिया कि स्त्री की पवित्रता के सामने लपटें भी अपनी तेजी खो

देती हैं और अग्नि भी शीतलता प्रदान करती है।

उल्लेखनीय बिंदु

यह घटना दोनों ही ग्रंथों में वर्णित है । दोनों में ही राम सामाजिक निंदा

के भय से सीता की पवित्रता प्रमाणित कर लेना चाहते थे। लेकिन उनके

इस संदेह को सीता के समक्ष प्रस्तुत करने के लिए अलग-अलग वर्णन

हैं। दोनों में सीता अग्न में प्रवेश कर अपनी पवित्रता को प्रमाणित करती

राम की अयोध्या वापसी

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

सीता की अग्नि-परीक्षा के अगले दिन राम ने विभीषण से

अयोध्या जाने के लिए व्यवस्था करने को कहा। विभीषण ने राम से लंका

में कुछ दिन उनका आतिथ्य स्वीकार करने का अनुरोध किया। राम के

द्वारा उनका प्रस्ताव अस्वीकार कर दिए जाने पर विभीषण ने पुष्पक विमान

का आवाहन किया। विमान पर बैठकर राम ने वि

भीषण सहित सुग्रीव से

अपने-अपने स्थानों पर जाने के लिए कहा लेकिन उन सभी ने उनके

साथ अयोध्या जाने की बात कही जिसे राम ने स्वीकार कर लिया। वे सब

भी अयोध्या के लिए चल दिए।

पुष्पक विमान से राम ने सीता को उन स्थानों को दिखाया जहाँ

रावण से युद्ध हुआ था। फिर किष्किधानगरी का दर्शन

पर

करवाया। वहाँ से सीता सुग्रीव की पत्नी तारा तथा उनकी अन्य अनेक

पत्नियों को साथ लेकर अयोध्या के लिए चलीं । ऋष्यमूक पर्वत के पार हो

जाने पर श्रृंगवेरपुर आया और वहाँ से सरयू नदी दिखाई पड़ने लगी।

उनका

14वाँ वर्ष पूरा हो जाने पर पंचमी तिथि को वे लोग भारद्वाज

ऋषि के आश्रम में पहूँचे। मुनि द्वारा किए गए आतिथ्य को स्वीकार करके

वे आगे बढ़े । अयोध्या के पास पहुँचने पर राम ने हनूमान को अयोध्या की

कुशलता जानने के लिए और भरत को उनके आगमन और उनसे मिलने

की इच्छा के बारे में बताने के लिए कहा। हनुमान अत्यंत शीघ्रता से भरत

के पास पहुँचे। राम के आगमन की बात सुनकर उनकी खुरशी का ठिकाना

न रहा। वे राम, लक्ष्मण और सीता के विषय में विस्तार से पूछते रहे।

हनुमान ने जब राम के भारद्वाज ऋषि के आश्रम में ठहरने के बारे में

बताया तो उन्होंने शत्रु को राम के स्वागत की तैयारी की व्यवस्था के

लिए आदेश दे दिए। सभी नगरवासी राम के दर्शनों के लिए लालायित

थे। सभी रानियाँ नंदीग्राम पहुँच गई वानरों के कोलाहल ने राम के आने

की सूचना दे दी। राम की आज्ञा से पूष्पक विमान नीचे उतारा गया।

भरत को गले लगाने के बाद उन्होंने उन्हें विमान पर चढ़ा लिया। भरत ने

सिंहासन पर रखी हुई चरण पादुकाएं राम के चरणों में पहना दीं और

कहा कि धरोहर के रूप में रखा हुआ यह राज्य आज उन्होंने उन्हें लौटा

दिया है। राम ने नीचे उतर कर सभी माताओं की चरण वंदना की और

सभी को िमान में बैठाकर अयोध्या पहुँच गए। पुरवासियों ने राम का

जोरदार स्वागत किया।

भरत ने राम को राज्य लौटाकर राज्याभिषेक करने की बात कही

जिसका सरभी ने समर्थन किया। इसके बाद राम ने लक्ष्मण से युवराज पद

धारण करने के लिए कहा जिसे अस्वीका

र कर उन्होंन भरत को युवराज

बनाने के लिए कहा। तब राम ने भरत को युवराज-पद पर अभिषिक्त

किया। राम ने पौण्डरीक, अश्वमेध, वाजपेय तथा अन्य अनेक प्रकार के

यज्ञों का आयोजन करते हुए ग्यारह सहस्त्र वर्षों तक अयोध्या पर शासन

किया।

रामकीर्ति के अनुसार

सीता की अग्नि परीक्षा के बाद राम ने अयुध्या जाने की तैयारी

आरंभ की क्योंकि उनके वनवास का समय समाप्त होने वाला था और

यदि वह समय पर वापस लौटने में असमर्थ रहे, सत्रुद जलती हुई चिता

में जान दे देगा। भक्त विभीषण ने उनसे लंका के सिंहासन पर आरूढ़

होने के लिए काफी अनुनय -विनय की किंतु राम ने उनका प्रस्ताव

अस्वीकार कर दिया।

इससे पहले वे अपनी राजधानी के लिए प्रस्थान करते,

उनका

सामना दसगिरिवन और दसगिरिधर के पोष्य पिता अश्कर्ण से हुआ क्योंकि

अश्कर्ण को पता चल चुका था कि दसकंठ के साथ उनके दोनों पोष्य पुत्र

भी राम के बाणों का श्िकार बन चुके हैं। इसलिए अपने पोष्य पुत्रों का

बदला लेने के लिए वह जल्दी से वहाँ पहुँच गया।

वे एक भयंकर और विस्मित कर देने वाला युद्ध लड़े। राम ने

राक्षस के दो टुकड़े किए किंतु तुरंत ही दोनों टुकड़े जीवित हो गए । अब

राम को एक के स्थान पर दो राक्षसों से लड़ना पड़ा। हालांकि उनके

तीक्ष्ण प्रक्षेपास्त्र ने उन दोनों को काट दिया, किंतु उनको बड़ा आश्चर्य

हुआ कि वे दोनों अब चार हो गए। अब उन्हें ऐसे शत्रु के साथ क्या

करना चाहिए, जिसका कटा हुआ शरीर ईस्वर की कृपा से दोगुना हो रहा

था? लेकिन उनको सलाह देने के लिए वहाँ पर बिभेक थे। उत्साहित

होकर राम ने एक बाण छोड़ा। इसने उन शरीरों के आधे-आधे टुकड़े कर

दिए। और जैसे ही शरीर कटे, उन्होंने दूसरा बाण छोड़ दिया जिसने उन

सभी को समेट कर नदी में डाल दिया और उन्हें जल समाधि दे दी

जिसके बाद

राक्षस दोबारा नहीं उठा।

शत्रु से छुटकारा पाकर राम ने अपने भाई और पत्नी के साथ

अयुध्या के लिए प्रस्थान किया। उनके पीछे उनकी निष्ठावान सेना ने

उनका अनुगमन किया। समुद्र पार करने के बाद बिभेक ने राम से पुल

को नष्ट कर जल को प्रवाहित करने की प्रार्थना की। राम ने उनकी

प्रार्थना को पूर्ण किया और एक बार फिर आनंत सागर की अनियंत्रित

लहरें नृत्य करने लगीं।

वे अभी आगे बढ़े भी नहीं थे कि मेघ्ों की गर्जना ने आकाश को

घेर लिया। यह प्रलयकल्प था, काल-अग्गी से पैदा हुआ दसकंठ का

पाताल में पला-बड़ा हुआ, उसे उस महाविपदा का पता नहीं लगा

जो उसके पिता पर पड़ चुकी थी । लेकिन अब उसे अपने शक्तिशाली

पिता के दुर्भाग्य का पता चल चुका था और इसलिए वह उसकी हार और

मौत का बदला लेने आया था।

इनुमान ने प्रलयकल्प का मूकाबला किया। यह राक्षस दसकठ

का असाधारण शक्ति वाला पुत्र था। इसलिए चतुर वानर ने सबसे पहले

उसे थकाने का प्रयत्न किया ताकि वे उसको सरलता से पराजित कर

सकें। वानर ने एक भैंसे का रूप बनाया और कीचड़ में डूबने का दिखावा

करने लगा। प्रलयकल्प उस रास्ते से गुजर रहा था। उसने भैंसे से राम

और लक्ष्मण के बारे में पूछा। लेकिन संघर्ष कर रहे उस जानवर ने कीचड़

से बाहर निकालने और उसकी जान बचाने के लिए उससे सहायता

मांगी। एक भीषण संघर्ष के बाद, जिसने उसकी सारी शक्ति क्षीण कर दी

थी, वह भैंसे को बाहर निकालने में सफल हुआ ।

हनुमान ने उसे राम और लक्ष्मण के पास जाने से रोकने का

प्रयत्न किया। लेकिन राक्षस ने इसके बारे में एक न सुनी। तब उसके

पास अपने वानर रूप में आने और उससे युद्ध करने के अलावा कोई

दूसरा विकल्प न था। उन दोनों के बीच एक भयंकर युद्ध हुआ। अब भी

राक्षस अपराजित था, यद्यपि वह थक चुका था। यह इसलिए था कि

उसकी चमत्कारिक शक्ति ने उसके शरीर को इतना चिकना बना दिया

था कि कोई उसे पकड़ कर नहीं रख सकता था। लेकिन वायूपुत्र ने अभी

तक हार स्वीकार करना नहीं सीखा था। उन्हों

ने अपना ही एक प्रतिरूप

बनाया, जिसने उनका स्थान ले लिया और वे स्वयं दिशपाई नाम के

किसी ऋषि के पास उड़ कर चले गए और उनसे परामर्श मांगा। किंतु

किसी को दूसरे की जान ले लेने के लिए शिक्षित करना तपस्वी जीवन के

नियमों के विरुद्ध था। इसलिए मौखिक शिक्षण के स्थान पर सहायता

करने के इच्छुक ऋषि ने मैदान पर रेत बिखेर कर एक संकेत दे दिया।

बुद्धिमान वानर ने उनके संकेत को समझ लिया। वे तुरंत लौट आए और

शरीर पर रेत बरसाने लगे जिससे उसके शरीर का सारा

चिकनापन समाप्त हो गया। हनुमान ने दृढ़ता से उसे पकड़ लिया और

उसे अपने पिता के पास भेज दिया

इस अवरोध से छूटकारा पाने के बाद, राम ने जंगल के रास्ते से

आगे बढ़ना शुरु किया-उनके ऑँसुओं और मुस्कानों के दृश्यों ने उन्हें उन

दुखों की याद दिला दी जो उन्होंने सहे थे और उन खुशियों की जिनका

उन्होंने आनंद लिया था। अंत में वे खिडकिन पहुँचे जहाँ निलाबद ने

उनका हार्दिक स्वागत किया। वहाँ से रास्ते में राम के निष्ठावान मित्र

खुखान से मिलते हुए उन्होंने सीधे अयुध्या के लिए प्रस्थान किया। भरत

और सत्रुद को बचाने के लिए, वे बिल्कुल सही समय पर अयुध्या पहुँच

गए। प्रसन्नता ने सारे नगर को रोमांचित कर दिया और खुशी से प्रत्येक

का मुखमंडल खिल उठा। अब वे राजसिंहासन पर आरूढ़ होंगे और

अपनी प्रजा को समृद्धि की ओर ले जाएंगे।

उनकी विजय ने एक विशाल राज्य को उनके नियंत्रण में ला

दिया था। इसलिए कृतज्ञ राजा ने उसे अपने मितरों में बाँट दिया जिन्होंने

उनके सम्मान को पुनः प्रतिष्ठापित करने के लिए अपने जीवन की बाजी

लगा दी थी। लक्षण को उन्होंने रोमागल राज्य दिया जिसे पहले खर द्वारा

शासित किया जाता था। भरत और सत्रुद को उन्होंने अपना प्रत्यक्ष

उत्तराधिकारी बना दिया। सुग्रीव को फाया वैयवंग्स महासूरतेज रअंग्श्रि के

नाम से खिडकिन का राजा बना दिया। विभेक को राजा दशगिरिवंग्स

बंग्सब्रह्माधिराज रंगसर्ग के नाम से लंका का राजा बनाया गया। फ़ाया

इंद्रानुभब के नाम से अंगद को खिडकिन का यु

वराज बना दिया। जंबूवान

को पंग्ताल का राजा बना दिया गया और इसके साथ ही जंभूवराज को

उनका प्रत्यक्ष उत्तराधिकारी बना दिया गया।

खुखान को फ़ाया खुखांधिपति की उपाधि के साथ पुरीराम देश

दे दिया गया। हनुमान को फाया अनुजित चककृष्ण बिबादवंग्स नाम के

साथ अयुध्या का राजा बना दिया गया किंतु फ़ाया अनुजित का उस देश

का राजा बनना नियति निर्धारित नहीं था जिसके विधिसम्मत उत्तराधिकारी

नारायण के अवतार थे। ज्यों ही वे सिंहासन पर विराजमान हुए त्यों ही

एक जला देने वाली संविदना उनके सारे शरीर में फैल गई और सलामी

लेने की किया उन्हें ऐसी मालूम पड़ी कि मानो बहुत से भाे उनकी

आँखों को वेध रहे हों। वे सिंहासन से उतर गए और उसे विधिसम्मत

राजा को सौंप दिया।

तब कृतज्ञ राम ने एक बाण छोड़ा और फ़ाया अनुजित को

उसका पीछा करने के लिए कहा। जहाँ पर यह बाण जाकर गिरेगा, वहीं

पर वे उनके लिए एक नगर का निर्माण करेंगे। बाण एक नौ चोटी वाले

पर्वत पर जाकर गिरा और उसे ध्वस्त कर मिट्टी में मिला दिया। अपनी

पूछ से झाडू लगाकर फ़ाया अनुजित ने उस स्थान को साफ किया, एक

चहारदीवारी बनाई और राम के पास लौटे, जिन्होंने विष्णुकर्मा को फाया

अनुजित के लिए एक नगर बनाने का आदेश दिया। नगर का निर्माण

किया गया, इसे नाबपुरी नाम दिया गया और फ़ाया अनुजित को इसका

शासक बना दिया गया।

अब राजा राम सब राजाओं के राजा हो गए और उनके भद्र

शासन और नेतृत्व में सारे साम्राज्य में सुख-शांति का वातावरण हो गया।

उल्लेखनीय बिंदु

राम की अयोध्या वापसी का प्रसंग दोनों ही ग्रंथों में है, किंतु

तत्संबंधी घटनाएं दोनों में अलग-अलग हैं। वा. में राम ने पूष्पक विमान

से अयोध्या के लिए प्रस्थान किया। रास्ते में पड़ने वाले ऐसे सभी स्थलों

को सीता को दिखाया गया जिनका संबंध

उनसे था। राम ने स्वयं

अयोध्या में जाने से पहले हनुमान से अयोध्या की वास्तविक स्थिति का
पता लगाकर आने के लिए कहा
राज्याभिषेक हुआ और भरत को युवराज बनाया गया। अपने भाईयों के
साथ 11 हजार वर्षों तक राम के सुखपूर्वक शासन करने का उल्लेख वा.
में मिलता है। ऐसा वर्णन रा. में नहीं है। रा. में अयोध्या पहुँचने से पहले
के जिन दो यूद्धों का वर्णन है, वे वा. में नहीं है। विभेक द्वारा पूल को
नष्ट करने की प्रार्थना तथा राम के द्वारा राज्य के बँटवारे का उल्लेख भी
वा. में नहीं है।
जब वे सब वहाँ पहुँच गए तब राम का
सीता का निर्वासन
वाल्मीकि रामायण के अनुसार
राज्याभिषेक के बाद राम प्रतिदिन राजसभा में बैठकर पुरवासियों
और देशवासियों के सारे कार्यों की देखभाल करते हुए शासन चलाने
लगे। कुछ दिन बीत जाने पर राम ने महाराज जनक, यूधाजित, प्रतर्दन
तथा अन्य राजाओं की विनयपूर्वक विदाई की। तत्पश्चात् सुग्रीव, विभीषण,
रीछों, वानरों और राक्षसों को विदा करके भाईयों सहित सुख-स्वरूप राम
सुख और आनंदपूर्वक वहाँ रहने लगे।
धर्मज्ञ राम दिन के पूर्व भाग में धर्मानुसार धार्मिक कृत्य करते थे
और शेष आधे दिन अंतःपुर में रहते थे। इ्हीं दिनों राम ने अपनी पत्नी
को गर्भ के मंगलमय चिहनों से युक्त देख अनुपम हर्ष का अनुभव किया
और सीता से कोई ऐसी इच्छा के बारे में पूछा जिसे वे पूरा करना चाहती
हों। तब सीता ने पवित्र तपोवनों को देखने की अपनी इच्छा के बारे में
बताया जिसे पूरी करने की बात कहकर राम चले गए।
एक बार राम मित्रों से घिरे हुए थे। उसी समय किसी कथा के
प्रसंग में उन्होंने अपने मित्रों से पूछा ‘आजकल नगर और राज्य में किस
बात की चर्चा सर्वाधिक होती है? वे लोग मेरे बारे में, सीता, लक्ष्मण, भरत,
शत्रु् और माता कैकेयी के बारे में क्या- क्या बातें करते हैं? पुरवासी मेरे
202

विषय में कौन-कौन सी शुभ-अशुभ बातें कहते हैं, उन सबको यथार्थतः

बताओ। उनके द्वारा बताई गई शुभ बातों का वह अआचरण करेंगे और

अशुभ कृत्यों को त्याग देंगे। ऐसा कहकर राम ने उन्हें सारी सच्चाई

ईमानदारी से बताने के लिए कहा। उनमें से एक भद्र ने राम को बताया

कि लोग आपके द्वारा समुद्र पर किए गए पुल निर्माण तथा रावण वध की

तो बहुत प्रशंसा करते हैं लेकिन सभी को एक बात खटकती है कि युद्ध

में रावण को मारकर सीता को वे अपने घर पर क्यों ले आए। उनके मन

में सीता के चरित्र को लेकर कोई अमर्ष क्यों नहीं हुआ? वे उनसे घृणा

क्यों नहीं करते हैं? अब तो उन्हें भी स्त्रियों की ऐसी बातें सहनी पड़ेंगी

क्योंकि राजा जैसा करता है, प्रजा भी वैसा ही अनुकरण करती है। वहाँ

उपस्थित सभी ने उस भद्र का समर्थन किया।

मित्रमंडली के चले जाने पर राम ने अपना कर्तव्य निश्चत कर

अपने तीनों भाईयों को बुलवाया और पुरवासियों के बीच चल रही चर्चा के

बारे में बताया और कहा, ‘लोक-निंदा के भय से मैं अपने प्राणों को और

तुम सबको त्याग सकता हूँ तो सीता को त्यागना कौन सी बड़ी बात है।

उन्होंने लक्ष्मण से गंगा के उस पार तमसा नदी के तट पर बने वाल्मीकि

के आश्रम के पास सीता को छोड़कर आने के लिए कहा। उन्होंने बताया

कि सीता ने पहले उनसे कहा था कि वह गंगा तट पर बने ऋषियों के

आश्रमों को देखना चाहती हैं, अतः उनकी यह इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी

राम की अआज्ञा का पालन करने के लिए लक्ष्मण ने अगले दिन

सुमंत्र से रथ तैयार करने और सीता को ऋषियों के आश्रम तक पहुँचाने

के लिए कहा। सीता के पास जाकर लक्ष्मण ने उनसे आश्रमों को देखने

के लिए चलने हेतु तैयारी करने की बात कही। इसे सुन सीता बहुत

प्रसन्न हुई और पूरी तैयारी के साथ सीता लक्ष्मण के साथ रथ पर बैठीं ।

रास्ते में दिखाई पड़ने वाले अपशकुनों के बारे में सीता ने लक्ष्मण को

बताया, तब लक्ष्मण ने बड़े ही मुरझाए मन से सबके कल्याण की बात

कही।

अगले दिन दोपहर में भागीरथी के उस पार पहुँचने पर लक्ष्मण

की आँखों में ऑँसू आ गए। उन्होंने

सीता को बताया कि राम ने

लोकापवाद के कारण उनका त्याग कर दिया है। यहीं उनके पिता के

मित्र वाल्मीकि रहते हैं, अतः वे उनके आश्रम में उपवासपारायण और

एकाग्र होकर निवास करें ।

लक्ष्मण से ऐसे वचन सुनकर सीता को बहुत दुख हुआ। वे

लक्ष्मण से दीन-हीन

मूर्च्छित होकर नीचे गिर पड़ीं। होश आने पर वे

वाणी में बोलीं कि महाराज से मेरी तरफ से यही कहना, ‘वीर! आपने

अपयश से डरकर ही मुझे त्यागा है, अतः लोगों में आपकी जो निंदा हो

रही है अथवा मेरे कारण जो अपवाद फैल रहा है, उसे दूर कररना मेरा भी

कर्तव्य है क्योंकि मेरे परम आश्रय आप ही हैं। जिस तरह पुरवासियों के

अपवाद से बचकर रहा जा सके, उसी तरह आप रहें। स्त्री के लिए पति

ही देवता है, पति ही बंधु है, पति ही गुरु है। इसलिए उसे प्राणों की

बाजी लगाकर भी विशेष रूप से पति का फ्रिय करना चाहिए। आज तुम

भी मुझे देख जाओ। मैं इस समय ऋतुकाल का उल्लंघन करके गर्भवती

हो चुकी हूँ ।’ लक्ष्मण जी सीता की ऐसी बातों को सुनकर बहुत दुरखी हुए।

शोक के भार से दबे हुए लक्ष्मण गंगाजी के उतरी तट पर पहुँचकर दुख

के कारण अचेत-से हो गए। लक्ष्मण के वहाँ से जाते ही दुख के भारी

बोझ से दबी सीता उस वन में जोर-जोर से रोने लगीं।

रामकीर्ति के अनुसार

आतंक के दिन बीत चुके थे और व्यवधानरहित खुशी के दिन

आ चुके थे। किंतु भाग्य जैसा चंचल है वैसा ही पक्षपाती है। कभी वह

अपने पूरे वैभव के साथ मुस्कराता है और कभी वह अपना कुद्ध रूप

दिखलाता है। किसी के लिए तो वह फूलों की सेज बिछाता है और किसी

के लिए वह काटों की सेज आरक्षित रखता है। इसप्रकार चंचल और

पक्षपाती भाग्य मनुष्य के जीवन के साथ मनमौजी ढंग से खेल खेलता है

जैसे उसने सीता के जीवन के साथ खेला।

उस समय अयुध्या पर भाग्य की कृपा थी और उसी प्रकार सीता

पर भी। वास्तव में उनकी खुशियों की कोई सीमा नहीं थी। वे राक्षसों की

कैद से मुक्त हो गई थीं और अब वे अपने पति की

पराक्रमयुक्त, प्रेममयी

बाँहों में थीं। इसके अतिरिक्त, वे एक बच्चे को भी जन्म देने वाली थीं जो

एक दिन अयुध्या के सिंहासन को सुशोभित करने वाला होगा। यह उनके

लिए अपार प्रसन्नता का स्त्रोत था और उन्होंने सोचा कि वे भाग्य की

परम कृपा पात्र हैं। किंत् अफसोस! यह तो चंचल भाग्य की कृपा की एक

झलक मात्र थी। बहुत शीघ्र ही वह लुप्त हो गई और उसका स्थान

उसकी कुद्ध और निष्ठर दृष्टि ने ले लिया। सीता फिर से दुख के सागर

में डूब गई।

हुआ यूँ कि सम्मानखा की पुत्री अदुल अपने सगे-संबंधियों की

मृत्यु का बदला लेने की सोच रही थी। उसकी स्थिति इस बात की

अनुमति नहीं दे रही थी कि वह शत्र को शस्त्रों से चुनौती दे। इसलिए

अपने प्रतिशोध को तृप्त करने के लिए उसने राम और सीता के बीच

संबंध विच्छेद कराने की सोची। अंततः इसके लिए उसे अपने आप ही

एक सुनहरा अवसर मिल गया ।

एक बार राम कुछ समय के लिए जंगल में प्रवास हेतु चले गए

और सीता महल में अकेली रह गई । पति की अनुपस्थिति ने महल के

सारे सुख फीके कर दिए। इसलिए उन्होंने नदी के ठंडे पानी में नहा कर

क्षणिक सुख पाने की सोची। उस राक्षसी ने इस अवसर का लाभ उठा

कर महल में काम करने वाली किसी स्त्री का स्वरूप धारण किया और

सीता के सामने उनकी एक दासी बनकर प्रस्तुत हो गई

रानी ने इस मायावी दासी से अपना काम करवाने में कोई संकोच नहीं

किया।

राम की नि:शंक

एक दिन मायावी अदुल ने एक चाल के तहत यह जानने की

उत्सुकता दिखाई कि दरसकंठ कैसा दिखाई देता था। उसने सीता से

स्लेट पर उसकी आकृति खींचने की प्रार्थना की। चूंकि उनके मन में कोई

संदेह नहीं था, अतः उन्होंने अपनी उत्सुक दासी की इच्छा को पूरा कर

दिया।

जैसे ही सीता ने आकृति पूरी की, वैसे ही प्रतिशोधी दासी

उनकी दृष्टि से ओझल हो गई और स्ले

ट पर खींची गई आकृति में

प्रविष्ट हो गई। उसी क्षण राम अपने प्रवास से लौट आए। भयाकुलता से

सीता ने आकृति को मिटाने का बार-बार प्रयत्न किया। लेकिन वे जितना

अधिक उसे मिटातीं, उतनी ही अधिक स्पष्ट वह दिखाई देने लगती।

परेशान होकर उन्होंने वह स्लेट बिस्तर के नीचे छिपा दी ।

अब राम प्रतिदिन की तरह विश्रम करने के लिए आए। ज्योंही

इसका कारण

वे बिस्तर पर लेटे, वे अत्यधिक गर्मी का अनुभव करने लगे

था कि वह राक्षसी स्लेट के अंदर से असहनीय गर्मी छोड रही थी। राम

के स्वयं को ठंडा रखने के सारे प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुए उन्हें ऐसा लगा

कि मानो लपटें उन्हें जला रही हों। अंत में उन्होंने लक्षण को बुलवाया

और उनसे अचानक उत्पन्न हुई गर्मी का कारण ढूंढने के लिए कहा।

उनकी खोज ने उस स्लेट को दूंढ लिया जो अपने आप ही सारी कहानी

कह रही थी।

राम विस्मित रह गए। किसने इस दिवंगत शैतान की आकृति

बनाने की हिम्मत की? उनके आश्चर्य की सारी सीमाएं तब पार हो गई

जब सीता ने स्वीकार किया कि यह आकृति उन्होंने बनाई थी।

सीता के स्वीकार्य ने राम को अधमरा कर दिया। क्या वह

दसकंठ से प्यार करती थी? क्या एक निष्ठाहीन पत्नी के लिए उन्होंने

अपने और अपने मित्रों के जीवन को दॉव पर लगा दिया था? क्या एक

विश्वासघाती ने उनके साथ बिस्तर साइझा किया था? उनका दुख कोध में

बदल गया और उन्होंने लक्षण को सीता को वहाँ से ले जाने, उसे मार

देने और उसके विदीर्ण हृदय को उन्हें लाकर दिखाने की आज्ञा दी।

भविष्य में आने वाले उनके उत्तराधिकारी की अभागी माँ का अपने कार्य के

बारे में सफाई देने का प्रयत्न व्यर्थ ही रहा। दुराग्रही राम को उसकी बातों

से सहमत नहीं होना था, उसे स्वीकार करना और अपने कूर आदेश को

वापस नहीं लेना था।

यद्यपि लक्षण को उन पर कोई संदेह नहीं था, फिर भी पीड़ित

सीता को जंगल में ले जाना पड़ा। सीता

ने उनका

हदय

से उन्हें

अनुगमन किया, उनके गाल गहरे दुख से बहने वाले अश्रुओं से भीग रहे

कुछ दूरी पार करने के बाद वे एक विशाल वृक्ष के पास पहुँचे।

उसकी ठंडी छाया में सीता अपने पति का आदेश पूरा करने के लिए बैठ

गई और सोचने लगीं, ‘किस कारण से वह मौत के लिए भेजी गई है?

एक छोटी सी बात के लिए-मात्र आकृति बनाने के लिए! वह पवित्र और

निर्दोष मरने के लिए जा रही है और एक दिन उसकी मौत सत्य को

उजागर कर देगी। उस मौत की कौन परवाह करे जिसके लिए किसी को

अपनी निर्दोषता सिद्ध करनी पड़े? शंकालु जीवन जीने से निर्दोषता को

सिद्ध करने के लिए मर जाना अधिक अच्छा है।’ इसलिए उन्होंने लक्षण

से कठोर प्रहार करने के लिए कहा ताकि जीवन के बंधन को प्रेम के

बंधन से काटा जा सके।

लक्षण का हृदय दुख से फट गया, ‘कैसे वह अपनी तलवार उस

के खिलाफ उठा सकता है जिसका उसने अपनी बहन के समान आदर

किया हो! कैसे वह उस स्त्री की जान ले सकता है जिसके गर्भ में

अयुध्या के सिंहासन का भावी उत्तराधिकारी है! और इससे भी अधिक कैसे

वह किसी निर्दोष के रक्त को बहा सकता है!

सीता उनके संकोच को समझ गई और उन्हें उनके लिए दुख

का अनुभव हुआ। वे समझ गई कि लक्षण का ह्ृदय उनका साथ नहीं दे

रहा है और वे स्वयं को अन्यायपूर्ण आदेश को क्ियान्वित करने के लिए

प्रेरित नहीं कर पा रहे हैं।

चूंकि सीता मरने के लिए कृतसंकल्प थीं, इसलिए लक्षण को

इस कूर कार्य को करने हेतु मनाने के लिए उन्होंने जानबूझ कर उन पर

झूठे आरोप लगाने शुरु कर दिए, ताकि वे निस्संकोच उनके जीवन को

समाप्त करने के लिए उत्तेजित हो सकें। उन्होंने कहा, ‘क्या वे अपने भाई

के आदेश से उनका वधिक बनकर नहीं आये हैं, फिर वे अब क्यों कमजोर

पड़ गए हैं? क्या उन्हें कोई गुप्त उद्देश्य पूरा क

रना है जब संयोग से वे

दोनों एकांत वन में आ गए हैं? क्या उनके मीठे शब्द केवल उन्हें धोखा

देकर फँसाने के लिए थे क्योंकि वह अब उनकी बंधक हैं?”

जब लक्षण ने इन अन्यायपूर्ण आरोपों को सुना, उनका हदय

कॉप उठा। उन्होंने सोचा, ‘फिर भी, उनके आरोपों में सच्चाई दिखाई देती

है, कोई भी उसे निर्दोष नहीं मान सकता क्योंकि एक बार जब वह स्वयं

ही एक अकेली औरत के साथ सूने जंगल में आ गया है। इसलिए

सामाजिक निंदा के डंक को सहने की अपेक्षा वह उन्हें मार दे । उसने

अपनी तलवार उठाई। लेकिन संबेदना ने उनके हृदय को अभिभूत कर

लिया और वह नहीं उठी। उनके विवश हाथों से तलवार छूट गई।

अपने संकल्प को दढ़ करके उन्होंने दूसरी बार अपनी तलवार

उठाई। दया और पश्चाताप ने उन्हें अशक्त कर दिया और उन्होंने अपनी

तलवार पर नियंत्रण खो दिया। वह जमीन पर दोबारा गिर पड़ी।

तीसरी बार अपनी ऑखों को करसकर बंद कर, तेज गति से

उन्होंने अपनी तलवार सीता की कोमल गरदन पर गिरने दी। तलवार के

गिरने के साथ वे भी अपने शिकार के पास मूर्च्छित होकर गिर पड़े। यह

उनकी गरदन पर एक तीक्ष्ण प्रहार की तरह नहीं गिरी जो उसे काट देती

बल्कि सुगंधित फूलों की माला की तरह गिरी। वास्तव में उनकी पवित्रता

ने तलवार से उसकी घातक तीक्ष्णता छीन ली थी।

सीता ने लक्षण की दण्डवत मुद्रा देखी। दुख ने उनके हृदय को

आकांत कर दिया और वे भी चेतनाशून्य होकर गिर पड़ीं । कुछ समय के

बाद उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। जीवन की किसी प्रकार की हलचल के

बिना लक्षण अब भी वहाँ मूच्छित पड़े थे। बिना ढाढस बांधे उन्होंने

देवताओं का उन पर दया करने और लक्षण का जीवन बचाने के लिए

आहवान किया। उनकी प्रार्थना फरलीभूत हुई। उनके भस्मवत मुखमंडल पर

जीवन की झलक दिखाई दी और उन्होंने अपनी आँखें खोल दीं।

जब उनकी आँख खुली और उन्होंने सीता को जीवित पाया, वे

बहुत प्रसन्न हुए। वे उठे और देवताओं से सीता

को अपने दैवीय संरक्षण

में लेने के लिए प्रार्थना की। फिर उदास मन से सीता से विदाई लेकर

भयुध्या नगर की ओर धीरे-धीरे चलने लगे। लेकिन केवल उनके शरीर ने

ही सीता को छोड़ा था, उनका मन अब भी अपनी बहन के इर्द-गिर्द घूम

रहा था। उन्हें उनकी चिंता सता रही थी। वे सोच रहे थे ‘जब सीता का

थका-मांदा शरीर बिना आराम अथवा विश्रआम किये आगे बढ़ने से इंकार

कर देगा, तब केवल यह कठोर मैदान ही होगा जो उनके इस असहाय

शरीर को स्वीकार करेगा और उनके गर्भ में नारायण का जो वंशज है, वह

महलों के राजसी वैभव में नहीं बल्कि जंगलों के निर्मम वातावरण में पहली

बार अपनी आँखें खोलेगा। यह कितनी दयनीय स्थिति होगी!’ दुखद

विचारों ने उन्हें उनके चलने की शक्ति से लगभग वंचित कर दिया।

लेकिन निर्दयी भाग्य भी शायद उनकी प्रतीक्षा करता, यदि वह

सीता का हदय दिखाने में असफल होते। इसलिए इंद्र ने दया करते हुए

रेत पर पड़े एक मृत मूग की रचना की। उस रास्ते से गुजरते हुए लक्षण

की दुख से भरी दृष्टि उस मृग की लाश पर पड़ी। उन्होंने तुरंत उसका

दिल सीता का दिल बता कर दिखाने के लिए निकाल लिया और दुखी

मन से राम को उनके निष्ठुर आदेश का पालन किये जाने के बारे में

विवरण देने के लिए अपने रास्ते पर चल दिए। राम ने वह दिल देखा

और उनके ईष्यालु होठों से केवल एक ही टिप्पर्ी बाहर आई कि उसका

हृदय उतना ही गंदा था जितना एक पशु का।

उल्लेखनीय बिंदु- इस प्रसंग की घटनाएं और उनका वर्णन दोनों ग्रंथों में

बहुत भिन्नता लिए हुए है। वा. में राम द्वारा सीता का निर्वासन लोकनिंदा

से बचने के लिए किया गया जबकि वह उन्हें बहुत प्रिय थीं। रा. में

इसका कारण राम द्वारा सीता के चरित्र पर शंका किया जाना था। रा. में

सीता के निर्वासन की घटना से सीता के प्रति राम का एक निर्दयी,

असहिष्णु और अन्यायी स्वरूप सामने आता है, जबकि वाल्मीकि में ऐसा

दिखाई नहीं देता। मृग के हृदय को लेकर आने का प्रसंग भी वा. में नहीं

है। रा. में लक्षण सीता को अपनी बहन मानते हैं, किंतु वा. में इसप्रकार

की

कोई चर्चा नहीं मिलती।

लव और कुश का जन्म

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

सीता जहाँ रो रही थीं, वहाँ से थोड़ी ही दूरी पर ऋषियों के

कुछ बच्चे खेल रहे थे। वे उन्हें रोता देख अपने आश्रम की ओर दौड़े और

तपस्यारत वाल्मीकि को

उनके बारे में सूचना दी,

‘भगवन्! गंगातट पर

किन्हीं महात्मा नरेश की पत्नी हैं, जो साक्षात् लक्ष्मी के समान जान पड़ती

हैं। इन्हें हम लोगों ने पहले कभी नहीं देखा था। वे मोह के कारण विकृत

मुख होकर रो रही हैं ।.्ये साध्वी अपने लिए कोई रक्षक दूँढ रही हैं । अतः

आप इनकी रक्षा करें। ऋषि ने अपने तपोबल से प्राप्त दिव्य दृष्टि से सब

बातें जान लीं। जानकर वे उस स्थान पर दौड़े हुए आए, जहाँ सीता

विद्यमान रथीं। वहाँ पहुँचकर उन्होंने सीता की अनाथ-सी अवस्था को देखा

और अपने तेज से उनको प्रसन्न करते हुए कहा, ‘महाभागे! तुम्हारा सारा

वृतांत मैंने ठीक- ठीक जान लिया है। मैं तपस्या से प्राप्त दिव्यदृष्टि से

जानता हूँ कि तुम निष्पाप हो। अब तुम निश्चंत हो जाओ। इस समय

तुम मेरे पास हो। मेरे आश्रम के पास ही कुछ तापसी स्त्रियाँ रहती हैं, जो

तपस्या में संलग्न हैं। वे अपनी बच्ची के समान तुम्हारा पालन करेंगी।

मुनि के ऐसा कहने पर सीता उनके पीछे-पीछे चल दीं। मुनि ने उन्हें

आश्रम में मुनि-पत्नियों को सौंपते हुए बताया, ‘ये परम बुद्धिमान राजा राम

की धर्मपत्नी सीता यहाँ आई हैं। स्ती सीता दशरथ की पुत्रवधु और

जनक की पुत्री हैं। निष्पाप होने पर भी पति ने इनका परित्याग कर दिया

है। मुझे ही इनका लालन-पालन करना है। अतः आप सब लोग इन पर

अत्यंत स्नेह-दृष्टि रखें। कुछ समय बाद सीता ने दो पुत्रों को जन्म दिया

जिसका समाचार मुनिक्मारों ने वाल्मीकि को जाकर दिया और उन पुत्रों

की भू्तों और राक्षसों से रक्षा की व्यवस्था करने की प्रार्थना की। ऋषि

वाल्मीकि ने एक कुशाओं का मुट्ठा और उनके लव लेकर रक्षा-विधि का

उपदेश देते हुए कहा, ‘वृद्धा स्त्रियों को चाहिए कि इन दोनों बालकों में

जो पहले उत्पन्न हुआ है, उसका मंत्रों द्वारा संस्कार किए हुए इन कुशों

से मार्जन करें। ऐसा करने पर उस बालक का नाम कुश होगा और उनमें

जो छोटा है, लब से मार्जन करने पर

उसका नाम लव होगा। इसप्रकार

जुड़वाँ हुए दोनों बालकों ने कृमशः कुश और लव नाम धारण किए। उस

समय शत्रुध্ वहाँ उपस्थित थे। वे राम द्वारा दिए गए कार्य को पूरा करने

के लिए जाते हुए रास्ते में वाल्मीकिे के आश्रम में रुके थे। उनके कानों में

राम और सीता के नाम, गोत्र के उच्चारण की ध्वनि पड़ी, साथ ही सीता

के दो पुत्रों के होने का संवाद भी प्राप्त हुआ। तब वे सीता के पास

जाकर उनसे मिले। उसके बाद ऋषि की आज्ञा से वे आगे जाने के लिए

रामकीर्ति के अनुसार

जंगल में अकेली रह जाने पर, सीता का अवर्णनीय दुख अब

ऑँसुओं के रूप में उमड़ कर बाहर आ गया। ऑसू, जिन्होंने अपने पति

की दया पाने के लिए व्यर्थ ही सफाई दी थी, अब उन्होंने स्वर्ग के देवता

की सहानुभूति को अपनी ओर खींचा। दयालु देवता ने एक भैंसे का रूप

धारण किया और उनके सामने प्रकट हुए, उसकी मूक ऑखों ने उन्हें

सहानूभूतिपूर्वक अपने पीछे चलने के लिए आमंत्रित किया। वे तूरंत उस

दयाल पशु के पीछे चलने लगीं और बहुत शीघ्र ही स्वयं को ऋषि

वजमृग

52

के आश्रम में पाया।

दयालु हृदय ऋषि ने उन्हें पिता के जैसा घर प्रदान किया, जो

छप्पर का तो था किंतु सुरक्षित, जिसकी छत के नीचे उन्होंने अयुध्या के

राजा के उत्तराधिकारी को जन्म दिया। इंद्र की दिव्य रानियाँ स्वर्ग से नीचे

आई और परित्यक्त रानी तथा अयुध्या के भावी राजा के लिए दाई की

भूमिका निभाई।

53

ऋषि ने उसका नाम मेंकुट

रखा। सीता के अंधकारमय जीवन

में यही एक आशा की किरण थी। बच्चे की मुखाकृति में उन्होंने अपने

52

53

वा. वाल्मीकि,

वा. कुश

रामकीति

, पू 145

रामकी्ति, पू

145

पति की झलक देखी लेकिन इसने केवल उनके दुख को और बढ़ा दिया

जो उनके हृदय को निर्दयता से निरंतर पीड़ित कर रहा था

शक्तिशाली राज्य के उत्तराधिकारी ने एक एकांत पेड़ की छाया में जन्म

लिया! संसार में बच्चे का स्वागत करने के लिए पिता नहीं! पोषण करने

और नींद में सुलाने के लिए कोई दासी नहीं! एक सम्राट के बालक का

जन्म एक अभागी माँ की अभावग्रस्त गोद में! टूटे हृदय से निकली एक

गहरी आह के साथ उन्होंने अपनी अंगूठी निकाली, जो उनके पास एक

मात्र संपत्ति थी और इसे उन्होंने अपने नवजात शिशु की कोमल अंगुली में

पहना दिया।

एक

एक दिन सीता गहन ध्यान में लीन ऋषि की देखरेख में अपने

शिशु को छोड़ कर स्नान करने चली गई। उन्होंने वहाँ बहुत सारे उन

वानरों को

एक पेड़ से दूसरे पेड़ पर छलांग लगाते हुए देखा जिन्होंने

अपने छोटे बच्चों को दृढ़ता से अपनी छाती से लगा खा था

काँप गई कि किसी भी क्षण कोई भी बच्चा अपनी पकड़ ढीली कर सकता

है और नीचे गिर सकता है। इसलिए वानरों द्वारा अपने बच्चों की सही

ढंग से देखभाल न करने के लिए उन्होंने उन्हें सचेत करने के उद्देश्य से

डॉटा-फटकारा । लेकिन वानरों ने उनकी फटकार का गुस्से में प्रत्युत्तर

दिया, ‘क्या वानरों से अधिक वे स्वयं असावधान नहीं हैं? क्या वे स्वयं

मूर्ख नहीं हैं जिन्होंने अपने बच्चे को एक ऋहषि की देखरेख में, जो उस

समय आसपास के वातावरण से बेखबर गहन ध्यान में लीन थे, एकांत

कुटिया में छोड़ दिया है? अब कौन उस बच्चे की देखभाल करने वाला

है?’ अब उन्होंने एक माँ की दृष्टि से देखा। वानर इतने मूर्ख नहीं होते हैं।

कि उनका ध्यान अपने बच्चों से हट जाए। उनके प्रत्युत्तर ने सीता को

इतना अधिक चेता दिया कि वह बना समय गंवाए वापस गई और बच्चे

को अपने साथ ले आई ।

उसी समय ऋषि अपने ध्यान से उठ गए। उन्होंने बच्चे को

चारों तरफ देखा। लेकिन बच्चे को वहाँ न पाकर वे सोचने लगे कि

बेचारी सीता कैसे इस आघात को सहन करेगी? पति से वंचित, अब बच्चे

से भी वंचित! ऋषि तो दया के साका

र रूप थे। सीता को इस कठोर

विपत्ति से बचाने के लिए उन्होंने उनके बच्चे के बदले एक नए बच्चे की

रचना करने के लिए स्लेट पर एक आकृति बनाई और उस में जीवन

संचार करने के लिए किए जाने वाले आवश्यक धार्मिक कृत्य शुरु करने

ही जा रहे थे, तभी सीता मंकुट को बाहों में लिए अंदर आई। ऋषि ने

बच्चे को देखकर राहत की सांस ली और उन्होंने अनुष्ठान को बीच में ही

छोड़ दिया। लेकिन सीता ने उनसे उस अनुष्ठान को पूरा करने की

प्रार्थना की ताकि मंकुट को उसके साथ खेलने के लिए साथी मिल जाए।

अंततः ऋषि की अलौकिक शक्तियों से सृजित एक दूसरा बच्चा सीता के

मातृवत ध्यान और प्रेम को बॉटने के लिए आ गया। नए बच्चे का नाम

लब रखा गया। दोनों बच्चे स्वस्थ और ओजस्वी होते हुए बड़े होने लगे।

उनकी प्रसन्नतापूर्ण ठिठोलियाँ प्रायः आश्रम की शांति को भंग करती रहतीं

और उनकी माता के जख्मी हदय के लिए ठंडे मलहम का काम करतीं।

उल्लेखनीय बिंदु

दोनों ग्रंथों में सीता के दो पुत्रों की बात कही गई है किंतु उन

दोनों के जन्म की घटनाओं में अंतर है। रा. के वजमृग और मंकुट कमशः

वा. के ऋषि वाल्मीकि और कुश हैं। वा. में वानरों वाला प्रसंग नहीं है। रा.

में वाल्मीकि द्वारा कुश और लव के नामकरण के आधार का कोई उल्लेख

नहीं है।

राम का अश्वमेध यज्ञ और सीता का रसातल में प्रवेश

वाल्मीकि रामायण के अनुसार

राजा राम के राज्य में जब चारों ओर शांति व्याप्त हो गई तब

एक दिन उनके मन में राजधर्म की चरम सीमा स्वरूप राजसूय यज्ञ का

अनुष्ठान करने का विचार आया, उन्होंने भरत और लक्ष्मण को बुलाकर

अपने मन की बात कही। किंतु भरत ने राम के उस विचार से असहमति

प्रकट करते हुए यही कहा कि इस यज्ञ का अनुष्ठान उनके लिए उचित

नहीं है क्योंकि इससे भूमंडल के सभी राजवंशों

का विनाश होगा, साथ ही

पृथ्वी पर जो पुरुषार्थी पुरुष हैं, उन सबका भी विनाश होगा। भरत की

इस बात को सुनकर राम को बहुत हर्ष हुआ और उन्होंने भरत की बात

को मान लिया। राम और भरत की बात को लक्ष्मण ने भी सुना था। तब

लक्ष्मण ने कहा, ‘रघूनंदन! अश्वमेध नामक महान यज्ञ समस्त पापों को दूर

करने वाला, परम पावन और दुष्कर है। अतः आप इसका अनुष्ठान करें।

अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए लक्ष्मण ने बताया कि पहले जब देवता

और असुर परस्पर मिलकर रहते थे, उन दिनों वृत्र नाम से प्रसिद्ध एक

धार्मिक,

सम्पूर्ण कामनाओं को देने वाली थी। एक बार उसके मन में परम उत्तम

तप करने का विचार उत्पन्न हुआ। अपने पुत्र मधुरेश्वर को राज्यभार

सौंपकर वह कठोर तप करने लगा। उसके तप से भयभीत अपने राज्य के

छिन जाने के भय से इंद्र तथा समस्त देवताओं ने भगवान विष्णु से उसके

वध करने की प्रार्थना की। तब विष्णु भगवान ने इंद्रादि देवताओं से उसका

वध करने का उपाय बताया,

विभक्त करूँगा। मेरे तेज का एक अंश इंद्र में प्रवेश करेगा, दूसरा वज़् में

व्याप्त हो जाएगा और तीसरा भूतल को चला जाएगा। तत्पश्चात् इंद्रादि

देवता उस वन में गए जहाँ महान असुर तपस्या करता था। उसके चारों

ओर व्याप्त तेज से घबराए देवता अभी सोच ही रहे थे कि हम इसका वध

कैसे करेंगे, तभी इंद्र ने दोनों हाथों से वज्ञ उठाकर उस वृत्रासुर के

मस्तक पर दे मारा जिससे उसका मस्तक कट कर धरती पर गिर गया।

रस्थितिप्रज्ञ और कृतज्ञ असुर रहता था। उसके राज्य में पृथ्वी

मैं अपने स्वरूपभूत तेज को तीन भागों में

निरपराधी एवं तपस्यारत वृत्रासुर का वध करने पर इंद्र बहुत

चिन्तित हो गए और अंधकारमय लोक में चले गए। जाने के समय ही

ब्रह्महत्या उनके पीछे लग गई। देवताओं द्वारा इंद्र को ब्रह्महत्या के पाप

से मुक्त कराने का उपाय पूछने पर भगवान विष्णु ने कहा, ‘”पवित्र अश्वमेध

यज्ञ के द्वारा मुझ यज्ञ पुरुष की आराधना करके इंद्र पुनः देवेंद्र के पद को

प्राप्त कर लेंगे और फिर उन्हें किसी से भय नहीं रहेगा।’ लक्ष्मण से

अश्वमेध यज्ञ के अनुष्ठान के इस उत्तम और मनोहारी प्रभाव को सुनकर

राम बहुत प्रसन्न हुए। उसके बाद तीनों ने मिलकर अश्वमेध करने की

बात पर

अश्वमेध-यज्ञ कराने वाले

विचार किया। तत्पश्चात राम ने लक्ष्मण से कहा,

ब्राह्मणों में अग्र

गण्य एवं सर्वश्रेष्ठ वसिष्ठ,

वामदेव, जाबालि और काश्यप आदि सभी द्विजों को बुलाकर और उन

सभी से सलाह लेकर पूरी सावधानी के साथ शुभ लक्षणों से संपन्न घोड़ा

छोड़ुँगा। जब ऋषियों के सामने यह प्रस्ताव रखा गया, तो सभी ने इस

बात पर प्रसन्नता व्यक्त की। राम ने लक्ष्मण को उससे संबंधित विविध

कार्यों को करने का आदेश दिया।

अश्वमेध यडज्ञ की तैयारियों को पूर्ण करके राम ने उत्तम लक्षणों

से संपन्न तथा कृष्णसार मृग के समान काले रंग वाले एक घोड़े को

छोड़ा। ऋत्विजों सहित लक्ष्मण को उस अश्व की रक्षा में नियुक्त कर राम

नैमिषारण्य को चले गए जहाँ सभी के मान-सम्मान, दान आदि की उत्तम

व्यवस्था थी।

नैमिषारण्य में अदभूत यज्ञ के आरंभ होने पर वाल्मीकि अपने

शिष्यों के साथ वहाँ पधारे। उन्होंने अपने दोनो शिष्यों से एकाग्रचित हो

सब ओर घूम-फिर कर रामायण-काव्य का गान करने के लिए कहा।

साथ ही उन्होंने यह भी कहा, “यदि महाराज श्री राम तुम दोनों को गाना

सुनाने के लिए बुलावें तो तुम उनसे तथा वहाँ बैठे हुए ऋषि- मुनियों से

यथायोग्य विनयपूर्ण बर्ताव करना। यदि श्री रघुनाथ पूछें कि तुम दोनों

किसके पुत्र हो, तो महाराज से इतना ही कह देना कि तुम दोनों भाई

महर्षि वाल्मीकि के शिष्य हो।’ ऋषि की इन बातों को सुनकर, उनकी

आज्ञा लेकर वे दोनों वहाँ से चल दिए।

प्रातः होने पर समिधा – होम आदि के बाद वे दोनों भाई वहाँ

संपूर्ण रामायण का गान करने लगे। रघुनाथ ने उस गान को सुना तो

उन्हें भी बड़ा आश्चर्य हुआ। कर्मानुष्ठान से अवकाश मिलने पर पंडितों एवं

विद्वज्जनों से भरी सभा में राम ने दोनों बालकों को बुलाया। राम के कहने

पर उन बालकों ने नारदजी द्वारा प्रदर्शित प्रथम सर्ग-मूल रामायण का

आरंभ से लेकर बीस स्गों तक गान किया जिसे सुन कर सभी मंत्रमुग्ध

हो गए। राम ने भरत से उन्हं 18 हजार स्वर्णमुद्राएं देने के लिए कहा

जिन्हें उन्होंने स्वीकार नहीं किया। राम के ये प्रश्न पूछने पर इस काव्य

की उपलब्धि कहाँ से हुई? इस महाकाव्य के श्लोकों की संख्या कितनी

है? महात्मा कवि का आवास स्थान कौन

-सा है? इस महान काव्य के

कर्ता कौन मुनीश्वर हैं और वे कहाँ हैं?’ उन्होंने बताया कि इस रचना के
रचयिता भगवान वाल्मीकि हैं, वे यज्ञस्थल में पधारे हुए हैं, इस महाकाव्य
में चौबीस हजार श्लोक और एक सौ उपाख्यान हैं, आदि से अंत तक
पाँच सौ सर्ग तथा
उत्तरकांड की भी रचना की है। दोनों भाईयों ने राम से यह भी कहा कि
यदि वे उसे सुनना चाहते हैं तो यज्ञ कर्म से समय निकालकर अपने
भाईयों के साथ बैठकर इसे सुनें। तत्पश्चात् राम कई दिनों तक वह उत्तम
रामायण-गान सुनते रहे।
छह काण्डों का भी निर्माण किया है, इसके अतिरिक्त
उस कथा से ही राम को मालूम हुआ कि वे दोनों सीता के ही
यह जानने के बाद उन्होंने शुद्ध आचार वाले दू्तों को बुलाया और
पुत्र हैं।
उन्हें वाल्मीकि के पास इस संदेश को लेकर भेजा, ‘यदि सीता का चरित्र
शुद्ध है और यदि उनमें किसी तरह का पाप नहीं है तो वे महामूनि की
अनुमति ले यहाँ आकर जनसमुदाय में अपनी शुद्धता प्रमाणित करें ।
वाल्मीकि ने उनकी बात स्वीकार कर ली राम ने भी प्रसन्नचित्त होकर
वहाँ आए ऋषियों और राजाओं से भी उस शपथ- ग्रहण में सम्मिलित होने
के लिए कहा।
निश्चित समय पर राम सहित महर्षिगण, राक्षसगण, महाबली
वानर, राजागण आदि सभी लोग सभा में पधारे । वाल्मीकि सीता को लेकर
तुरंत वहाँ आए और उस जन समुदाय के बीच सीता की पवित्रता को
प्रमाणित करते हुए कहा, ‘दशरथनंदन! यह सीता उत्तम ब्रत का पालन
करने वाली और धर्मपरायणा है। आपने लोकापवाद से डरकर इसे मेरे
आश्रम के समीप त्याग दिया था। ये कुश और लव जानकी के गर्भ से
जुड़वाँ पैदा हुए हैं। ये आपके ही पुत्र हैं। वाल्मीकि की बात सुनकर राम
ने उनसे यही कहा कि उनके कहने पर उन्हें सीता की पवित्रता का पूरा
विश्वास हो गया है, फिर भी जनसमुदाय के बीच जनककुमारी की
विशुद्धता प्रमाणित हो जाने पर उन्हें अधिक प्रसन्नता होगी।
उस समय सीता तपस्विनियों की तरह गेरूआ वस्त्र धारण किए
हुए थीं
हुए थीं। सबको उपस्थित जानकर वे हाथ जोड़े, दृष्टि और मुख नीचे
किए हुए बोलीं, ‘यदि मैं मन, वाणी और क्िया के द्वारा केवल श्रीराम की
आराधना करती हूँ तो भगवती पृथ्वी देवी मुझे अपनी गोद में स्थान दें ।
विदेह कुमारी के इस प्रकार की शपथ लेते ही भूततल से एक अदभुत और
दिव्य सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के साथ ही पृथ्वी की अधिष्ठात्री
देवी भी दिव्य रूप में प्रकट हुई। उन्होंने मिथिलेशकुमारी सीता को अपनी
दोनों भुजाओं से गोद में उठा लिया और उन्हें सिंहासन पर बैठा कर
रसातल में प्रवेश कर गई। सीता का रसातल में प्रवेश होता देख सभी
देवता कहने लगे, ‘सीता तुम धन्य हो! धन्य हो!’ सीता का भूतल में प्रवेश
देख वहाँ आए हुए सभी लोग आश्चर्य से भर गए। दो घड़ी तक वहाँ का
सारा जनसमुदाय मोहाच्छन्न-सा हो गया। स्वयं राम भी बहुत दुखी हुए।
उन्होंने पृथ्वी देवी से उनको लौटा देने की प्रार्थना की और कहा, ‘मुझे
सीता को लौटा दो; अन्यथा मैं अपना कोध दिखाऊँगा। मेरा प्रभाव कैसा
है? यह तुम जानती हो। राम जब कोध और शोक से युक्त हो ऐसी बातें
करने लगे तो ब्रह्मा जी ने उन्हें उनके वास्तविक स्वरूप का स्मरण कराते
हुए कहा कि साध्वी सीता तो शुद्ध हैं। वे पहले से ही आपके पारायण में
रहती हैं। आपका अआश्रय लेना ही उनका तपोबल है। उसके द्वारा वे
सुखपूर्वक नागलोक के बहाने आपके परमधाम में चली गई हैं। इन सब
बातों ने राम को सांत्वना दी और वे जनसमुदाय को विदा कर कुश और
लव को साथ लेकर अपनी पर्णशाला में आ गए ।
रामकीर्ति के अनुसार
समय के साथ दोनों लड़के दस वर्ष के हो गए। कितु पराकृम
और शक्ति में वे बड़े से बड़े शूरवीरों से भी बढ़कर थे। एक दिन दोनों
भाईयों ने अपनी माता से अनुमति ली और सघन जंगल के बीचोंबीच
घुमने चले गए। वहाँ उन्होंने एक विशाल ‘रंग’ वृक्ष को देखा। अपने अस्त्र
की शक्ति-परीक्षा के लिए मंकुट ने एक बाण वृक्ष पर छोड़ा जिसने उसे
दो भागों में विभक्त कर दिया और वह बहुत तेज गड़गड़ाहट के साथ
जमीन पर आ गिरा। उसके गिरने से दूर-दूर तक सारी पृथ्वी कंपायमान
हो उठी।
इससे उत्पन्न हुआ कोलाहल अयुध्या के महल में राम के कानों
तक पहुँचा। उन्होंने सोचा, ‘किसने इस अकल्पनीय कोलाहल को करने
की हिम्मत की जबकि नारायण इस समय स्वयं मानव रूप में हैं? क्या

किसी ने उनकी शक्ति को छीनने के लिए जन्म ले लिया है? यदि ऐसा

है, तो उन्हें इसके बारे में जानना चाहिए और उसे परास्त करना चाहिए।

इस बात को ध्यान में रखकर, उन्होंने अश्वमेध करने का निर्णय

किया। बर्फ के समान स्फेद शरीर, गहरे काले रंग के चेहरे वाले, लाल

गुलाब के समान मुख और टांगों वाले घोड़े को आजाद छोड़ दिया गया।

इसकी गरदन पर एक लेख संलग्न था कि जो कोई भी इस पर चढ़ने की

हिम्मत करेगा, वह विद्रोही समझा जाएगा, तदनुरूप उसके साथ व्यवहार

किया जाएगा। बरत और सत्रद के साथ फ़ाया अनुजित उस घोड़े के

पीछे-पीछे गए।

अनेक जंगलों और स्थानों से होता हुआ वह घोड़ा घूमता रहा।

अंत में, ईश्वरीय इच्छा से वह जंगल के उस हिस्से में चला गया जहाँ

उस कोलाहल को पैदा करने वाला अपने भाई के साथ खेल रहा था।

मंकुट ने वह लेख पढ़ा और तुरंत समझ गया कि किसने और क्यों इस

घोड़े को आजाद छोड़ा हुआ है? उन दोनों भाईयों ने फिर उस सुंदर पशु

को उसकी सरपट दौड़ का आनंद लेने के लिए पकड़ लिया।

फ़ाया अनुजित इन दोनों लड़कों के बचकाने आचरण को देख

वे इस प्रकार से पशु के ले जाने को और अधिक सहन न कर

रहे थे

सके। तत्षण वे सामने आए और उनका रास्ता रोक लिया। लेकिन मंकुट

के एक बाण के प्रहार ने उन्हें बेहोश कर जमीन पर गिरा दिया।

उन्हें होश में आने में कुछ ही क्षण लगे। स्वस्थ हो जाने पर

उन्होंने एक छोटे वानर का रूप धारण किया और उन दोनों भाईयों के

पास पहुँचे। इस समय मंकुट उसे मारने ही वाला था कि लब ने उसे

कपड़ों में देखा तो उन्होंने सोचा एक वानर कपड़े पहने हुए! इसका

मालिक कोई और होना चाहिए। इसलिए मारने के स्थान पर उन्होंने उसे

मजबूती से बाँध दिया और यह अभिशाप देकर जंगल में छोड़ दिया कि

इसके स्वामी के अतिरिक्त और कोई इसे बंधन से मुक्त कर पा

ने में सक्षम

नहीं होगा।

फाया अनुजित ने होश में आने पर अपने को इस दुर्दशा में

पाया। स्वयं उन्होंने, बरत और सत्रुद ने बंधन से छुटकारा पाने के लिए

प्रयत्न किए, किंतु सब व्यर्थ ही गए। अंततः अपमान का शिकार वानर राम

के पास आया जिन्होंने उसे बंधन से मुक्त कर दिया। अपने सेवक की

अपकीर्ति होने से परेशान राम ने बरत और सत्रद को विशाल सेना के

साथ फ़ाया अनुजित के साथ जाने और दोनों छोटे दष्ट बालकों को

पकडने का आदेश दिया।

एक भ्यंकर युद्ध लड़ा गया, जिसके अंत में बरत के बाणों से

मंकुट मूच्छित हो गिर गया, जबकि लब अपनी माँ की कुटिया की ओर

भागा

राम के आदेश द्वारा उसका सिर काटने तक कैद में सुरक्षित रखा गया।

इसप्रकार मंकुट को पकड़ कर अयुध्या ले जाया गया जहाँ उसे

इसी बीच लब ने अपनी माता को मंकुट के बारे में दुखभरी

कहानी बताई। इस समय सीता के पास एक रहस्यमयी अंगूठी थी जो

कठोर से कठोर गांठ को खोल सकती थी। उन्होंने इसे लब को दिया

और उसे मंकुट को छुड़ाने के लिए भेजा।

नगर में उसने मानव रूप में एक दिव्य परी को देखा, जो मंकुट

के लिए पानी खींच रही थी। लब ने पानी खींचने के लिए उसे अपनी

सेवाएं प्रस्तुत कीं और ऐसा करते हुए उसने पानी के बर्तन में अपनी

अंगूठी डाल दी। ज्योंही अंगूठी मंकुट के हाथ में पहूँची, उसने स्वयं को

बंधनों से मुक्त पाया। दोनों भाई तब नगर से बाहर जंगल में आ गए और

शत्रु पर घात लगाकर आकृमण करने के लिए बैठ गए।

जब राम ने देखा कि उनका कैदी बच निकल भागा है, वे स्वयं

एक विशाल सेना का नेतृत्व करते हुए मंकुट को खोजने के लिए चल

दिए। जंगल के बीचोंबीच पिता और उनके दोनों पुत्रों के बीच एक भीषण

संघर्ष हुआ। लेकिन पुत्र का बाण पिता का खून पीने के लिए नहीं था,

और न ही पिता का बाण अपने पुत्र का जीवन समाप्त करने के लिए।

बाण आकाश से उड़ते हुए आए और बिना किसी

पर प्रहार किए नीचे गिर

गए। पहले पुत्र का बाण पुष्पों में बदला और राम के चरण कमलों की

वंदना की।

विस्मित और आश्चर्यचकित राम ने अपने सामने वालों के वंश के

बारे में जानना चाहा। जब उन्हें यह पता चला कि वे दोनों सीता के पूत्र

हैं, वे आश्चर्य से अभिभूत हो गए । क्या सीता लक्षण के द्वारा नहीं मारी

गई? राम के द्वारा पूछे जाने पर लक्षण ने सारी कहानी बता दी। राम की

प्रसन्नता की कोई सीमा न रही, जब उन्होंने अपनी रानी के निष्ठावान

और स्वामीभक्त हृदय को ढूंढ निकाला।

वे उन दोनों भाईयों के साथ उनकी कुटिया में गए जहाँ सीता

अपने पुत्रों की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रही थीं। यह उनकी प्रिय सीता

की पहली झलक थी, नीले बादलों के पीछे क्षीण होता हुआ चाँद। लेकिन

जब सीता को यह पता चला कि राम उनके साथ उनकी कुटिया तक आ

गए हैं, वे अपने पति की दुष्टता और अत्याचारों के कारण तीव्र कोध से

भर गई। उसके जीवन को बरबाद करने से संतुष्ट न हुए तो अब उसके

पुत्रों का जीवन भी बरबाद करने आ गए हैं।

राम ने उनसे क्षमा मांगी और महल लौटने के लिए

अनुनय-विनय की। किंतु सीता राम की तथाकथित दयालुता से ऊब चुकी

थीं। उन्होंने उनके प्रस्ताव को ठुकरा दिया क्योंकि उनका मानना था कि

लंका में तो उसे सुरक्षा में रखा गया था फिर भी उनके अविश्वास का

पात्र बनी। अब तो वह दस साल के लंबे समय से स्वतंत्र रूप से जंगल

में रह रही है, फिर क्या वे उसके चरित्र को पहले से अधिक संदिग्ध नहीं

लिए

समझेंगे? अब वे उसे कैसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर सकते हैं?

राम के पास इसप्रकार के कटाक्षों का कोई जबाब नहीं था।

उनके पास केवल निष्कपट और अश्रुपूर्ण निवेदन का ही रास्ता था कि

यदि वे उनके साथ नहीं जाना चाहतीं, तो इससे अच्छा वे उन्हें मार दें।

लेकिन सीता ने उनके इन मधुर वचनों पर कोई ध्यान नहीं दिया और

उन्होंने कहा कि वे राम की तरह नहीं हैं जो अपनी पत्नी को मारने का

आदेश दे

ने में भी नहीं हिचकिचाए।

सीता को किसी भी प्रकार से अपने साथ ले जाने में असमर्थ

राम ने तब उनसे उनके पुत्रों के बारे में कहा ताकि वे उन्हें अपने साथ

महल ले जा सकें और उनका पालन-पोषण उन नियमों के अंतर्गत कर

सकें जो एक राजकुमार के लिए उचित होते हैं। प्रस्ताव सीता को कष्ट

देने का एक और नया कारण था

फिर भी वे अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए उन्हें अपने पास रखकर उनका

भविष्य खराब नहीं करना चाहती थीं। विचलित हृदय से निकले आँसुओं

के साथ उन्होंने अपने पुत्रों को आअपने प्रतापी पिता के साथ जाने और

यद्यपि वे अपने पूत्रों से प्रेम करती थीं

अपने महान वंश का गौरव बढ़ाने की आज्ञा दी।

राम ने अपने दोनों पु्रं के साथ अयुध्या के लिए प्रस्थान किया।

यह उनकी विषादपूर्ण यात्रा थी और कभी-कभी उनके अनिच्छूक कदमों

को सीता की मधुर यादें पीछे खींच कर मंद कर देती थीं। अंततः वे

अयुध्या नगर में पहुँच गए जहाँ हार्दिक अभिनंदन उनकी प्रतीक्षा कर रहा

था।

मंकुट और लब के दिन अपनी दादियों के उदारतापूर्वक उमड़े

प्रेम में खुशी-खुशी आराम से बीतने लगे। फिर भी, उनके दिल की

गहराईयों में अपनी दुखी माता के लिए उमड़ने वाले भाव बंद नहीं हुए।

अंत में उनकी भावनाएं इतनी प्रबल हो गई कि अयुध्या के महल ने भी

उनके बाल मन को खुशी और शांति देना बंद कर दिया। इसलिए उन्होंने

अपने पिता से अनुमति ली और अपनी माता के पास जाने के लिए जंगल

की ओर प्रस्थान किया।

राम ने इस अवसर का लाभ उठाते हुए सीता के पास पुनः

संदेश भेजा कि यदि वे आने में असमर्थ हुई तो आँसू, जो इस समय

उनके इकलौते साथी हैं, उन्हें मौत के मुँह में ले जायेंगे। सीता ने अपने

पुत्रों से इस संदेश को सुना। लेकिन उनका केवल एक ही उत्तर था कि

यदि कभी राम पर ऐसा समय आया, तो वह उनके शरीर को अपनी

आखिरी श्रद्धा अ

र्पित करने अवश्य आएंगी।

दुखी मन से वे दोनों भाई राजधानी लौट आए और उन्होंने राम
को सीता के उत्तर के बारे में बताया। उत्तर की गंभीरता उनके लिए कई
निद्रारहित रातें लेकर आई। अंत में, फ़ाया अनुजित के साथ मिलकर राम
ने एक कपटभरी योजना गढ़ी जो सीता को महल में ला सकती थी।
फ़ाया अनुजित सीता के पास यह झूठा समाचार लेकर गए कि
सीता के प्रति राम के दुख ने आखिर उनके जीवन को समाप्त कर दिया।
यह सुनकर, उनकी कूरता के बावजूद, मृत्यु ने सीता के कोध और घृणा
की सारी भावनाओं को मिटा दिया और राम को सारी अच्छाईयों के साथ
प्रस्तुत कर दिया। मृत्यु के समाचार से सीता उन सभी कूरताओं को भूल
गई जो कभी उन्हें राम से मिली थीं। उन्होंने केवल उसी विशेष प्रेम को
याद रखा जो वे उनके लिए रखते थे। इसलिए वह अपने पति के अवशेषों
को अंतिम श्रद्धांजलि देने के लिए शीघ्रता से महल की ओर चल दीं। वे
शव कक्ष में गई जहाँ पर तथाकथित मृत शरीर एक पात्र में सुरक्षित रखा
जाता था और विलाप करने ल्गीं। उनका विलाप राम तक पहुँचा, जो
परदे के पीछे छिपे हुए थे। वे उस छिपे हुए स्थान से बाहर आए और
उस विलाप करते हुए रूप को खुशी से अपने ज्वलित ह्ृदय से लगाने के
लिए उस ओर दौड़े। लेकिन उनकी इस कपटी युक्ति ने सीता के मन में
केवल रोष की ज्वाला को दोबारा प्रज्ज्वलित कर दिया जो अब बुझने
वाली थी। जब उनकी अश्रपूर्ण प्रार्थना सीता को महल में ठहरने के लिए
मनाने में व्यर्थ सिद्ध हुई, राम ने बल का सहारा लिया। राम ने अपने सभी
भाईयों और फाया अनुजित को बुलवाया और शवकक्ष के सभी निकास
द्वारों को बंद करने का आदेश दिया ताकि उन्हें रहने के लिए विवश
किया जा सके।
लेकिन तभी उनको पूरी तरह से हताश कर देने वाली एक
घटना वहाँ पर घटी। उस स्थान पर, जहाँ सीता खड़ी हुई थीं, उनकी
प्रार्थना से धरती फट गई। उस दरार में वे प्रवेश कर गई और पाताल के
राजा, नागाविरुन के नगर में चली गई । धरती ऊपर से बंद हो गई और
उस पर राम का मूच्छित शरीर पड़ा हुआ था।
उल्लेखनीय बिंदु

सीता के रसातल में प्रवेश के प्रसंग दोनों ही ग्रंथों में हैं लेकिन

इससे जुड़ी घटनाओं में काफी भिन्ता है। जब राम को पता चला कि

सीता जीवित हैं तो वाल्मीकि द्वारा उनकी पवित्रता को प्रमाणित करने के

बाद भी सीता से अपनी पवित्रता की शपथ लेने के लिए कहा गया

यदि रा. पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि इनमें से कोई भी घटना रा.

में नहीं मिलती है। रा. में वर्णित अश्वमेध के लिए छोड़े गए घोड़े को

पकड़ लेने पर मंकुट और लब का हनुमान, बरत और सत्रुद के साथ हुआ

युद्ध, राम का उनसे सामना, मंकुट और लब के बारे में पता चलना कि वे

दोनों सीता के पुत्र हैं, उस समय फिर राम का उनकी कुटिया पर जाकर

सीता से माफी मांगना, अयुध्या लौटने के लिए अनुनय विनय करना, राम

द्वारा एक चाल के तहत सीता को अयुध्या बुलवाने जैसी घटनाओं का

वर्णन वा. में नहीं है। अंत में जहाँ वा. में पृथ्वी में प्रवेश के बाद सीता

का जीवन समाप्त हो जाता है, वहीं रा. में सीता जीवित रहती हैं।

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